स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
शिव-पार्वती संवाद, गरुड़ मोह, गरुड़जी द्वारा काकभुशुण्डि सँ रामकथा आर राम महिमा सुननाय
१. शिवजी कहैत छथि – “हे गिरिजे! सुनू, हम ई उज्ज्वल कथा, जेहेन हमर बुद्धि छल, तेहेन पूरा कहि देलहुँ। श्री रामजीक चरित्र सौ करोड़ (अथवा) अपार अछि। श्रुति आर शारदा सेहो हुनकर वर्णन नहि कय सकैत छथि। भगवान् श्री राम अनन्त छथि, हुनकर गुण अनन्त छन्हि, जन्म, कर्म आ नाम सेहो अनन्त छन्हि। जल केर बूँद आ पृथ्वीक रजकण चाहे गानल जा सकैत हो, मुदा श्री रघुनाथजीक चरित्र वर्णनो कयला सँ पूरा नहि कहल जा सकैछ। ई पवित्र कथा भगवान् केर परम पद केँ दयवला अछि। एकरा सुनला सँ अविचल भक्ति प्राप्त होइत अछि। हम ओ सब सुन्दर कथा कहलहुँ जे काकभुशुण्डिजी गरुड़जी केँ सुनेने रहथि। हम श्री रामजीक थोड़बे रास गुण सब बखानिकय कहल अछि। हे भवानी! आब कहू, आर कि सुनबाक अछि?”
२. श्री रामजीक मंगलमयी कथा सुनिकय पार्वतीजी हर्षित भेलीह आ अत्यन्त विनम्र एवं कोमल वाणी बजलीह –
“हे त्रिपुरारि! हम धन्य छी, धन्य-धन्य छी जे हम जन्म-मृत्युक भय केँ हरण करयवला श्री रामजीक गुण (चरित्र) सुनलहुँ। हे कृपाधाम। आब अपनेक कृपा सँ हम कृतकृत्य भ’ गेलहुँ। आब हमरा मोह नहि रहि गेल।
हे प्रभु! हम सच्चिदानंदघन प्रभु श्री रामजीक प्रताप केँ जानि गेलहुँ। हे नाथ! अपनेक मुखरूपी चंद्रमा श्री रघुवीर केर कथारूपी अमृतक बरखा करैत अछि। हे मतिधीर! हमर मन कर्णपुट सँ ओहि अमृत केँ पीबि तृप्त नहि भ’ रहल अछि। श्री रामजीक चरित्र सुनिते-सुनिते जे तृप्त भ’ जाइत अछि, बस कय दैत अछि, ओ त एकर विशेष रस जनबे नहि कयलक।
जे जीवन्मुक्त महामुनि छथि, ओहो भगवान् केर गुण निरन्तर सुनैत रहैत छथि। जे संसाररूपी सागर केँ पार पाबय चाहैत अछि, ओकरा लेल त श्री रामजीक कथा दृढ़ नाव जेकाँ अछि। श्री हरिक गुणसमूह तँ विषयी लोकक लेल सेहो कान केँ सुख दयवला आ मन केँ आनन्द दयवला अछि। जगत् मे कानवला एहेन के होयत जेकरा श्री रघुनाथजीक चरित्र नहि सोहेतय! जेकरा नहि सोहेतय ओ मूर्ख जीव त अपन आत्माक हत्या करयवला होयत।
हे नाथ! अहाँ श्री रामचरित्र मानस केर गान कयलहुँ, ओ सुनिकय हम अपार सुख पेलहुँ। अहाँ जे ई कहलहुँ जे ई सुन्दर कथा काकभुशुन्डिजी द्वारा गरुड़जी सँ कहल गेल छल – से कौआक शरीर पाबियोकय काकभुशुण्डि वैराग्य, ज्ञान आ विज्ञान मे दृढ़ छथि, हुनका श्री रामजीक चरण मे अत्यन्त प्रेम छन्हि आर हुनका श्री रघुनाथजीक भक्ति सेहो भेटल छन्हि, एहि बातक हमरा परम सन्देह भ’ रहल अछि।
हे त्रिपुरारि! सुनू, हजारो मनुष्य मे कियो एकटा धर्मक व्रत धारण करयवला होइत अछि आ करोड़ों धर्मात्मा मे कियो एकटा विषय सँ विमुख (विषय सभक त्यागी) आ वैराग्यक परायण होइत अछि। श्रुति कहैत अछि जे करोड़ों विरक्त मे कियो एकटा सम्यक् (यथार्थ) ज्ञान केँ प्राप्त करैत अछि आ करोड़ों ज्ञानी मे कियो एकटा जीवनमुक्त होइत अछि। जगत् मे कियो विरले एहेन जीवनमुक्त होयत। हजारों जीवनमुक्त मे पर्यन्त समस्त सुखक खान, ब्रह्म मे लीन विज्ञानवान् पुरुष आरो दुर्लभ अछि। धर्मात्मा, वैराग्यवान्, ज्ञानी, जीवनमुक्त आ ब्रह्मलीन – एहि सब मे सेहो हे देवाधिदेव महादेवजी! ओ प्राणी अत्यन्त दुर्लभ अछि जे मद आ माया सँ रहित भ’ कय श्री रामजीक भक्तिक परायण हो। हे विश्वनाथ! एहेन दुर्लभ हरि भक्ति केँ कौआ केना पाबि गेल, हमरा बुझाकय कहू।
हे नाथ! कहू जे एहेन श्री रामपरायण, ज्ञाननिरत, गुणधाम आर धीरबुद्धि भुशुण्डिजी कौआक शरीर कोन कारण सँ पओलनि? हे कृपालु! बताउ, ओ कौआ प्रभुक ई पवित्र आ सुन्दर चरित्र कतय पाबि गेल? आर हे कामदेव केर शत्रु! ईहो बताउ, अपने ई केना सुनलहुँ? हमरा बहुते बेसी जिज्ञासा जागि रहल अछि।
गरुड़जी तँ महान् ज्ञानी, सद्गुणक राशि, श्री हरि केर सेवक आर हुनकर अत्यन्त निकट रहयवला (हुनकर वाहने) छथि। ओ मुनि लोकनिक समूह केँ छोड़िकय, कौआ सँ जाकय हरिकथा कोन कारण सँ सुनलनि? कहू, काकभुशुण्डि आर गरुड़ एहि दुनू हरिभक्तक बातचीत कोन प्रकारें भेल?”
३. पार्वतीजीक सरल, सुन्दर वाणी सुनिकय शिवजी सुख पाबि आदरक संग बजलाह – हे सती! अहाँ धन्य छी, अहाँक बुद्धि अत्यन्त पवित्र अछि। श्री रघुनाथजीक चरण मे अहाँक अत्यधिक प्रेम अछि। आब ओ परम पवित्र इतिहास सुनू जे सनय सँ समस्त लोकक भ्रम केर नाश भ’ जाइत अछि तथा श्री रामजीक चरण मे विश्वास उत्पन्न होइत अछि। संगहि मनुष्य बिना परिश्रमहि केँ संसाररूपी समुद्र सँ तरि जाइत अछि। पक्षीराज गरुड़जी जाकय काकभुशुण्डिजी सँ प्रायः एनाही प्रश्न कएने रहथि। हे उमा! हम ओ सब बात आदरसहित कहब, अहाँ मोन लगाकय सुनू।
४. हम जाहि तरहें ओ भव (जन्म-मृत्यु) सँ छोड़ाबयवाली कथा सुनलहुँ, हे सुमुखी! हे सुलोचनी! ओ प्रसंग सुनू। पहिने अहाँक अवतार दक्ष केर घर भेल छल। तहिया अहाँक नाम सती छल। दक्षक यज्ञ मे अहाँक अपमान भेल। तखन अहाँ क्रोध कयकेँ प्राण त्यागि देने रही आ फेर हमर सेवक सब यज्ञ विध्वंस कय देने छल। ओ सब प्रसंग अहाँ जनिते छी। तखन हमर मोन मे बड़ा भारी सोच होबय लागल आ हे प्रिये! हम अहाँक वियोग सँ दुःखी भ’ गेलहुँ। हम विरक्त भाव सँ सुन्दर वन, पर्वत, नदी आ तालाब सभक कौतुक (दृश्य) देखैत फिरैत छलहुँ।
५. सुमेरु पर्वतक उत्तर दिशा मे आ आरो दूर, एकटा बहुते सुन्दर नील पर्वत छैक। ओकर सुन्दर स्वर्णमय शिखर छैक। ओहि मे सँ चारिटा सुन्दर शिखर हमर मोन केँ बड नीक लागल। ओहि शिखर सब मे एक-एक टा पर बरगद, पीपर, पाकरि आर आमक एक-एकटा विशाल वृक्ष छैक। पर्वतक उपर एकटा सुन्दर तालाब सुशोभित छैक जाहि मे मणिक सीढ़ी देखि हम मोहित भ’ गेलहुँ। ओकर जल शीतल, निर्मल आर मीठ छैक, ओहि मे रंग-बिरंगक बहुते रास कमल फुल फुलायल छैक, हंसगण मधुर स्वर सँ बाजि रहल छैक आ भौंरा सब सेहो सुन्दर गुंजार कय रहल छैक। ताहि सुन्दर पर्वत पर ओ पक्षी (काकभुशुण्डि) बसैत अछि। ओकर नाश कल्प केर अंतहु मे नहि होइत छैक।
६. मायारचित अनेकों गुण-दोष, मोह, काम आदि अविवेक, जे भैर जग मे पसैर रहल अछि, से ओहि पर्वत लग नहि पहुँचि पबैछ। ओहिठाम बसिकय जाहि प्रकारे ओ काग हरि केँ भजैत अछि, हे उमा! से प्रेम सहित सुनू। ओ पीपरक गाछक नीचाँ ध्यान धरैत अछि। पाकरिक नीचाँ जपयज्ञ करैत अछि। आमक छाया मे मानसिक पूजा करैत अछि। श्री हरिक भजन छोड़ि ओकरा दोसर कोनो काजे नहि छैक। बरगदक नीचाँ ओ श्री हरिक कथा सभक प्रसंग कहैत अछि। ओतय अनेकों पक्षी अबैत अछि आ कथा सुनैत अछि।
७. ओ विचित्र रामचरित्र केँ अनेकों प्रकार सँ प्रेम सहित आदरपूर्वक गान करैत अछि। सब निर्मल बुद्धिवला हंस, जे सदा ओहि तालाबहि मे बास लेने रहैछ, सेहो सब ई सुन्दर रामचरित्र कथा सब सुनैत अछि। जखन हम ओतय गेलहुँ आ ई कौतुक (दृश्य) देखलहुँ त हमर हृदय मे विशेष आनन्द उत्पन्न भेल। तखन हम हंसक शरीर धारण कय किछु समय ओतहि निवास कयलहुँ आ श्री रघुनाथजीक गुण सब आदर सहित सुनिकय फेर कैलास घुरलहुँ।
८. हे गिरिजे! हम ओ सब इतिहास कहलहुँ जे कहिया हम काकभुशुण्डि लग गेल रही। आब ओ कथा सुनू जाहि कारण सँ पक्षी कुल केर ध्वजा गरुड़जी ओहि काग लग गेल रहथि। जखन श्री रघुनाथजी एहेन रणलीला कयलनि जे लीला केँ याद कयकेँ हमरा लज्जा होइत अछि, मेघनादक हाथे अपना केँ बन्हबा लेलनि, तखन नारद मुनि गरुड़ केँ पठौलनि। सर्पक भक्षक गरुड़जी बंधन काटिकय गेलाह, त हुनकर हृदय मे बड़ा भारी विषाद उत्पन्न भेलनि।
९. प्रभुक बंधन केँ स्मरण कयकेँ सर्पक शत्रु गरुड़जी बहुते प्रकार सँ विचार करय लगलाह – जे व्यापक, विकाररहित, वाणीक पति आ माया-मोह सँ परे ब्रह्म परमेश्वर छथि, हम सुनने रही जे जगत् मे हुनकहि अवतार छथि श्री रामजी, मुदा हम ओहि अवतारक किछुओ प्रभाव नहि देखलहुँ… जिनकर नाम जपिकय मनुष्य संसारक बंधन सँ छुटि जाइत अछि, वैह राम केँ एक तुच्छ राक्षस नागपाश सँ बाँधि लेलक? गरुड़जी अनेकों प्रकार सँ अपना मोन केँ बुझेलनि लेकिन हुनका ज्ञान नहि भेलनि, हृदय मे भ्रम आरो बेसी बढ़ि गेलनि।
१०. सन्देहजनित दुःख सँ दुःखी भ’ कय, मोन मे कुतर्क बढ़ाकय ओ अहीं जेकाँ मोहवश भ’ गेलाह। व्याकुल भ’ ओ देवर्षि नारदजी लग गेलाह आ मोन मे जे सन्देह रहनि, से हुनका सँ कहलाह। से सुनिकय नारद केँ बहुते दया आबि गेलनि। ओ कहलखिन्ह – “हे गरुड़! सुनू! श्री रामजीक माया बड़ा बलवती अछि। जे ज्ञानियहु केर चित्त केँ भलीभाँति हरण कय लैत अछि आर हुनको लोकनिक मोन मे जबर्दस्ती बड़ा भारी मोह उत्पन्न कय दैत अछि, संगहि जे हमरो कतेको बेर नचौलक, हे पक्षीराज! वैह माया अहुँ पर प्रभाव कय गेल अछि। हे गरुड़! अहाँक हृदय मे बड़ा भारी मोह उत्पन्न भ’ गेल अछि। ई हमरा बुझेला सँ तुरन्ते नहि मेटायत। तेँ हे पक्षीराज, अहाँ ब्रह्माजी लग जाउ आ ओतय जाहि तरहें ओ कहैथि (जे आदेश दैथि), ओहिना करू।”
११. एतेक कहिकय परम सुजान देवर्षि नारदजी श्री रामजीक गुणगान करैत आ बेर-बेर श्री हरिक मायाक बल वर्णन करिते चलि देलाह। तखन पक्षीराज गरुड़ ब्रह्माजी लग अयलाह आ अपन सन्देह हुनका कहि सुनौलनि। ओ सुनिकय ब्रह्माजी श्री रामचंद्रजी केँ सिर नमौलनि आ हुनकर प्रताप केँ स्मरण करिते हुनकर मोन मे बहुते बेसी प्रेम उमड़ि पड़लनि। ब्रह्माजी मोन मे विचार करय लगलाह जे कवि, कोविद आ ज्ञानी – सब मायाक वश मे अछि। भगवान् केर मायाक प्रभाव असीम छन्हि, जे हमरो आइ धरि अनेकों बेर नचौलक। ई सारा चराचर जगत् त हमरे रचल अछि। जखन हमहीं मायावश नाचय लगैत छी, त फेर गरुड़ केँ मोह भेनाय कोनो आश्चर्यक बात नहि भेल। तदनन्तर ब्रह्माजी सुन्दर वाणी बजलाह – “श्री रामजीक महिमा केँ महादेवजी जनैत छथि। हे गरुड़! अहाँ शंकरजी लग जाउ। हे तात! आर कतहु केकरहुँ सँ नहि पुछब। अहाँक सन्देहक नाश ओतहि होयत।
१२. ब्रह्माजीक वचन सुनिते गरुड़ चलि पड़लाह। तखन बड़ा भारी आतुरता (उतावलापन) संग पक्षीराज गरुड़ हमरा लग अयलाह। हे उमा! ताहि समय हम कुबेरक घर जा रहल छलहुँ आ अहाँ कैलासे पर रही। गरुड़ आदरपूर्वक हमर चरण मे सिर नमौलनि आ फेर हमरा सँ अपन सन्देह बतौलनि। हे भवानी! हुनकर विनती आ कोमल वाणी सुनिकय हम प्रेमसहित हुनका सँ कहलियनि –
“हे गरुड़! अहाँ हमरा बाट मे भेटलहुँ हँ। बाट चलिते हम अहाँ केँ केना बुझाउ? सब सन्देह केर नाश तखनहि होयत जखन दीर्घकाल धरि सत्संग कयल जाय। आर ओतय (सत्संग मे) सुन्दर हरिकथा सुनल जाय जे मुनि लोकनि अनेकों प्रकार सँ गओलनि अछि आर जेकर आदि, मध्य आ अन्त मे भगवान् श्री रामचंद्रजी मात्र प्रतिपाद्य प्रभु छथि।
हे भाई! जेतय प्रतिदिन हरिकथा होइत अछि, अहाँ केँ हमर ओतहि पठबैत छी, अहाँ जाकय ओ सुनू। ओ सुनितहि अहाँक सबटा सन्देह दूर भ’ जायत आ अहाँ केँ श्री रामजीक चरण मे अत्यधिक प्रेम सेहो भ’ जायत।
सत्संगक बिना हरिक कथा सुनय लेल नहि भेटैछ, आर सत्संग बिना मोह नहि भगैछ तथा मोह गेने बिना श्री रामचंद्रजीक चरण मे दृढ़ (अचल) प्रेम नहि होइछ। बिना प्रेम केँ मात्र योग, तप, ज्ञान आर वैराग्यादिक कयला सँ श्री रघुनाथजी नहि भेटैत छथि।
अतएव अहाँ सत्संग लेल ओतहि जाउ जेतय उत्तर दिशा मे एकटा सुन्दर नील पर्वत अछि। ओतय परम सुशील काकभुशुण्डिजी रहैत छथि। ओ रामभक्ति केर मार्ग मे परम प्रवीण छथि, ज्ञानी छथि, गुण सभक धाम छथि आर बहुते दिनक (उमेरक) छथि। ओ निरन्तर श्री रामचंद्रजीक कथा कहैत रहैत छथि, जे भाँति-भाँतिक श्रेष्ठ पक्षी सब आदर सहित सुनैत छथि। ओतय जाकय श्री हरिक गुणसमूह सब सुनू। ओ सुनला सँ मोह सँ उत्पन्न अहाँ दुःख दूर भ’ जायत।” हम जखन हुनका सब बात बुझाकय कहलियनि तखन ओ हमर चरण मे सिर नमाकय हर्षित भ’कय चलि गेलाह।
१३. हे उमा! हम हुनका एहि लेल नहि बुझेलियनि जे हम श्री रघुनाथजीक कृपा सँ हुनकर भेद पाबि गेल छलहुँ। ओ निश्चित कहियो अभिमान कएने हेताह, जेकरा कृपानिधान श्री रामजी नष्ट करय चाहैत छथि। फेर किछु अहु कारण सँ हम हुनका अपना लग नहि रखलियनि जे एकटा पक्षी पक्षियहि केर बोली नीक सँ बुझैत अछि। हे भवानी! प्रभुक माया बहुते बलवती छन्हि, एहेन कोन ज्ञानी अछि जेकरा ओ नहि मोहि लियए! जे ज्ञानियहुं मे आ भक्तहुं मे शिरोमणि छथि एवं त्रिभुवनपति भगवान् केर वाहन छथि, ताहि गरुड़ केँ सेहो माया मोहि लेलक। तैयो नीच मनुष्य मूर्खतावश घमंड कयल करैत अछि। ई माया जखन शिवजी आ ब्रह्माजी केँ सेहो मोहि लैत छन्हि, तखन दोसर बेचारा कोन चीज अछि? मोन मे यैह बुझिकय मुनि लोकनि ओहि मायाक स्वामी भगवान् केर भजन करैत छथि।
१४. गरुड़जी ओतय गेलाह जेतय निर्बाध बुद्धि आ पूर्ण भक्तिवला काकभुशुण्डिजी बसैत रहथि। ओहि पर्वत केँ देखिकय हुनकर मन प्रसन्न भ’ गेलनि आ ओकर दर्शनहि टा सँ सबटा माया, मोह आ सोच हेराइत बुझेलनि। तालाब मे स्नान आ जलपान कयकेँ ओ प्रसन्नचित्त सँ वटवृक्षक नीचाँ गेलाह। ओतहि श्री रामजीक सुन्दर चरित्र सुनबाक लेल बूढ़-पुरान पक्षी सब जुटल रहथि। भुशुण्डिजी कथा आरंभ करहे चाहैत छथि ताहि समय पक्षीराज गरुड़जी ओतय जा पहुँचलाह।
१५. पक्षी सभक राजा गरुड़जी केँ अबैत देखिकय काकभुशुण्डिजी सहित सारा पक्षी समाज हर्षित भेल। ओ सब पक्षीराज गरुड़जीक बहुते आदर-सत्कार कयलनि आ स्वागत-कुशल पुछि बैसबाक लेल सुन्दर आसन देलनि। पुनः प्रेम सहित पूजा कयकेँ काकभुशुण्डिजी मधुर वचन बजलाह – “हे नाथ ! हे पक्षीराज ! अपनेक दर्शन सँ हम कृतार्थ भ’ गेलहुँ। अपने जे आज्ञा देब हम तदनुसार करब। हे प्रभो! अपने कोन कार्य लेल आयल छी से कही!”
१६. पक्षीराज गरुड़जी कोमल वचन कहलखिन – “अहाँ त सदिखने कृतार्थ रूप थिकहुँ, जिनकर बड़ाई स्वयं महादेवजी बड़ा आदरपूर्वक अपन श्रीमुख सँ कयलनि अछि। हे तात! सुनू, हम जाहि कारण सँ आयल छी, ओ सब कार्य तँ एतय अबिते देरी पूरा भ’ गेल। फेर अहाँक दर्शन सेहो भेटि गेल। अहाँ परम पवित्र आश्रमे देखिकय हमर मोह-सन्देह आ अनेकों तरहक भ्रम सब खत्म भ’ गेल। आब हे तात! अहाँ हमरा श्री रामजीक अत्यन्त पवित्र करयवाली, सदा सुख दयवाली आर दुःख समूह केँ नाश करयवाली कथा सादर सहित सुनाउ। हे प्रभो! हम बेर-बेर अपने सँ यैह विनती करैत छी।” गरुड़जीक विनम्र, सरल, सुन्दर प्रेमयुक्त, सुप्रद आर अत्यन्त पवित्र वाणी सुनिते देरी भुशण्डिजीक मोन मे परम उत्साह भेलनि आ ओ श्री रघुनाथजीक गुण सभक कथा कहय लगलाह।
१७. शिवजी कहैत छथि – “हे भवानी! पहिने त ओ बड़ बेसी प्रेम सँ रामचरितमानस सरोवरक रूपक बुझाकय कहलखिन। फेर नारदजीक अपार मोह आ फेर रावणक अवतारक कथा कहलखिन। तेकर बाद प्रभुक अवतार केर कथा वर्णन कयलखिन। तदनन्तर मन लगाकय श्री रामजीक बाल लीला सब कहलखिन।
मोन मे परम उत्साह भरिकय अनेकों प्रकारक बाल लीला सब कहिकय, फेर ऋषि विश्वामित्रजीक अयोध्या आयब आर श्री रघुवीरजीक विवाह प्रसंगक वर्णन कयलखिन्ह। फेर श्री रामजीक राज्याभिषेक केर प्रसंग, फेर राजा दशरथजीक वचन सँ राजरस (राज्याभिषेक केर आनन्द) मे भंग पड़ब, फेर नगर निवासी सभक विरह, विषाद आ श्री राम-लक्ष्मण केर संवाद (बातचीत) कहलखिन्ह।
श्री राम केर वनगमन, केवट केर प्रेम, गंगाजी सँ पार उतरिकय प्रयाग मे निवास, वाल्मीकिजी आ प्रभु श्री रामजीक मिलन आर जेना भगवान् चित्रकूट मे बसि गेलाह, ओ सबटा कहलखिन्ह। पुनः मंत्री सुमंत्रजीक नगर मे घुरब, राजा दशरथजीक मरण, भरतजीक (मामागाम सँ) अयोध्या मे आयब आर हुनकर प्रेम केर वर्णन कयलखिन्ह। राजाक अन्त्येष्टि क्रिया कयकेँ नगरनिवासी सब केँ संग लयकय भरतजीक ओहिठाम जायब जाहिठाम सुखक राशि प्रभु श्री रामचंद्रजी रहथि। फेर श्री रघुनाथजी हुनका बहुते प्रकार सँ बुझेलनि, जाहिपर भरतजी श्री रामजीक खड़ाऊँ लयकय अयोध्यापुरी लौटि अयलाह, से सब कथा कहलखिन।
भरतजीक नन्दीग्राम मे रहबाक रीति, इंद्रपुत्र जयंत केर नीच करनी आर फेर प्रभु श्री रामचंद्रजी आर अत्रिजीक मिलाप वर्णन कयलखिन। जाहि प्रकारे विराधक वध भेलैक आर शरभंगजी शरीर त्याग कयलनि, से प्रसंग कहिकय, पुनः सुतीक्ष्णजीक प्रेम वर्णन कयकेँ प्रभु आर अगस्त्यजीक सत्संग वृत्तान्त कहलखिन्ह। दंडकवन केर पवित्र करबाक कथा कहिकय फेर भुशुण्डिजी गृध्रराज जटायुक संग मित्रताक वर्णन कयलनि।
प्रभुक पंचवटी मे निवास आ सब मुनि लोकनिक भय केँ नाश करबाक, आर फेर जेना लक्ष्मणजी केँ अनुपम उपदेश देलखिन आर शूर्पणखा केँ कुरूप बनाओल गेल, से सब वर्णन कयलनि। पुनः खर-दूषण वध आ केना-केना रावण तक सब समाचार पहुँचल, से सब बखानिकय कहलखिन। जाहि प्रकारें रावण आ मारीच बीच बातचीत भेल, से सब ओ बतेलखिन।
तेकर बाद माया सीता केर हरण आ श्री रघुवीर केर विरह केर किछु वर्णन कयलखिन्ह। प्रभु द्वारा गिद्ध जटायुक जाहि तरहें क्रिया कयल गेल, कबन्ध केर वध कयकेँ शबरी केँ परमगति देल गेल आ फेर जाहि प्रकारे विरह वर्णन करैत श्री रघुवीरजी पंपासर केर तीर पर पहुँचलाह, ओ सब कहलखिन।
प्रभु आ नारदजीक संवाद आ मारुतिक भेटबाक प्रसंग कहिकय फेर सुग्रीव सँ मित्रता आर बालि केर प्राणनाशक वर्णन कयलनि। सुग्रीव केँ राजतिलक कयकेँ प्रभु प्रवर्षण पर्वत पर निवास कयलनि, से आ वर्षा आ शरद् केर वर्णन, श्री रामजीक सुग्रीव पर रोष, सुग्रीवक डरेनाय आदिक प्रसंग सुनेलखिन।
कोन तरहें वानरराज सुग्रीव बानर सबकेँ पठौलनि आ ओ सब सीताजीक खोज मे जाहि तरहें सब दिशा मे गेलाह, जाहि तरहें ओ सब बिल मे प्रवेश कयलनि आ फेर बानर सब केँ सम्पाती सँ भेंट भेलनि, ओहो कथा कहलखिन्ह। सम्पाती सँ सब कथा सुनि पवनपुत्र हनुमान्जी जाहि ढंग सँ अपार समुद्र केँ नाँघि गेलाह, केना लंका मे प्रवेश कयलाह आ फेर जेना सीताजी केँ धीरज देलनि, से सब कहलखिन।
अशोक वन केँ उजाड़िकय, रावण केँ बुझाकय, लंकापुरी केँ जराकय फेर जेना ओ समुद्र नाँघलनि आ जाहि तरहें सब बानर संग मिलिकय ओतय पहुँचलाह जेतय श्री रघुनाथजी रहथि आ आबि श्री जानकीजीक कुशल सुनौलनि, फेर जाहि प्रकारे सेना सहित श्री रघुवीर जाकय समुद्रक तट पर पहुँचलाह आ जाहि प्रकारे विभीषणजी आबिकय हुनका सँ भेटलाह, से सब आ समुद्र पर बाँध बनेबाक कथा ओ सुनौलनि। पुल बाँधिकय जाहि प्रकारे बानर सभक सेना समुद्रक पार उतरल आ जाहि प्रकारे वीर श्रेष्ठ बालिपुत्र अंगद दूत बनिकय गेला से सब बतेलनि।
फेर राक्षस आर बानर सभक युद्ध केर अनेकों प्रकार सँ वर्णन कयलनि। फेर कुंभकर्ण आर मेघनाद केर बल, पुरुषार्थ आर संहार केर कथा कहलखिन। नाना प्रकार केर राक्षस समूहक मरण तथा श्री रघुनाथजी आर रावणक अनेक प्रकारक युद्धक वर्णन कयलनि।
रावण वध, मंदोदरीक शोक, विभीषणक राज्याभिषेक आर देवता लोकनि केँ शोकरहित होयबाक प्रसंग कहिकय सीताजी और श्री रघुनाथजीक मिलापक वर्णन कयलखिन्ह। जाहि प्रकारे देवता सब हाथ जोड़िकय स्तुति कयलनि आ फेर जेना बानर सभक संग पुष्पक विमान पर चढ़िकय कृपाधाम प्रभु अवधपुरी दिश चललाह, से कहलनि। जाहि प्रकारे श्री रामचंद्रजी अपन नगर अयोध्या मे अयलाह, से सब उज्ज्वल चरित्र काकभुशुण्डिजी विस्तारपूर्वक वर्णन कयलनि। फेर ओ श्री रामजीक राज्याभिषेक कहलनि।”
१८. शिवजी कहैत छथि – अयोध्यापुरी केर आरो अनेकों तरहक राजनीति केर वर्णन करैत भुशुण्डिजी ओ सब कथा कहलनि जे हे भवानी! हम अहाँ सँ कहलहुँ। सब रामकथा सुनिकय गरुड़जी मन मे बहुत उत्साहित (आनंदित) भ’ ई बाजय लगलाह –
“श्री रघुनाथजीक सब चरित्र हम सुनलहुँ, जाहि सँ हमर सबटा सन्देह खत्म होइत रहल, हे काकशिरोमणि! अपनहि केर अनुग्रह सँ श्री रामजीक चरण मे हमर प्रेम भ’ गेल।
युद्ध मे प्रभु केँ नागपाश सँ बन्हायल देखिकय हमरा बहुते मोह भ’ गेल छल जे श्री रामजी त सच्चिदानंदघन छथि, ओ कोन कारणे व्याकुल छथि। बिल्कुले लौकिक मनुष्य जेहेन चरित्र देखिकय हमर हृदय मे भारी सन्देह भ’ गेल।
हम आब ओहि भ्रम (सन्देह) केँ अपना लेल हित कयकेँ बुझैत छी। कृपानिधान हमरा उपर पैघ अनुग्रह कयलनि। जे रौदा सँ अत्यधिक व्याकुल होइत अछि, गाछक छाहरिक सुख वैह जनैत अछि।
हे तात! यदि हमरा अत्यन्त मोह नहि होइतय त हम अहाँ सँ कोना भेंट कय पबितहुँ? आर केना अत्यन्त विचित्र ई सुन्दर हरिकथा सुनि पबितहुँ, जे अहाँ बहुते प्रकार सँ गेलहुँ अछि?
वेद, शास्त्र आ पुराण सभक यैह मत छैक, सिद्ध आर मुनि सेहो यैह कहैत अछि, एहि मे सन्देह नहि जे शुद्ध (सच्चा) संत ओकरे भेटैत छैक, जेकरा श्री रामजी कृपा कयकेँ देखैत छथि। श्री रामजीक कृपा सँ हमरा अहाँक दर्शन भेल आ अहाँक कृपा सँ हमर सन्देह चलि गेल।”
१९. पक्षीराज गरुड़जीक विनय आर प्रेमयुक्त वाणी सुनिकय काकभुशुण्डिजीक शरीर पुलकित भ’ गेलनि। हुनकर नेत्र मे जल भरि गेलनि आ ओ मनहि-मन बहुते हर्षित भ’ गेलाह। हे उमा! सुन्दर बुद्धिवला सुशील, पवित्र कथाक प्रेमी आर हरिक सेवक श्रोता केँ पाबि सज्जन अत्यन्त गोपनीय (सभक सामने प्रकट नहि करय योग्य) रहस्य केँ सेहो प्रकट कय दैत अछि। काकभुशुण्डिजी फेर आगू कहय लगलखिन, पक्षीराज पर हुनकर प्रेम बहुते रहनि,
“हे नाथ! अहाँ सब प्रकार सँ हमर पूज्य छी आ श्री रघुनाथजीक कृपापात्र छी। अहाँ केँ नहिये सन्देह अछि आ न मोहे अथवा माये अछि। हे नाथ! अहाँ त हमरा पर दया कयलहुँ अछि।
हे पक्षीराज! मोहहि केर बहन्ने श्री रघुनाथजी अहाँ केँ एतय पठा हमरा बड़ाई देलनि अछि। हे पक्षी सभक स्वामी! अपने अपन मोह कहलहुँ, से हे गोसाईं! ई कोनो आश्चर्यक बात नहि थिक। नारदजी, शिवजी, ब्रह्माजी आ सनकादि जे आत्मतत्त्व केर मर्मज्ञ आर ओकर उपदेश करयवला श्रेष्ठ मुनि छथि। हुनकहु सब मे किनका-किनका मोह विवेकशून्य नहि कयलक!
जगत् मे एहेन के अछि जेकरा काम नहि नचेने हो? तृष्णा केकरा मतवाला नहि बनेलक? क्रोध केकर हृदय केँ नहि जरौलक? एहि संसार मे एहेन कोन ज्ञानी, तपस्वी, शूरवीर, कवि, विद्वान आर गुण सभक धाम छथि जिनका लोभ सँ विडम्बना (नष्टनाबुत) नहि कएने हो? लक्ष्मीक मद केकरा नहि टेढ़ आर प्रभुता केकरा नहि बहीर बनेने हो? एहेन के अछि जेकरा मृगनयनी (युवती स्त्री) केर नेत्र बाण नहि लागल हो। रज, तम आदि गुण सभक कयला सँ सन्निपात केकरा नहि भेल होयत?
एहेन कियो नहि अछि जेकरा मान आ मद अछूता छोड़ने हो। यौवनक ज्वर केकरा अपना आप सँ बाहर नहि कयलक? ममता केकर यश केँ नाश नहि कयलक? मत्सर (डाह) केकरा कलंक नहि लगौलक? शोकरूपी पवन केकरा नहि हिला देलक? चिन्तारूपी साँपिन केकरा नहि खा लेलक? जगत मे एहेन के अछि, जेकरा माया नहि व्यापने होइक?
मनोरथ क्रीड़ा थिक, शरीर लकड़ी थिक। एहेन धैर्यवान् के अछि, जेकर शरीर मे ई कीड़ा नहि लागल होइ? पुत्र केर, धन केर आर लोक प्रतिष्ठा केर, ई तीन प्रबल इच्छा केकर बुद्धि केँ मलिन नहि कय देलक (बिगाड़ि नहि देलक)?
मायाक प्रचंड सेना संसार भरि मे पसरल छैक। कामादि (काम, क्रोध आ लोभ) ओकर सेनापति थिकैक आर दम्भ, कपट ओ पाखंड योद्धा थिकैक। ओ माया श्री रघुवीर केर दासी थिक। यद्यपि बुझि गेला पर ओ मिथ्यहि थिक, मुदा ओ श्री रामजीक कृपा बिना नहि छुटैछ।
हे नाथ! ई हम प्रतिज्ञा कयकेँ कहैत छी। जे माया सारा जगत् केँ नचबैत अछि आर जेकर चरित्र (करनी) कियो नहि देखि पबैछ, हे खगराज गरुड़जी! वैह माया प्रभु श्री रामचंद्रजीक भृकुटीक इशारा पर अपन समाज (परिवार) सहित नटी जेकाँ नचैत अछि।
श्री रामजी वैह सच्चिदानंदघन थिकाह जे अजन्मा, विज्ञानस्वरूप, रूप आर बल केर धाम, सर्वव्यापक एवं व्याप्य (सर्वरूप), अखंड, अनंत, संपूर्ण, अमोघशक्ति (जिनकर शक्ति कहियो व्यर्थ नहि होइछ) आर छहो ऐश्वर्य सँ युक्त भगवान् थिकाह। ओ निर्गुण (मायाक गुण सब सँ रहित), महान्, वाणी आर इंद्रिय सँ परे, सब किछु देखयवला, निर्दोष, अजेय, ममतारहित, निराकार (मायिक आकार सँ रहित), मोहरहित, नित्य, मायारहित, सुख केर राशि, प्रकृति सँ परे, प्रभु (सर्वसमर्थ), सदा सभक हृदय मे बसयवला, इच्छारहित विकाररहित, अविनाशी ब्रह्म थिकाह। एतय (श्री राम मे) मोह केर कारणे नहि अछि।
कि अन्हारक समूह कहियो सूर्यक सामने जा सकैत अछि? भगवान् प्रभु श्री रामचंद्रजी भक्त सभक लेल राजाक शरीर धारण कयलनि आ साधारण मनुष्य जेकाँ अनेकों परम पावन चरित्र कयलनि। जेना कोनो नट (खेल करयवला) अनेक वेष धारण कयकेँ नृत्य करैत अछि आर ओहने-ओहने (जेहेन वेष रहैत छैक, ताहिक अनुकूल) भाव देखबैत अछि, लेकिन स्वयं ओ ओहि मे सँ कोनो पात्र नहि बनि जाइछ, हे गरुड़जी! तहिना श्री रघुनाथजीक ई लीला अछि जे राक्षस सब केँ विशेष मोहित करयवला आ भक्त सब केँ सुख दयवला अछि।
हे स्वामी! जे मनुष्य मलिन बुद्धि, विषय केर वश आर कामी अछि, वैह प्रभु पर एहि तरहक मोह केँ आरोप करैत अछि। जखन केकरो नेत्र दोष होइत छैक, त ओ चन्द्रमा केँ पीयर रंगक कहैत अछि। हे पक्षीराज! जखन केकरो दिशाभ्रम होइत छैक, त ओ कहैत अछि जे सूर्य पश्चिम मे उदय भेल छथि। नाव पर चढ़ल मनुष्य जगत केँ घुमैत-चलैत देखैत अछि आर मोहवश अपना केँ अचल बुझैत अछि। बालक सब गोल-गोल घुमैत (चक्राकार दौड़ैत) अछि, घर आदि नहि घुमैत छैक। मुदा ओ सब आपस मे एक-दोसर केँ झूठे कहैत अछि जे सब किछु घुमि रहल छैक।
हे गरुड़जी! श्री हरिक विषय मे मोह केर कल्पनो एहने अछि। भगवान् मे त सपनहुँ मे अज्ञानक प्रसंग (मौका) नहि अछि, मुदा जे मायाक वश, मन्दबुद्धि आ भाग्यहीन अछि आ जेकर हृदय मे अनेकों प्रकारक परदा पड़ल छैक – से मूर्ख हठ केर वश भ’ कय सन्देह कयल करैत अछि आर अपन अज्ञान श्री रामजी पर आरोपित करैत अछि।
जे काम, क्रोध, मद आर लोभ मे रत अछि आर दुःख रूप घर मे आसक्त अछि, ओ श्री रघुनाथजी केँ केना जानि सकैत अछि? ओ मूर्ख तँ अंधकाररूपी इनारहि मे पड़ल रहैत अछि। निर्गुण रूप अत्यन्त सुलभ (सहजहि बुझय मे आबयवला) अछि, मुदा गुणातीत दिव्य सगुण रूप केँ कियो नहि जनैत अछि, ताहि हेतु ओहि सगुण भगवानक अनेक प्रकारक सुगम आ अगम चरित्र सब सुनिकय मुनि लोकनिक मोन केँ भ्रम भ’ जाइत छन्हि।”
हरिः हरः!!