स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
अयोध्याजीक रमणीयता, सनकादिक आगमन आर संवाद
१. जे (बौद्धिक) ज्ञान, वाणी आ इंद्रिय सँ परे आर अजन्मा छथि; संगहि माया, मन आ गुण सँ सेहो परे छथि, से सच्चिदानन्दघन भगवान् श्रेष्ठ नरलीला करैत छथि। प्रातःकाल सरयूजी मे स्नान कयकेँ ब्राह्मण आ सज्जन सभक संग सभा मे बैसैत छथि। वशिष्ठजी वेद आ पुराणक कथा सब कहैत छथिन आ श्री रामजी श्रोता छथि, जखन कि ओ सब किछु जनैत छथि।
२. भाइ लोकनि केँ संग लयकय भोजन करैत छथि। हुनका सब केँ एहि तरहें देखिकय माता लोकनि आनन्द मे भरि जाइत छथि। भरतजी आ शत्रुघ्नजी दुनू भाइ हनुमान्जी सहित उपवन मे जाकय, ओतय बैसि श्री रामजीक गुण सभक कथा पुछैत छथिन आ हनुमान्जी सेहो अपन सुन्दर बुद्धि सँ श्री रामजीक गुण सब याद कय-कय केँ खुब नीक सँ वर्णन करैत छथिन। श्री रामचंद्रजीक निर्मल गुण सुनिकय दुनू भाइ खुब सुखी होइत छथि आ हनुमान्जी सँ विनयपूर्वक बेर-बेर कहबाबैत छथि।
३. सभक ओतय घर-घर मे पुराण सभक आ अनेकों प्रकारक पवित्र रामचरित्रक कथा सब होइत रहैत अछि। पुरुष आ स्त्री सब कियो श्री रामचंद्रजीक गुणगान करैत छथि आर एहि आनन्द मे दिन-रातिक बितनाइयो किनको नहि बुझय मे अबैत छन्हि।
४. जेतय भगवान् श्री रामचंद्रजी स्वयं राजा भ’ कय विराजमान छथि, ताहि अवधपुरीक निवासी सभक सुख-संपत्तिक समुदाय केर वर्णन हजारों शेषोजी नहि कय सकैत छथि। नारद आदि, सनक आदि मुनीश्वर लोकनि कोसलराज श्री रामजीक दर्शन लेल प्रतिदिन अयोध्या अबैत छथि आर ओहि दिव्य नगर केँ देखि वैराग्य तक बिसरा गेल करैत छन्हि।
५. एतय दिव्य स्वर्ण आ रत्न सँ बनल महल (अटारी) सब अछि, जाहि मे अनेको रंगक सुन्दर ढ़लाईवला भूतल (फर्श) छैक। नगरक चारू दिश बहुते सुन्दर परकोटा (ऊँच देवालवला किला सब) बनायल गेल छैक। ताहि मे सुन्दर रंग-बिरंगक सैन्य चौकी (कँगूरा) सब बनायल गेल छैक। मानू नवग्रह बड़ा भारी सेना बनाकय अमरावती केँ आबि कय घेर लेने होइथ! पृथ्वी (सड़क सब) पर अनेकों रंगक (दिव्य) काँच (रत्न) केर सतह (गच) ढालल गेल छैक, जे देखिकय श्रेष्ठ मुनि लोकनिक मोन सेहो नाचि उठैत छन्हि। उज्ज्वल महल सब आकाश केँ चूमि (छू) रहल अछि। महल सब पर कलश (अपन दिव्य प्रकाश सँ) मानू सूर्य, चंद्रमा केर प्रकाशक पर्यन्त तिरस्कार कय रहल हो! महल मे बहुते रास मणि सँ रचल गेल खिड़की (झरोखा) सब सुशोभित अछि आ घर-घर मे मणिक दीपक शोभा पाबि रहल अछि।
६. छंद :
मनि दीप राजहिं भवन भ्राजहिं देहरीं बिद्रुम रची।
मनि खंभ भीति बिरंचि बिरची कनक मनि मरकत खची॥
सुंदर मनोहर मंदिरायत अजिर रुचिर फटिक रचे।
प्रति द्वार द्वार कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे॥
घर मे मणिक दीपक शोभा दय रहल अछि। मूँगा सँ बनल घरक देहरी (प्रवेशद्वार) सब चमकि रहल अछि। मणि (रत्न) केर बनल पाया (खम्भा) सब अछि। मरकतमणि (पन्ना) सँ जड़ल सोनाक देवाल एहेन सुन्दर अछि मानू ब्रह्मा विशेष रूप सँ बनेने होइथ! महल सब सुन्दर, मनोहर आ विशाल अछि। ओहि मे सुन्दर स्फटिकक आँगन सब बनल छैक। प्रत्येक दरबाजा पर बहुते रास तरासल हीरा जड़ल सोनाक केबाड़ सब लागल छैक। घरे-घर सुन्दर चित्रशाला सब बनल छैक, जाहि मे श्री रामचंद्रजीक चरित्र बड़ा सुन्दरता सँ सजाकय अंकित कयल गेल अछि, से मुनि लोकनि देखैत छथि त हुनको सभक चित्त केँ चोरा लेल करैत छन्हि।
७. सब कियो अलग-अलग ढंग सँ पुष्पक वाटिका यत्नपूर्वक लगौने अछि। ताहि मे बहुते जातिक सुन्दर आ ललित लता वसंत जेकाँ फुला रहल अछि। भौंरा मनोहर स्वर सँ गुंजार करैत अछि। सदिखन तीनू प्रकारक सुन्दर वायु बहैत रहैत अछि। बालक सब सेहो बहुते रास चिड़ियाँ पोसि रखने अछि, जे सब मधुर बोली बजैत अछि आ उड़य मे सुन्दर लगैत अछि। मोर, हंस, सारस आर परबा आदि चिड़ै सब घरक उपर उड़ैत-बैसैत खुबे शोभा पबैत अछि। ओ सब चिड़ै मणिक देवाल मे आ छत सब मे जेतय-तेतय अपनहि परछाई देखि (ओतय दोसर चिड़ै होयबाक बात बुझैत) तरह-तरह केर मधुर बोली सब बजैत आ नृत्य करैत अछि। बालक सब तोता-मैना केँ पढ़बैत रहैछ – कहू ‘राम’, कहू ‘रघुपति’, कहू ‘जनपालक’।
८. राजद्वार सब प्रकार सँ सुन्दर छैक। गली, चौराहा आ बाजार सब सुन्दर छैक।
छंद :
बाजार रुचिर न बनइ बरनत बस्तु बिनु गथ पाइए।
जहँ भूप रमानिवास तहँ की संपदा किमि गाइए॥
बैठे बजाज सराफ बनिक अनेक मनहुँ कुबेर ते।
सब सुखी सब सच्चरि सुंदर नारि नर सिसु जरठ जे॥
सुन्दर बाजार छैक, जे वर्णन करैत नहि बनैछ। ओतय चीज-वस्तु बिना मोल-भाव केँ भेटैत अछि। जेतय स्वयं लक्ष्मीपति राजा होइथ, ओतुक्का संपत्तिक वर्णन केना कयल जाय! बजाज (कपड़ाक व्यापार करयवला), सराफ (रुपिया-पैसाक लेन-देन करयवला) आदि वणिक् (व्यापारी) बैसल एना बुझि पड़ैछ मानू अनेकों कुबेर बैसल हो। स्त्री, पुरुष बच्चा आर बूढ़ जेहो अछि, सब सुखी, सदाचारी आ सुन्दर अछि।
९. नगरक उत्तर दिशा मे सरयूजी बहि रहल छथि, जिनकर जल निर्मल आ गहींर छन्हि। मनोहर घाट सब बनल अछि, किनारा पर कनिकबो थाल-कीच नहि अछि। अलग सँ किछु दूर पर ओ सुन्दर घाट अछि, जेतय घोड़ा-हाथीक ठट्टक ठट्ट आबिकय जल पियल करैछ। पानि भरबाक लेल बहुते रास जनानी घाट सेहो अछि, जे बहुते मनोहर अछि। ओतय पुरुष स्नान नहि करैत छथि। राजघाट सब प्रकार सँ सुन्दर आर श्रेष्ठ अछि, जेतय चारू वर्णक पुरुष स्नान करैत छथि। सरयूजीक किनारे-किनारे देवता लोकनिक मंदिर सब अछि, तेकर चारूकात सुन्दर बगीचा लागल अछि। नदीक किनारे कतहु-कतहु विरक्त आर ज्ञानपरायण मुनि व संन्यासी निवास करैत छथि। सरयूजीक किनारे-किनारे सुन्दर तुलसीजी झुंडक झुंड बहुते रास गाछ सब मुनि सब लगा रखने छथि।
१०. नगरक शोभा तँ किछु कहल नहि जाइछ। नगरक बाहर सेहो परम सुन्दरता अछि। श्री अयोध्यापुरीक दर्शन करिते सम्पूर्ण पाप भागि जाइछ। ओतय वन, उपवन, कुण्ड आ पोखरि सब सुशोभित अछि।
छंद :
बापीं तड़ाग अनूप कूप मनोहरायत सोहहीं।
सोपान सुंदर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहीं॥
बहु रंग कंज अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारहीं।
आराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं॥
अनुपम कुण्ड, पोखरि आ मनोहर तथा विशाल कूप (इनार) सब शोभा दय रहल अछि, जेकर सुन्दर (रत्न केर) सीढ़ी आ निर्मल जल देखिकय देवता आ मुनि तक मोहित भ’ जाइत छथि। पोखरि सब मे अनेक रंगक कमल खिलल अछि, अनेकों चिड़ै सब कूजि रहल अछि आ भौंरा सब गुंजार कय रहल अछि। परम रमणीय बगीचा मे कोयल आदि चिड़ियाँक सुन्दर बोल सँ मानू बाट चलनिहार बटोही सब केँ बजा रहल हो!
११. स्वयं लक्ष्मीपति भगवान् जेतय राजा होइथ, ताहि नगर केर कतहु वर्णन कयल जा सकैत अछि? अणिमा आदि आठो सिद्धि आ समस्त सुख-संपत्ति अयोध्या मे छजि रहल अछि। लोक सब जहाँ-तहाँ श्री रघुनाथजीक गुण गबैत छथि आ बैसिकय एक-दोसर केँ यैह सीख दैत छथि जे –
“शरणागत केर पालन करयवला श्री रामजी केँ भजू,
शोभा, शील, रूप आ गुण केर धाम श्री रघुनाथजी केँ भजू
कमलनयन आ साँवला शरीरवला केँ भजू
पलक जाहि प्रकारे नेत्रक रक्षा करैत अछि ताहि प्रकारे अपन सेवक लोकनिक रक्षा करयवला केँ भजू
सुन्दर बाण, धनुष आ तरकस धारण करयवला केँ भजू
सन्तरूपी कमलवन केँ फुलबयवला (खिलबयवला) सूर्य रूप रणधीर श्री रामजी केँ भजू
कालरूपी भयानक सर्प केर भक्षण करयवला श्री राम रूप गरुड़जी केँ भजू
निष्कामभाव सँ प्रणाम करिते ममताक नाश कय दयवला श्री रामजी केँ भजू
लोभ-मोह रूपी हरिन सभक समूह केँ नाश करयवला श्री राम किरात केँ भजू
कामदेवरूपी हाथीक लेल सिंहरूप तथा सेवक सब केँ सुख दयवला श्री राम केँ भजू
संशय आ शोकरूपी घनघोर अन्हार केँ नाश करयवला श्री रामरूप सूर्य केँ भजू
राक्षसरूपी घनगर वन केँ जरबयवला श्री रामरूप अग्नि केँ भजू
जन्म-मृत्यु केर भय केँ नाश करयवला श्री जानकी समेत श्री रघुवीर केँ कियैक नहि भजैत छी!
बहुते रास वासनारूपी मच्छर सब केँ नाश करयवला श्री रामरूप हिमराशि (बर्फक ढेरी) केँ भजू
नित्य एकरस, अजन्मा आ अविनाशी श्री रघुनाथजी केँ भजू
मुनि लोकनि केँ आनन्द दयवला, पृथ्वीक भार उतारयवला आर तुलसीदास केर उदार (दयालु) स्वामी श्री रामजी केँ भजू”
एहि तरहें नगरक स्त्री-पुरुष श्री रामजीक गुण-गान करैत छथि आ कृपानिधान श्री रामजी सदैव सब पर खुब प्रसन्न रहैत छथि।
१२. काकभुशुण्डिजी कहैत छथि – “हे पक्षीराज गरुड़जी! जहिया सँ रामप्रताप रूपी अत्यन्त प्रचण्ड सूर्य उदित भेलाह, तहिये सँ तीनू लोक मे पूर्ण प्रकाश भरि गेल अछि। एहि सँ बहुतो केँ सुख आ बहुतोक मन मे शोक भेलनि। जिनका-जिनका शोक भेलनि, तेकरा सभक वर्णन कय कहैत छी –
सर्वत्र प्रकाश पसैर गेला सँ पहिने तँ अविद्यारूपी रातिक नाश भ’ गेलैक।
पापरूपी उल्लू जहाँ-तहाँ नुका गेल आ काम-क्रोधरूपी कुमुद मुँदा गेल।
भाँति-भाँतिक (बंधनकारक) कर्म, गुण, काल आ स्वभाव – ई चकोर थिक, जे रामप्रतापरूपी सूर्य केर प्रकाश मे कहियो सुख नहि पबैछ।
मत्सर (डाह), मान, मोह आ मदरूपी जे चोर सब अछि, ओकर हुनर (कला) सेहो केम्हरहु नहि चलि पबैत छैक।
धर्मरूपी तालाब मे ज्ञान, विज्ञान – एहेन अनेकों प्रकारक कमल फुला गेल।
सुख, संतोष, वैराग्य आ विवेक – ई अनेकों चकवा शोकरहित भ’ गेल।
ई श्री रामप्रताप रूपी सूर्य जेकर हृदय मे जखन प्रकाश करैत अछि, तखन जेकर वर्णन बाद मे कयल गेल अछि, से धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सुख, संतोष, वैराग्य आ विवेक बढ़ि जाइत अछि और जेकर वर्णन पहिने कयल गेल अछि, से अविद्या, पाप, काम, क्रोध, कर्म, काल, गुण, स्वभाव आदि नाश केँ प्राप्त होइछ।”
१३. एक बेर भाइ सभक संग श्री रामचंद्रजी परम प्रिय हनुमान्जी केँ संग लयकय सुन्दर उपवन देखय लेल गेलाह। ओतुका सब गाछ-वृक्ष सब फुलायल छल, नव-नव पत्ता सँ युक्त छल। सुअवसर जानिकय सनकादि मुनि सेहो अयलाह, जे तेज केर पुंज, सुन्दर गुण आर शील सँ युक्त तथा सदैव ब्रह्मानंद मे लवलीन रहैत छथि। देखय मे तँ ओ सब बालक जेकाँ लगैत छथि, मुदा छथि बहुते वयसक (उमेरक)। मानू चारू वेद स्वयं बालक रूप धारण कयकेँ आयल होइथ। ओ मुनि सब समदर्शी आ भेदरहित छथि। दिशा सब मात्र हुनका लोकनिक वस्त्र थिकन्हि। हुनकर एक्के गो व्यसन छन्हि जे जेतय श्री रघुनाथजीक चरित्र कथा होइत अछि ओतय जाकय से जरूरे सुनैत छथि।
१४. शिवजी कहैत छथि – “हे भवानी! सनकादि मुनि ओतय गेल रहथि (ओतहि सँ घुरि रहल छलथि) जेतय ज्ञानी मुनिश्रेष्ठ श्री अगस्त्यजी रहैत छलथि। श्रेष्ठ मुनि श्री रामजीक बहुते रास कथा सभक वर्णन कएने रहथिन, जे ज्ञान उत्पन्न करय मे ओहिना समर्थ अछि, जेना अरणि लकड़ी सँ अग्नि उत्पन्न होइत अछि।”
१५. सनकादि मुनि सबकेँ अबैत देखिकय श्री रामचंद्रजी हर्षित होइत दंडवत् कयलनि आ स्वागत (कुशल-क्षेम) पुछिकय प्रभु हुनका लोकनि सँ बैसबाक (आसन ग्रहण करबाक) वास्ते अपन पीताम्बर बिछा देलनि। पुनः हनुमान्जी सहित तीनू भाइ लोकनि दंडवत् कयलनि, सब केँ बहुते सुख भेटलनि।
१६. मुनि श्री रघुनाथजीक अतुलनीय छबि देखिकय ओहि मे मग्न भ’ गेल छथि, ओ मोन केँ रोकि नहि सकलथि। ओ जन्म-मृत्यु केर चक्र सँ छोड़ेनिहार, श्याम शरीर, कमलनयन, सुन्दरताक धाम श्री रामजी केँ टकटकी लगौने देखिते रहि गेलाह, झपकी तक मारैत छथि आ प्रभु हाथ जोड़ने मस्तक नमा रहल छथि। हुनक प्रेम विह्लल दशा देखिकय हुनकहि जेकाँ श्री रघुनाथजीक नेत्र सँ सेहो प्रेमाश्रुक जल बहय लागलन्हि आ शरीर पुलकित भ’ गेलनि।
१७. तदनन्तर प्रभु हाथ पकड़िकय श्रेष्ठ मुनि लोकनि केँ बैसौलनि आ परम मनोहर वचन कहलनि – “हे मुनीश्वर लोकनि! सुनू, आइ हम धन्य छी। अपनेक दर्शनहि सँ सबटा पाप नाश भ’ जाइत अछि। बड़ा भाग्ये सँ सत्संग केर प्राप्ति होइछ, जाहि सँ बिना परिश्रम जन्म-मृत्युक चक्र नष्ट भ’ जाइत अछि। संत केर संग मोक्षक (भव बंधन सँ छोड़बयवला) आ कामीक संग जन्म-मृत्युक बंधन मे पड़बाक मार्ग थिक। संत, कवि आ पंडित तथा वेद, पुराण (आदि) सब सद्ग्रंथ एना कहैत अछि।”
१८. प्रभुक वचन सुनिकय चारू मुनि हर्षित भ’ कय, पुलकित शरीर सँ स्तुति करय लगलाह –
जय भगवंत अनंत अनामय। अनघ अनेक एक करुनामय॥१॥
हे भगवन्! अपनेक जय हो। अपने अन्तरहित, विकाररहित, पापरहित, अनेक (सब रूप मे प्रकट), एक (अद्वितीय) आ करुणामय छी।
जय निर्गुन जय जय गुन सागर। सुख मंदिर सुंदर अति नागर॥
जय इंदिरा रमन जय भूधर। अनुपम अज अनादि सोभाकर॥२॥
हे निर्गुण! अपनेक जय हो। हे गुण के समुद्र! अपनेक जय हो, जय हो। अपने सुख केर धाम, अत्यन्त सुन्दर आर अति चतुर छी। हे लक्ष्मीपति! अपनेक जय हो। हे पृथ्वी केँ धारण करयवला! अपनेक जय हो। अपने उपमारहित, अजन्मा, अनादि आर शोभाक खान छी॥२॥
ग्यान निधान अमान मानप्रद। पावन सुजस पुरान बेद बद॥
तग्य कृतग्य अग्यता भंजन। नाम अनेक अनाम निरंजन॥३॥
अपने ज्ञान केर भंडार, स्वयं मानरहित आर दोसर केँ मान दयवला छी। वेद आ पुराण अपनेक पावन सुन्दर यश गबैत अछि। अपने तत्त्व जानयवला, कयल गेल सेवा केँ मानयवला आ अज्ञान केँ नाश करयवला छी। हे निरंजन (मायारहित)! अपनेक अनेकों (अनंत) नाम अछि आर कोनो नाम नहि अछि। (अर्थात् अपने सब नाम सँ परे छी।)॥३॥
सर्ब सर्बगत सर्ब उरालय। बससि सदा हम कहुँ परिपालय॥
द्वंद बिपति भव फंद बिभंजय। हृदि बसि राम काम मद गंजय॥४॥
अपने सर्वरूप छी, सब मे व्याप्त छी आर सभक हृदयरूपी घर मे सदा निवास करैत छी, अतः अपने हमर परिपालन करू। (राग-द्वेष, अनुकूलता-प्रतिकूलता, जन्म-मृत्यु आदि) द्वंद्व, विपत्ति आर जन्म-मत्यु केर जाल केँ काटि देल जाउ। हे रामजी! अपने हमरा सभक हृदय मे बसिकय काम आ मद केँ नाश कय दिअ’॥४॥
दोहा :
परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम।
प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम॥३४॥
अपने परमानन्द स्वरूप, कृपाक धाम आर मोनक कामना सब परिपूर्ण करयवला छी। हे श्री रामजी! हमरा अपन अविचल प्रेमाभक्ति देल जाउ॥३४॥
चौपाई :
देहु भगति रघुपति अति पावनि। त्रिबिधि ताप भव दाप नसावनि॥
प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु। होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु॥१॥
हे रघुनाथजी! अपने हमरा अपन अत्यन्त पवित्र करयवाली आ तीनू तरहक ताप आ जन्म-मरण केर क्लेश सब केँ नाश करयवाली भक्ति दिअ’। हे शरणागतक कामना पूर्ण करबाक लेल कामधेनु आ कल्पवृक्ष रूप प्रभो! प्रसन्न भ’ कय हमरा सब केँ यैह वरदान दिअ’॥१॥
भव बारिधि कुंभज रघुनायक। सेवत सुलभ सकल सुख दायक॥
मन संभव दारुन दुख दारय। दीनबंधु समता बिस्तारय॥२॥
हे रघुनाथजी! अहाँ जन्म-मृत्यु रूप समुद्र केँ सोखबाक लेल अगस्त्य मुनिक समान छी। अपने सेवा करय मे सुलभ छी तथा सब सुख केँ दयवला छी। हे दीनबंधो! मोन सँ उत्पन्न दारुण दुःख सभक नाश करू आर हमर समदृष्टिक विस्तार करू॥२॥
आस त्रास इरिषाद निवारक। बिनय बिबेक बिरति बिस्तारक॥
भूप मौलि मनि मंडन धरनी। देहि भगति संसृति सरि तरनी॥३॥
अपने विषय सभक आशा, भय आर ईर्षा आदिक निवारण करयवला छी तथा विनय, विवेक व वैराग्य केर विस्तार करयवला छी। हे राजा सभक शिरोमणि एवं पृथ्वीक भूषण श्री रामजी! संसृति (जन्म-मृत्युक प्रवाह) रूपी नदीक लेल नावरूपी अपन भक्ति प्रदान कयल जाउ॥३॥
मुनि मन मानस हंस निरंतर। चरन कमल बंदित अज संकर॥
रघुकुल केतु सेतु श्रुति रच्छक। काल करम सुभाउ गुन भच्छक॥४॥
हे मुनि सभक मनरूपी मानसरोवर मे निरंतर निवास करयवला हंस! अपनेक चरणकमल ब्रह्माजी आ शिवजी द्वारा वंदित अछि। अपने रघुकुल केर केतु, वेदमर्यादाक रक्षक और काल, कर्म, स्वभाव तथा गुणरूपी बंधन केर भक्षक (नाशक) छी॥४॥
तारन तरन हरन सब दूषन। तुलसिदास प्रभु त्रिभुवन भूषन॥५॥
अपने तरन-तारन (स्वयं तरल आ दोसर केँ तारयवला) तथा सब दोष केँ हरयवला छी। तीनू लोक केर विभूषण अपने तुलसीदास केर स्वामी छी॥५॥
१९. प्रेम सहित बेर-बेर स्तुति कयकेँ आ मस्तक नमाकय तथा अपन अत्यन्त मनचाहा वर पाबिकय सनकादि मुनि ब्रह्मलोक केँ चलि गेलाह। सनकादि मुनि ब्रह्मलोक केँ चलि गेलाक बाद तीनू भाइ श्री रामजीक चरण मे मस्तक नमौलनि। सब भाइ प्रभु सँ पुछैत लजाइत छथि, तेँ ओ सब हनुमान्जी दिश ताकि रहल छथि।
हरिः हरः!!