स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
बानर-निषाद आदिक विदाई
श्री रामजीक राजतिलक उपरान्त….
१. बानर सब ब्रह्मानंद मे मग्न अछि। प्रभुक चरण मे सब केँ खूब प्रेम छैक। ओकरा लोकनि केँ दिन बितैत बुझेबे नहि कयलैक आ छह मास बीति गेलैक। सब अपन घरो तक बिसरि गेल। जागैत कालक त बात छोड़ू, सपनहुँ मे घरक सुइध नहि रहि गेलैक, जेना सन्त सभक मोन मे दोसर सँ द्रोह करबाक बात कहियो नहि अबैत छैक।
२. तखन श्री रघुनाथजी सब सखा लोकनि (बानर सब) केँ बजौलनि। सब कियो आबिकय आदर सहित माथ नमेलक। बड़ा प्रेम सँ श्री रामजी ओकरा सब केँ अपना लग मे बैसेलाह आ भक्त लोकनि केँ सुख दयवला कोमल वचन बजलाह –
“अहाँ सब हमर बहुत सेवा कयलहुँ अछि। मुँह पर अहाँ सभक बड़ाई कि करू! हमर हित लेल अहाँ लोकनि घरहु केँ आ सब तरहक सुख आदि केँ त्यागि देलहुँ। तेँ हमरा अहाँ सब बहुते प्रिय लागि रहल छी।
छोट भाइ, राज्य, संपत्ति, जानकी, अपन शरीर, घर, कुटुम्ब आ मित्र – ई सब हमरा प्रिय छथि, मुदा अहाँ सभक समान नहि। हम झूठ नहि कहैत छी, ई हमर स्वभाव अछि।
सेवक सब केँ प्रिय लगैत छन्हि, यैह नीति (नियम) छैक। लेकिन हमरा त दास पर स्वाभाविक रूप सँ विशेष प्रेम अछि।
हे सखागण! आब सब कियो घर जाउ, ओतय दृढ़ नियम सँ हमरा भजैत रहब। हमरा सदा सर्वव्यापक आर सभक हित करयवला जानिकय अत्यन्त प्रेम करब।”
३. प्रभुक वचन सुनिकय सभक सब प्रेममग्न भ’ गेल। हम के छी आ कतय छी, से देहक सुइध तक बिसरा गेलैक। ओ सब प्रभुक सामने हाथ जोड़िकय टकटकी लगौने देखिते रहि गेल। अत्यन्त प्रेमक कारण किछु कहियो नहि पबैछ। प्रभु ओकरा सभक अत्यधिक प्रेम केँ देखलखिन त बहुते प्रकार सँ ज्ञानक उपदेश सब देलखिन। प्रभुक सम्मुख ओ सब किछु कहि नहि पबैछ। बेर-बेर प्रभुक चरणकमल केँ देखैत अछि। तखन प्रभु अनेकों रंगक अनुपम आर सुन्दर गहना-कपड़ा सब मँगबौलनि। सबसँ पहिने भरतजी अपना हाथ सँ सजाकय सुग्रीव केँ वस्त्राभूषण पहिरौलनि। फेर प्रभुक प्रेरणा सँ लक्ष्मणजी विभीषणजी केँ गहना-कपड़ा पहिरौलनि, जे श्री रघुनाथजीक मन केँ बड नीक लगलनि।
४. अंगद बैसले रहला, ओ अपना जगह सँ हिलबो तक नहि कयलनि। हुनकर उत्कट प्रेम देखिकय प्रभु हुनका नहि बजौलनि। जाम्बवान् आर नील आदि सब केँ श्री रघुनाथजी अपने सँ भूषण-वस्त्र पहिरौलनि। ओ सब अपन हृदय मे श्री रामचंद्रजीक रूप केँ धारण कयकेँ हुनकर चरण मे मस्तक नमाकय चललाह। तखन अंगद उठिकय मस्तक नमबैत, नेत्र मे जल भरिकय आ हाथ जोड़िकय अत्यन्त विनम्र आ मानू प्रेमक रस मे डुबायल मधुर वचन बजलाह –
“हे सर्वज्ञ! हे कृपा आर सुखक समुद्र! हे दीन सबपर दया करयवला! हे आर्त केर बन्धु! सुनू! हे नाथ! मरैत समय हमर पिता बालि हमरा अपनहिक कोरा मे छोड़ि गेल छलथि। अतः हे भक्त सभक हितकारी! अपन अशरण-शरण विरद (बानि) याद कयकेँ हमरा जुनि त्यागू।
हमर त स्वामी, गुरु, पिता आर माता सब किछु अहीं टा छी। अहाँक चरणकमल केँ छोड़िकय हम कतय जाउ?
हे महाराज! अपने स्वयं विचारिकय कहू, प्रभु अहाँ केँ छोड़िकय घर पर हमर कोन काज छैक? हे नाथ! एहि ज्ञान, बुद्धि आ बल सँ हीन बालक तथा दीन सेवक केँ शरण मे राखू।
हम घरक सबटा नीच सँ नीच सेवा करब आर अहाँक चरणकमल केँ देखि-देखि भवसागर सँ तरि जायब।”
एना कहिकय ओ श्री रामजीक पैर पर खसि पड़लाह। कहला – “हे प्रभो! हमरा रक्षा करू। हे नाथ! आब ई नहि कहब जे तूँ घर जो।”
५. अंगदक विनम्र वचन सुनिकय करुणाक सीमा प्रभु श्री रघुनाथजी हुनका उठाकय हृदय सँ लगा लेलनि। प्रभुक नेत्रकमल मे प्रेमाश्रुक जल भरि गेलनि। तखन भगवान् अपन हृदयक माला, वस्त्र आर मणि (रत्न सभक आभूषण) बालिपुत्र अंगद केँ पहिराकय आर बहुते प्रकार सँ बुझाकय हुनकर विदाई कयलनि।
६. भक्तक करनी केँ याद कयकेँ भरतजी छोट भाइ शत्रुघ्नजी आर लक्ष्मणजी सहित हुनका अरियातय लेल गेलाह। अंगदक हृदय मे कनी प्रेम नहि छन्हि, ओ बेर-बेर घुमि-घुमिकय श्री रामजी दिश तकैत छथि आ बेर-बेर दण्डवत प्रणाम करैत छथि। मोन मे एना अबैत छन्हि जे श्री रामजी हमरा रहय लेल कहि देता। ओ श्री रामजीक देखबाक, बजबाक, चलबाक आ हँसिकय भेटबाक रीति सब याद कय-कयकेँ सोचेत छथि आ अलग हेबाक बात मोन मे अबिते बहुते दुःखी भ’ जाइत छथि। तथापि प्रभुक रुइख देखि, बहुते रास विनय वचन कहि आ हृदय मे प्रभुक चरणकमल राखि ओ चलि देलाह।
७. अत्यन्त आदरक संग सब बानर लोकनि केँ अरियाइत कय भाइ सहित भरतजी घुरि अयलाह। तखन हनुमान्जी सुग्रीवक चरण पकड़िकय अनेकों प्रकार सँ विनती कयलनि आ कहलनि – “हे देव! दस दिन श्री रघुनाथजीक चरणसेवा कयकेँ फेर हम आबिकय अपनेक चरणक दर्शन करब। सुग्रीव कहलखिन्ह – “हे पवनकुमार! अहाँ पुण्यक राशि थिकहुँ जे भगवान् अहाँ केँ अपन सेवा मे राखि लेलनि। जाउ आ कृपाधाम श्री रामजीक सेवा करू।” सब बानर एना कहिकय तुरन्त आगू चलि पड़ल। अंगद कहलखिन्ह – “हे हनुमान्! सुनू – हम अहाँ सँ हाथ जोड़िकय कहैत छी, प्रभु सँ हमर दण्डवत् कहब आ श्री रघुनाथजी केँ बेर-बेर हमर याद करबैत रहब।” एतेक कहिकय बालिपुत्र अंगद चलि देलाह आ हनुमान्जी घुरि अयलाह। आबिकय प्रभु सँ हुनकर प्रेमक वर्ण कयलनि जे सुनिकय भगवान् प्रेममग्न भ’ गेलाह।
८. काकभुशुण्डिजी कहैत छथि – “हे गरुड़जी! श्री रामजीक चित्त वज्रहु सँ बेसी कठोर आर फूलहु सँ बेसी कोमल छन्हि। तखन कहू, ई केकरा बुझय मे आबि सकैत अछि?”
९. फेर कृपालु श्री रामजी निषादराज केँ बजौलनि आ हुनको भूषण, वस्त्र प्रसाद मे देलनि आ कहलनि – “आब अहूँ घर जाउ, ओतय हमरा स्मरण करैत रहब आ मन, वचन आ कर्म सँ धर्मक अनुसार चलब। अहाँ हमर मित्र छी आ भरतहि समान भाइ छी। अयोध्या हरदम अबैत-जाइत रहब।” – ई वचन सुनैत हुनका बड नीक लगलनि। सुखी भ’ गेलाह। आँखि मे आनन्द आ प्रेमक नोर भरिकय ओ पैर पर खसि पड़लाह। भगवान् केर चरणकमल केँ हृदय मे राखि ओहो घर घुरलाह आ आबिकय अपन कुटुम्ब समाज केँ प्रभुक स्वभाव सुनेलाह।
१०. श्री रघुनाथजीक ई चरित्र देखि अवधपुरवासी बेर-बेर कहैत छथिन जे सुखक राशि श्री रामचंद्रजी धन्य छथि। श्री रामचंद्रजीक राज्य पर प्रतिष्ठित भेला सँ तीनू लोक हर्षित भ’ गेल। सभक समस्त शोक खत्म भ’ गेलैक। कियो केकरो सँ वैरी नहि करैछ। श्री रामचंद्रजीक प्रताप सँ सभक विषमता (आंतरिक भेदभाव) मेटा गेलैक। सब कियो अपन-अपन वर्ण आ आश्रम केर अनुकूल धर्म मे तत्पर भेल सदा वेद मार्ग पर चलैत अछि आ सुख पबैत अछि। केकरो एहि बातक न डर छैक, न शोक छैक आर न कोनो रोगे सतबैत छैक।
हरिः हरः!!