रामचरितमानस मोतीः राम राज्याभिषेक, वेदस्तुति, शिवस्तुति

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

राम राज्याभिषेक, वेदस्तुति, शिवस्तुति

१. अवधपुरी बहुते सुन्दर ढंग सँ सजायल गेल। देवता सब पुष्प वर्षाक झड़ी लगा देलनि। श्री रामचंद्रजी सेवक सब केँ बजाकय कहलनि जे अहाँ सब जाकय पहिने हमर सखा लोकनि केँ स्नान कराउ। भगवानक वचन सुनिते सेवक जहाँ-तहाँ दौड़लाह आ तुरन्त सुग्रीवादि केँ स्नान करौलनि। फेर करुणानिधान श्री रामजी भरतजी केँ बजौलनि आ हुनकर जटा केँ अपनहि हाथ सँ छोड़ेलनि। तदनन्तर भक्त वत्सल कृपालु प्रभु श्री रघुनाथजी तीनू भाइ लोकनि केँ स्नान करौलनि।

२. भरतजीक भाग्य आ प्रभुक कोमलताक वर्ण अरबों शेषजी नहि कय सकैत छथि। तेकर बाद श्री रामजी अपन जटा केँ खोललनि आ गुरुजीक आज्ञा माँगि स्नान कयलनि। स्नान कयकेँ प्रभु आभूषण धारण कयलनि। हुनक सुशोभित अंग सब देखिकय सैकड़ों (असंख्य) कामदेव लजा गेलाह। एम्हर सासु लोकनि जानकीजी केँ आदरक संग तुरन्त स्नान कराकय हुनक अंग-अंग मे दिव्य वस्त्र आ श्रेष्ठ आभूषण खूब नीक जेकाँ पहिरा देलनि। श्री राम केर बायाँ दिश रूप आ गुण सभक खान रमा (श्री जानकीजी) शोभित भ’ रहली अछि। हुनका देखिकय सब माता लोकनि अपन जन्म (जीवन) सफल बुझि खूब हर्षित भेलीह।

३. काकभुशुण्डिजी कहैत छथि – “हे पक्षीराज गरुड़जी! सुनू, ताहि समय ब्रह्माजी, शिवजी आर मुनि लोकनिक समूह तथा विमान पर चढ़िकय देवता लोकनि आनन्दकन्द भगवान्‌ केर दर्शन करय लेल अयलाह। प्रभु केँ देखिकय मुनि वशिष्ठजीक मोन मे प्रेम भरि गेलनि। ओ तुरन्ते दिव्य सिंहासन मँगबौलनि, जेकर तेज सूर्य केर समान छल। ओकर सौन्दर्य वर्णन नहि कयल जा सकैछ। ब्राह्मण लोकनि केँ मस्तक नमाकय श्री रामचंद्रजी ओहि सिंहासन पर विराजमान भ’ गेलाह।”

४. “श्री जानकीजी सहित रघुनाथजी केँ देखिकय मुनि लोकनिक समुदाय खूब हर्षित भेल। तखन ब्राह्मण लोकनि वेदमंत्र केर उच्चारण कयलनि। आकाश मे देवता आर मुनि ‘जय हो, जय हो’ जेर जोरदार नारा लगबय लगलाह। सबसँ पहिने मुनि वशिष्ठजी तिलक कयलखिन। पुनः ओ समस्त ब्राह्मण लोकनि सँ तिलक करबाक आज्ञा देलखिन।”

५. “पुत्र केँ राजसिंहासन पर देखि माता लोकनि बहुत हर्षित भेलीह आर ओ सब बेर-बेर आरती उतारलीह। ओहो सब ब्राह्मण लोकनि केँ अनेकों प्रकारक दान देलीह आ संपूर्ण याचक सब केँ अयाचक बना देलीह, अर्थात् मालामाल कय देलीह।”

६. “त्रिभुवन केर स्वामी श्री रामचंद्रजी केँ अयोध्याक सिंहासन पर विराजित देखि देवता लोकनि नगाड़ा बजेलाह।

छंद :
नभ दुंदुभीं बाजहिं बिपुल गंधर्ब किंनर गावहीं।
नाचहिं अपछरा बृंद परमानंद सुर मुनि पावहीं॥
भरतादि अनुज बिभीषनांगद हनुमदादि समेत ते।
गहें छत्र चामर ब्यजन धनु असिचर्म सक्ति बिराजते॥१॥

आकाश मे बहुते रास नगाड़ा सब बाजि रहल अछि। गन्धर्व आर किन्नर गाबि रहल छथि। अप्सरा सब झुंडक झुंड नाचि रहल छथि। देवता आ मुनि परमानन्द प्राप्त कय रहल छथि। भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्नजी, विभीषण, अंगद, हनुमान्‌ और सुग्रीव आदि सहित क्रमशः छत्र, चँवर, पंखा, धनुष, तलवार, ढाल आ शक्ति लेने सुशोभित छथि।

श्री सहित दिनकर बंस भूषन काम बहु छबि सोहई।
नव अंबुधर बर गात अंबर पीत सुर मन मोहई॥
मुकुटांगदादि बिचित्र भूषन अंग अंगन्हि प्रति सजे।
अंभोज नयन बिसाल उर भुज धन्य नर निरखंति जे॥२॥

श्री सीताजी सहित सूर्यवंश केर विभूषण श्री रामजीक शरीर मे अनेकों कामदेव लोकनिक छबि शोभा दय रहल छन्हि। नवीन जलयुक्त मेघ केर समान सुन्दर श्याम शरीर पर पीताम्बर देवता लोकनिक मन केँ पर्यन्त मोहित कय रहल छन्हि। मुकुट, बाजूबंद आदि विचित्र आभूषण अंग-अंग मे सजल छन्हि। कमल केर समान नेत्र छन्हि, चौड़ा छाती छन्हि आ लम्बा हाथ छन्हि। जे हुनकर दर्शन करैत अछि, से मनुष्य धन्य अछि।”

७. “हे पक्षीराज गरुड़जी! ओ शोभा, ओ समाज आर ओ सुख हमरा सँ कहैत नहि बनैत अछि। सरस्वतीजी, शेषजी आर वेद निरन्तर ओकर वर्णन करैत छथि, आर ओकर रस (आनन्द) महादेवजी मात्र जनैत छथि। सब देवता अलग-अलग स्तुति कयकेँ अपन-अपन लोक केँ प्रस्थान कय गेलाह। तखन भाट केर रूप धारण कयकेँ चारू वेद ओतय अयलाह जेतय श्री रामजी रहथि। कृपानिधान सर्वज्ञ प्रभु हुनका चिन्हिकय हुनकर खूब आदर कयलनि। एकर भेद आर कियो नहि बुझलक। वेद गुणगान करय लगलाह।”

८. छंद :
जय सगुन निर्गुन रूप रूप अनूप भूप सिरोमने।
दसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने॥
अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे।
जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे॥१॥

सगुण आ निर्गुण रूप! हे अनुपम रूप-लावण्ययुक्त! हे राजा सभक शिरोमणि! अपनेक जय हो। अपने रावण आदि प्रचण्ड, प्रबल एवं दुष्ट निशाचर सबकेँ अपन भुजाक बल सँ मारि देलहुँ। अपने मनुष्य अवतार लयकय संसारक भार केँ नष्ट कयकेँ अत्यन्त कठोर दुःख सब केँ भस्म कय देलहुँ। हे दयालु! हे शरणागतक रक्षा करनिहार प्रभो! अपनेक जय हो। हम शक्ति (सीताजी) सहित शक्तिमान्‌ अपने केँ नमस्कार करैत छी। 

तव बिषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे।
भव पंथ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे॥
जे नाथ करि करुना बिलोकि त्रिबिधि दुख ते निर्बहे।
भव खेद छेदन दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे॥२॥

हे हरे! अपनेक दुस्तर मायाक वशीभूत हेबाक कारण देवता, राक्षस, नाग, मनुष्य आ चर, अचर सब काल कर्म ओ गुण सँ भरल (ओकर वशीभूत भेल) दिन-राति अनन्त भव (आवागमन) केर मार्ग मे भटकि रहल अछि। हे नाथ! एहि मे सँ जिनको अपने कृपा कयकेँ (कृपादृष्टि सँ) देख लेलियनि, ओ (माया जनित) तीनू प्रकारक दुःख सँ मुक्त भ’ गेलाह। हे जन्म-मरण केर श्रम केँ काटय मे कुशल श्री रामजी! हमर रक्षा करू। हम अहाँ केँ नमस्कार करैत छी।

जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी।
ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी॥
बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे।
जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिं भव नाथ सो समरामहे॥३॥

जे मिथ्या ज्ञान केर अभिमान मे विशेष रूप सँ मतवाला बनिकय जन्म-मृत्युक भयकेँ हरयवला अपनेक भक्तिक आदर नहि कयलक, हे हरि! ओकरा देव-दुर्लभ (देवताओ सब लेल बड कठिनता सँ प्राप्त होयवला, ब्रह्मा आदि केर) पद पाबियोकय ताहि पद सब सँ नीचाँ खसैत देखल जाइत अछि। मुदा, जे सब आशा केँ छोड़ि अपने उपर विश्वास कयकेँ अपनहि केर दास टा बनिकय रहैछ, से मात्र अपनेक नाम जपिकय बिना कोनो परिश्रम भवसागर सँ तरि गेल करैत अछि। हे नाथ! तेहेन अपने केँ हम स्मरण करैत छी। 

जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी।
नख निर्गता मुनि बंदिता त्रैलोक पावनि सुरसरी॥
ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे।
पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे॥४॥

जे चरण शिवजी आर ब्रह्माजीक द्वारा पूज्य अछि, तथा जाहि चरणक कल्याणमयी रज केर स्पर्श पाबि शिला बनल गौतम ऋषिक पत्नी अहल्या तरि गेलीह, जाहि चरण केर नख सँ मुनि लोकनि सँ वन्दित, त्रैलोक्य केँ पवित्र करयवाली देवनदी गंगाजी निकललिह आर ध्वजा, वज्र अंकुश तथा कमल, एहि चिह्न सब सँ युक्त जाहि चरण मे वन मे घुमैत समय काँट गड़ि गेला सँ कोराँटी भ’ गेल अछि, हे मुकुन्द! हे राम! हे रमापति!! हम अपनेक ओहि दुनू चरणकमल केँ नित्य भजैत रहैत छी।

अब्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने।
षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने॥
फल जुगल बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे।
पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे॥५॥

वेद शास्त्र मे कहल गेल अछि जे जिनकर मूल अव्यक्त (प्रकृति) अछि, जे प्रवाह रूप सँ अनादि छथि, जिनकर चारि टा त्वचा, छह टा तना, पच्चीस टा शाखा आर अनेकों पत्ता आ बहुते रास फूल अछि, जाहि मे कड़ू आ मीठ दुनू प्रकारक फल लगैत अछि, जाहि पर एक्कहि टा लत्ती अछि, जे ओहिपर आश्रित रहैत अछि, जाहि मे नित्य नव पत्ता आ फूल निकलैत रहैत छैक, एहेन संसार वृक्ष स्वरूप (विश्वरूप मे प्रकट) अपने केँ हम नमस्कार करैत छी। 

जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं।
ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं॥
करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं।
मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं॥६॥

ब्रह्म अजन्मा छथि, अद्वैत छथि, केवल अनुभव टा सँ जानल जाइत छथि आ मन सँ परे छथि – जे एहि प्रकारे कहिकय ओहि ब्रह्म केँ ध्यान करैत अछि, ओ एना कहल करय आ बुझल करय, मुदा हे नाथ! हम त नित्य अहाँ सगुण यश टा गबैत छी। हे करुणा केर धाम प्रभो! हे सद्गुण केर खान! हे देव! हम यैह वर माँगैत छी जे मन, वचन आ कर्म सँ विकार सब त्यागिकय अहाँक चरण मे मात्र प्रेम करी।

वेद सभक देखिते ई श्रेष्ठ विनती कयलनि। फेर ओ अंतर्धान भ’ गेलाह आ ब्रह्मलोक केँ चलि गेलाह।

९. काकभुशुण्डिजी कहैत छथि – “हे गरुड़जी ! सुनू, तखन शिवजी ओतय अयलाह जेतय श्री रघुवीर रहथि आर गद्‍गद्‍ वाणी सँ स्तुति करय लगलाह। हुनकर शरीर पुलकावली सँ पूर्ण भ’ गेलनि।”

छंद :
जय राम रमारमनं समनं। भवताप भयाकुल पाहि जनं॥
अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो॥१॥

हे राम! हे रमारमण (लक्ष्मीकांत)! हे जन्म-मरण केर संताप केँ नाश करयवला! अपनेक जय हो, आवागमन केर भय सँ व्याकुल एहि सेवकक रक्षा करू। हे अवधपति! हे देवता सभक स्वामी! हे रमापति! हे विभो! हम शरणागत अपने सँ यैह माँगैत छी जे हे प्रभो! हमर रक्षा करू। 

दससीस बिनासन बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा॥
रजनीचर बृंद पतंग रहे। सर पावक तेज प्रचंड दहे॥२॥

हे दस सिर आर बीस भुजावला रावण केँ विनाश कयकेँ पृथ्वीक समस्त महान्‌ रोग (कष्ट सब) केँ दूर करयवला श्री रामजी! राक्षस समूह रूपी जे फतिंगा रहय, से सब अहाँक बाणरूपी अग्निक प्रचण्ड तेज सँ भस्म भ’ गेल।

महि मंडल मंडन चारुतरं। धृत सायक चाप निषंग बरं।
मद मोह महा ममता रजनी। तम पुंज दिवाकर तेज अनी॥३॥

अपने पृथ्वी मंडल केर अत्यन्त सुन्दर आभूषण छी, अपने श्रेष्ठ बाण, धनुष आ तरकस धारण कय रखने छी। महान्‌ मद, मोह आर ममतारूपी रात्रिक अंधकार समूह केँ नाश करबाक लेल अहाँ सूर्य केर तेजोमय किरण समूह छी।

मनजात किरात निपात किए। मृग लोग कुभोग सरेन हिए॥
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे। बिषया बन पावँर भूलि परे॥४॥

कामदेवरूपी भील मनुष्यरूपी हिरन केर हृदय मे कुभोगरूपी बाण मारिकय ओकरा खसा देने अछि। हे नाथ! हे पाप-ताप केँ हरण करयवला हरे ! तेकरा मारिकय विषयरूपी वन मे भटकल पड़ल एहि पामर अनाथ जीव सभक रक्षा करू।

बहु रोग बियोगन्हि लोग हए। भवदंघ्रि निरादर के फल ए॥
भव सिंधु अगाध परे नर ते। पद पंकज प्रेम न जे करते॥५॥

लोक बहुते रास रोग आ वियोग (दुःख सब) सँ मारल गेल अछि। ई सब अपनेक चरणक निरादरक फल थिक। जे मनुष्य अपनेक चरणकमल मे प्रेम नहि करैछ, ओ अथाह भवसागर मे पड़ल रहैछ।

अति दीन मलीन दुखी नितहीं। जिन्ह कें पद पंकज प्रीति नहीं॥
अवलंब भवंत कथा जिन्ह कें। प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें॥६॥

जिनका अपनेक चरणकमल मे प्रीति नहि छन्हि ओ नित्य अत्यन्त दीन, मलिन (उदास) आ दुःखी रहैत छथि आर जिनका अपनेक लीला कथा केर आधार छन्हि, हुनका सन्त आ भगवान् सदैव प्रिय लागय लगैत छन्हि। 

नहिं राग न लोभ न मान सदा। तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा॥
एहि ते तव सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा॥७॥

हुनका सब मे न राग (आसक्ति) छन्हि, न लोभ, न मान छन्हि, आ न मदे। हुनकर संपत्ति सुख आ विपत्ति (दुःख) समान छन्हि। यैह कारणे मुनि लोकनि योग (साधन) केर भरोसा सदा लेल त्यागि दैत छथि आ प्रसन्नताक संग अपनेक सेवक बनि जाइत छथि।

करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ। पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ॥
सम मानि निरादर आदरही। सब संतु सुखी बिचरंति मही॥८॥

ओ प्रेमपूर्वक नियम लयकय निरन्तर शुद्ध हृदय सँ अपनेक चरणकमल केर सेवा करैत रहैत छथि आ निरादर तथा आदर केँ समान मानिकय ओ सब सन्त सुखी भ’ कय पृथ्वी पर विचरैत रहैत छथि।

मुनि मानस पंकज भृंग भजे। रघुबीर महा रनधीर अजे॥
तव नाम जपामि नमामि हरी। भव रोग महागद मान अरी॥९॥

हे मुनि लोकनिक मनरूपी कमल केर भ्रमर! हे महान्‌ रणधीर एवं अजेय श्री रघुवीर! हम अपने केँ भजैत छी। अपनेक शरण ग्रहण करैत छी। हे हरि! अपनेक नाम जपैत छी आर अपने केँ नमस्कार करैत छी। अपने जन्म-मरण रूपी रोग केर महान्‌ औषध आर अभिमान केर शत्रु थिकहुँ।

गुन सील कृपा परमायतनं। प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं॥
रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं। महिपाल बिलोकय दीन जनं॥१०॥

अपने गुण, शील आर कृपाक परम स्थान थिकहुँ। अपने लक्ष्मीपति थिकहुँ, हम अपने केँ निरन्तर प्रणाम करैत छी। हे रघुनन्दन! अपने जन्म-मरण, सुख-दुःख, राग-द्वेषादि द्वंद्व समूह सब केँ नाश करू। हे पृथ्वीक पालन करयवला राजन्‌। एहि दीन जन दिश सेहो दृष्टि देल जाउ। 

बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग॥१४ क॥

हम अपने सँ बेर-बेर यैह वरदान माँगैत छी जे हमरा अपनेक चरणकमल केर अचल भक्ति आ अपनहि केर भक्त सभक सत्संग सदैव प्राप्त हो। हे लक्ष्मीपते! हर्षित भ’ कय हमरा यैह दिअ।

बरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास।
तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास॥१४ ख॥

श्री रामचंद्रजीक गुण सभक वर्णन कयकेँ उमापति महादेवजी हर्षित भ’ कैलास केँ चलि गेलाह। तखन प्रभु बानर लोकनि केँ सब प्रकार सँ सुख दयवला डेरा (रहबाक स्थान) दियौलन्हि।

१०. “हे गरुड़जी ! सुनू! ई कथा सबकेँ पवित्र करयवला अछि। दैहिक, दैविक, भौतिक – तीनू प्रकारक ताप सब केँ आ जन्म-मृत्युक भय केँ नाश करयवला अछि। महाराज श्री रामचंद्रजी केर कल्याणमय राज्याभिषेकक चरित्र निष्कामभाव सँ सुनिकय मनुष्य वैराग्य आ ज्ञान प्राप्त करैत अछि।

आर जे मनुष्य सकामभाव सँ सुनैत आ जे गबैत अछि, ओहो अनेकों प्रकारक सुख आ संपत्ति प्राप्त करैत अछि। ओ जगत्‌ मे देवदुर्लभ सुख सब केँ भोगिकय अंतकाल मे श्री रघुनाथजीक परमधाम केँ जाइत अछि।

एकरा जे जीवन्मुक्त, विरक्त आ विषयी सुनैत अछि, से क्रमशः भक्ति, मुक्ति आ नवीन संपत्ति (नित्य नव भोग) पबैत अछि।

हे पक्षीराज गरुड़जी! हम अपन बुद्धि के पहुँच अनुसार रामकथा वर्णन कयल अछि, जे जन्म-मरण, भय आर दुःख हरयवाली अछि। ई वैराग्य, विवेक आर भक्ति केँ दृढ़ करयवाली अछि तथा मोहरूपी नदी केँ पार करबाक लेल सुन्दर नाव अछि।”

११. अवधपुरी मे नित नव मंगलोत्सव होइत अछि। सब वर्गक लोक हर्षित रहैत छथि। श्री रामजीक चरणकमल मे – जेकर श्री शिवजी, मुनिगण आर ब्रह्माजी तक नमस्कार करैत छथि, सभक नित्य नवीन प्रीति बढ़ैत रहैत छैक। भिक्षुक सब केँ बहुते प्रकारक वस्त्राभूषण पहिरायल गेल आ ब्राह्मण सब नाना प्रकारक दान पेलनि के दान पेलनि।

हरिः हरः!!