स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
भरत विरह एवं भरत-हनुमान् मिलन
१. श्री रामजीक वनवास सँ वापस अयबाक अवधि केर एकटा दिन बचि गेल छल, अतएव नगर भरिक लोक खूब आतुर भ’ रहल छथि। रामक वियोग मे दुब्बर भेल स्त्री-पुरुष जतय-ततय विचार कय रहल छथि जे कि बात छैक, श्री राम एखन धरि कियैक नहि अयलाह अछि। एतबा मे सब सुन्दर सगुन होमय लागल आ सभक मोन प्रसन्न भ’ गेलैक। नगर सेहो चारू दिश रमणीक भ’ गेलैक। मानू ई सबटा निशानी प्रभुक शुभ आगमनक संकेत कय रहल छल। कौसल्या आदि सब माता लोकनिक मोन मे एहेन आनन्द भ’ रहल छन्हि जेना कि एखनहिं कियो कहय चाहैत होइन्ह जे सीताजी आ लक्ष्मणजी सहित प्रभु श्री रामचंद्रजी आबि गेलाह।
२. भरतजीक दाहिना आँखि आ दाहिना हाथ बेर-बेर फड़ैक रहल छन्हि। एकरा शुभ सगुन जानि हुनकर मोन मे अत्यन्त हर्ष भेलनि आर ओ विचार करय लगलाह – प्राणक आधार रूप अवधि केर एक्के टा दिन शेष रहि गेल अछि। एतेक सोचिते भरजीक मोन मे अपार दुःख होबय लगलनि। कि कारण भेलैक जे नाथ नहि अयलाह? प्रभु कुटिल जानिकय हमरा कहीं बिसरा त नहि देलनि? अहा हा! लक्ष्मण बड़ा धन्य आ बड़भागी छथि, जे श्री रामचंद्रजीक चरणारविन्दक प्रेमी छथि, हुनका सँ अलग नहि भेलाह। हमरा त प्रभु कपटी आ कुटिल बुझि लेलनि, ताहि सँ नाथ हमरा अपना संग नहि लय गेलाह। बातो त ठीके छैक, कियैक त जँ प्रभु हमर करनी पर ध्यान देता त सौ करोड़ (असंख्य) कल्पहु धरि हमरा निस्तार (छुटकारा) नहि भेटि सकैत अछि, मुदा आशा एतेत त अछि जे प्रभु सेवक लोकनिक अवगुण कहियो नहि मानैत छथि। ओ दीनबन्धु छथि आ अत्यन्त कोमल स्वभावक छथि। अतएव हमर हृदय मे एकर पक्का भरोसा अछि जे श्री रामजी अवश्य भेटता, कियैक तँ हमरा सगुन सब शुभ भ’ रहल अछि, लेकिन अवधि बितलो पर जँ हमर प्राण रहि गेल त जगत् मे हमरा समान नीच के होयत?
३. श्री रामजीक विरह समुद्र मे भरतजीक मन डूबि रहल छलन्हि, ताहि समय पवनपुत्र हनुमान्जी ब्राह्मणक रूप धयकय एहि तरहें आबि गेला मानू हुनका डूबय सँ बचेबाक लेल कोनो नाव आबि गेल हो। हनुमान्जी दुर्बल शरीर भरतजी केँ जटाक मुकुट बनेने, राम! राम! रघुपति! जपैत आर कमल केर समान नेत्र सँ प्रेमाश्रुक जल बहबैत कुश केर आसन पर बैसल देखलनि। हुनका देखिते हनुमान्जी अत्यन्त हर्षित भ’ गेलाह। हुनकर शरीर पुलकित भ’ गेलनि, नेत्र सँ प्रेमाश्रुक जल बरसय लगलनि। मोन मे बहुते प्रकार सँ सुख मानिकय ओ कानक लेल अमृतक समान वाणी बजलाह –
“जिनकर विरह मे अहाँ दिन-राति सोच करैत (घुलैत) रहैत छी आर जिनकर गुण समूहक पाँति केँ अहाँ निरन्तर रटैत रहैत छी, से रघुकुल केर तिलक, सज्जन लोकनि केँ सुख दयवला आ देवता आ मुनि लोकनिक रक्षक श्री रामजी सकुशल आबि गेलाह। शत्रु केँ रण मे जीतिकय सीताजी आर लक्ष्मणजी सहित प्रभु आबि रहल छथि, देवता सब हुनकर सुन्दर यश गाबि रहल छथि।”
४. ई वचन सुनिते भरतजीक सबटा दुःख बिसरा गेलनि। जेना प्यासल आदमी अमृत पाबिकय प्यासक दुःख केँ बिसरि जाइत अछि! भरतजी पुछलखिन – “हे तात! अहाँ के थिकहुँ? आर कतय सँ आयल छी? अहाँ जे हमरा ई परम प्रिय (अत्यन्त आनन्द दयवला) बात सुनेलहुँ से अपन परिचय कहू।” हनुमान्जी कहलखिन – “हे कृपानिधान! सुनू! हम पवन केर पुत्र आर जातिक बानर छी, हमर नाम हनुमान् भेल। हम दीन केर बंधु श्री रघुनाथजीक दास छी।” एतेक सुनिते भरतजी उठिकय आदरपूर्वक हनुमान्जी सँ गला लागिकय मिलन कयलनि।
५. मिलैत समय प्रेम हृदय मे नहि समाइत छन्हि! आँखि सँ आनन्द आ प्रेमक नोरक जल बहय लगलनि आ शरीर पुलकित भ’ गेलनि। भरतजी कहलखिन – “हे हनुमान् – अहाँक दर्शन सँ हमर समस्त दुःख समाप्त भ’ गेल। अहाँक रूप मे आइ हमरा प्रिय रामजी भेटि गेलाह।” भरतजी बेर-बेर कुशल पुछलनि आ कहलनि – “हे भाइ! सुनू, एहि शुभ समाद के बदला हम अहाँ केँ कि दी? एहि संदेशक बदला मे दय लायक पदार्थ जगत् मे किछुओ नहि अछि, हम से विचारिकय देख लेलहुँ। ताहि सँ हे तात! हम अहाँ सँ कोनो तरहें उऋण नहि भ’ सकैत छी। आब हमरा प्रभुक चरित्र (हाल) सुनाउ।”
६. तखन हनुमान्जी भरतजीक चरण मे मस्तक नमाकय श्री रघुनाथजीक सबटा गुणगाथा कहलखिन। भरतजी पुछलखिन – हे हनुमान्! कहू, कृपालु स्वामी श्री रामचंद्रजी कहियो हमरा अपन दास जेकाँ यादो करैत छथि?
छंद :
निज दास ज्यों रघुबंसभूषन कबहुँ मम सुमिरन कर्यो।
सुनि भरत बचन बिनीत अति कपि पुलकि तन चरनन्हि पर्यो॥
रघुबीर निज मुख जासु गुन गन कहत अग जग नाथ जो।
काहे न होइ बिनीत परम पुनीत सदगुन सिंधु सो॥
“रघुवंश केर भूषण श्री रामजी कि कखनहुँ अपन दास जेकाँ हमर यादो करैत रहलाह न?” भरतजीक अत्यंत नम्र वचन सुनि हनुमान्जी पुलकित शरीर सँ हुनकर चरण पर खसि पड़लाह आ मोन मे विचारय लगलाह – “जे चराचर केर स्वामी छथि, ओ श्री रघुवीर अपन श्रीमुख सँ जिनकर गुणसमूह सभक वर्णन करैत छथि, से भरतजी एहेन विनम्र, परम पवित्र आर सद्गुणक समुद्र कियैक नहि होइथ!”
७. हनुमान्जी कहलखिन – “हे नाथ! अपने श्री रामजी केँ प्राणक समान प्रिय छी, हे तात! हमर वचन सत्य अछि।” ई सुनिकय भरतजी बेर-बेर गला लगबैत छथि, हृदय मे हर्ष समाइत नहि छन्हि। तखन भरतजीक चरण मे माथ नमाकय हनुमान्जी तुरन्ते श्री रामजी लग घुरलाह आ जाकय हुनका सब कुशल-समाचार सुनौलनि। प्रभु हर्षित भ’ विमान पर चढ़िकय चललाह। एम्हर भरतजी सेहो हर्षित भ’ कय अयोध्यापुरी मे अयलाह आर ओ गुरुजी केँ सबटा समाचार सुनौलनि! फेर राजमहल मे खबर पठौलन्हि जे श्री रघुनाथजी कुशलपूर्वक नगर मे आबि रहला अछि।
८. खबर सुनितहि सब माता लोकनि उठि दौड़लीह। भरतजी प्रभुक कुशल समाचार सब केँ सुनौलनि। नगर निवासी सब ई समाचार पओलनि त स्त्री-पुरुष सब गोटे हर्षित भ’ कय दौड़लथि। श्री रामजीक स्वागत वास्ते दही, दूभि, गोरोचन, फल, फूल आर मंगल केर मूल नवीन तुलसीदल आदि वस्तु सब सोनाक थारी मे भरि-भरिकय हथिनी जेकाँ चाइल चलयवाली सौभाग्यवती स्त्री सब मंगलगीत गबिते चलि पड़लीह।
९. जे जेना अछि (जाहि दशा मे अछि) से तहिना (वैह दशा मे) उठि दौड़ैत अछि। देरी भ’ जेबाक भय सँ बच्चा आ बूढ़ सबकेँ कियो संग नहि लैत अछि। एक-दोसर सँ पुछैत अछि – “भाइ! तूँ दयालु श्री रघुनाथजी केँ देखलह की?” प्रभु केँ अबैत जानि अवधपुरी संपूर्ण शोभाक खान भ’ गेल। तीनू प्रकारक सुन्दर हवा बहय लागल। सरयूजी अति निर्मल जलवाली भ’ गेलीह। गुरु वशिष्ठजी, कुटुम्बी, छोट भाइ शत्रुघ्न आ ब्राह्मण लोकनिक समूहक संग हर्षित भ’ कय भरतजी अत्यन्त प्रेमपूर्ण मोन सँ कृपाधाम श्री रामजीक सामने अर्थात् हुनक अगुवानी लेल चललाह।
१०. बहुतो स्त्री सब मकानक छत (अटारी) सब पर चढ़िकय आकाश मे विमानक बाट देखि रहली अछि आ विमान देखिकय हर्षित होइत मीठ स्वर सँ सुन्दर-सुन्दर मंगलगीत गाबि रहली अछि। श्री रघुनाथजी पूर्णिमाक चंद्रमा छथि आ अवधपुर समुद्र अछि, जे ओहि पूर्णचंद्र केँ देखिकय हर्षित भ’ रहल अछि आ शोर करिते बढ़ि रहल अछि, एम्हर-ओम्हर दौड़ैत स्त्री सब समुद्रक तरंग समान लागि रहली अछि।
११. एम्हर विमान पर सँ सूर्यकुल रूपी कमल केँ प्रफुल्लित करयवला सूर्य श्री रामजी बानर सब केँ मनोहर नगर देखा रहल छथि। ओ कहैत छथि – “हे सुग्रीव! हे अंगद! हे लंकापति विभीषण! सुनू। ई पुरी पवित्र अछि आर ई देश सुन्दर अछि। यद्यपि सब वैकुण्ठ केर बड़ाई कयलनि अछि – ई बात वेद-पुराण सबमे प्रसिद्ध अछि आर जगत् जनैत अछि, मुदा अवधपुरी समान हमरा ओहो प्रिय नहि अछि। ई बात (भेद) कियो-कियो मात्र जनैत अछि। ई सुहाओन पुरी हमर जन्मभूमि थिक। एकर उत्तर दिशा मे जीव केँ पवित्र करयवाली सरयू नदी बहैत छथि, जाहि मे स्नान कयला सँ मनुष्य बिना परिश्रम केँ हमर समीप निवास (सामीप्य मुक्ति) पाबि जाइत अछि। एहि ठामक निवासी हमरा बहुते प्रिय छथि। ई पुरी सुख केर राशि आ हमर परमधाम प्रदान करयवाली अछि। प्रभुक वाणी सुनिकय सब बानर हर्षित भेलथि आर कहय लगलथि जे जाहि अवध केर स्वयं श्री रामजी बड़ाई कयलनि, से अवश्य टा धन्य अछि।
हरिः हरः!!