रामचरितमानस मोतीः पुष्पक विमान पर चढ़िकय श्री सीता-रामजीक अवध लेल प्रस्थान, श्री रामचरित्र केर महिमा

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

पुष्पक विमान पर चढ़िकय श्री सीता-रामजीक अवध लेल प्रस्थान, श्री रामचरित्र केर महिमा

प्रभु श्री रामजी द्वारा रीछ-बानर सब केँ अपन-अपन स्थान पर जेबाक आज्ञा आ सब केँ कृपा-आशीष प्रदान करबाक बाद…

१. सब रीछ-बानर अपन घर घुरबाक आज्ञा पाबि घर जेबाक खुशी त पबैत अछि लेकिन प्रभुक प्रेरणा (आज्ञा) सँ सब बानर-भालू श्री रामजीक रूप केँ हृदय मे राखिकय आ अनेकों प्रकार सँ विनती कयकेँ हर्ष एवं विषाद सहित घर दिश जा रहल अछि।

२. बानरराज सुग्रीव, नील, ऋक्षराज जाम्बवान्‌, अंगद, नल आर हनुमान्‌ तथा विभीषण सहित आरो जे बलवान्‌ वानर सेनापति सब छलथि, ओहो सब किछु कहि नहि पबैत छथि, बस प्रेमवश आँखि मे नोर भरने, आँखि झपकनाइयो तक छोड़िकय खाली टकटकी लगौने सम्मुख भ’ प्रभु श्री रामजी दिश ताकि टा रहल छथि। श्री रघुनाथजी हुनका सभक अतिशय प्रेम देखि सब गोटे केँ विमान पर चढ़ा लेलनि। तखन मनहि-मन विप्रचरण मे मस्तक नमा उत्तर दिशा लेल विमान चला देलाह।

३. विमान चलैत समय बड़ा भारी हल्ला भ’ रहल अछि। सब कियो श्री रघुवीर की जय कहि रहल छथि। विमान मे एकटा खुब ऊँच मनोहर सिंहासन छल, ताहि पर सीताजी सहित प्रभु श्री रामचंद्रजी विराजमान भ’ गेलाह। पत्नी सहित श्री रामजी एना सुशोभित भ’ रहला अछि मानू सुमेरु केर शिखर पर बिजली सहित श्याम मेघ होइथ।

४. सुन्दर विमान बड़ा शीघ्रता सँ चलल। देवता सब हर्षित भ’ गेलाह आ सब गोटे फूलक बरखा करय लगलाह। अत्यन्त सुख दयवाली तीन तरहक (शीतल, मंद, सुगंधित) हवा बहय लागल। समुद्र, पोखरि आर नदी सभक जल निर्मल भ’ गेल। चारू दिश सुन्दर सगुन होबय लागल। सभक मन प्रसन्न छैक। आकाश आर दिशा सब किछु निर्मल अछि। श्री रघुवीरजी कहलखिन – “हे सीते! रणभूमि देखू। लक्ष्मण एतहि इन्द्र केँ जितनिहार मेघनाद केँ मारने रहथि। हनुमान्‌ आर अंगद द्वारा मारल गेल ई भारी-भारी निशाचर सब रणभूमि मे पड़ल अछि। देवता आर मुनि लोकनि केँ दुःख दयवला कुंभकर्ण आर रावण दुनू भाइ एतहि मारल गेल। हम एतय पुल बन्हबेलहुँ आ सुखधाम श्री शिवजीक स्थापना सेहो कयलहुँ।” तदनन्तर कृपानिधान श्री रामजी सीताजी सहित श्री रामेश्वर महादेव केँ प्रणाम कयलनि।

५. वन मे जहाँ-तहाँ करुणा सागर श्री रामचंद्रजी निवास आ विश्राम कएने रहथि, सेहो सब स्थान प्रभु जानकीजी केँ देखबैत छथि आ ताहि सभक नाम सेहो बतबैत छथि। विमान शीघ्रहि ओतय चलि आयल जेतय परम सुन्दर दण्डकवन छल आर अगस्त्य आदि बहुते रास मुनिराज लोकनि रहैत छलथि। श्री रामजी ताहि सब स्थान मे गेलाह। सम्पूर्ण ऋषि लोकनि सँ आशीर्वाद पाबि जगदीश्वर श्री रामजी चित्रकूट पहुँचलाह। ओतय मुनि सबकेँ सन्तुष्ट कयलनि। फेर विमान ओतय सँ आगू तेजी सँ बढ़ल।

६. श्री रामजी जानकीजी केँ कलियुगक पाप सब केँ हरण करयवाली यमुनाजीक दर्शन करौलनि। फेर पवित्र गंगाजीक दर्शन करौलनि। श्री रामजी कहैत छथि – “हे सीते! हिनका प्रणाम करू। फेर तीर्थराज प्रयाग देखू, जिनकर दर्शनहि सँ करोड़ों जन्मक पाप भागि जाइत अछि। पुनः परम पवित्र त्रिवेणीजीक दर्शन करू, जे शोक सब केँ हरयवाली आ श्री हरिक परम धाम पहुँचेबाक लेल सीढ़ी समान अछि। फेर अत्यन्त पवित्र अयोध्यापुरीक दर्शन करू, जे तीनू प्रकारक ताप आ भव (आवागमनरूपी) रोग सब केँ नाश करयवाली अछि।” एना कहैत कृपालु श्री रामजी सीताजी सहित अवधपुरी केँ प्रणाम कयलनि। सजल नेत्र आ पुलकित शरीर भ’ श्री रामजी बेर-बेर हर्षित भ’ रहला अछि।

७. आब त्रिवेणी मे आबि प्रभु हर्षक संग स्नान कयलनि आ बानर सहित ब्राह्मण सब केँ अनेकों प्रकारक दान देलनि। तदनन्तर प्रभु हनुमान्‌जी केँ बुझाकय कहलखिन – “अहाँ ब्रह्मचारीक रूप धय अवधपुरी जाउ। भरत केँ हमरा सभक कुशल-समाचार सुनाउ आ हुनकर समाचार लयकय वापस आउ।” पवनपुत्र हनुमान्‌जी तुरन्त चलि देलाह।

८. तेकर बाद प्रभु भरद्वाजजी लग गेलाह। मुनि इष्ट बुद्धि सँ हुनकर अनेकों प्रकार सँ पूजा कयलनि, स्तुति कयलनि आ फेर लीलाक दृष्टि सँ आशीर्वाद देलनि। दुनू हाथ जोड़िकय मुनिक चरणक वन्दना कय प्रभु विमान पर चढ़ि आगू बढ़लाह। एम्हर जखन निषादराज सुनलनि जे प्रभु आबि गेलाह त ओ ‘नाव कतय अछि? नाव कतय अछि?’ चिकरिते लोक सब केँ बजा लेलनि। एतबहि मे विमान गंगाजीक उपरे देने लाँघिकय दोसर पार आबि गेल आ प्रभुक आज्ञा पाबिकय दोसर किनारा पर उतरि गेल। फेर सीताजी बहुते प्रकार सँ गंगाजीक पूजा कयकेँ हुनकर चरण पर खसलीह। गंगाजी मोन मे हर्षित होइत हुनका आशीर्वाद देलीह – “हे सुन्दरी! अहाँ सोहाग अखंड हो!”

९. भगवान् गंगा तट पर उतरलाह से बात सुनिते निषादराज गुह प्रेम मे विह्वल भ’ कय दौड़ि पड़लाह। परम सुख सँ परिपूर्ण भ’ कय ओ प्रभुक समीप अयलाह, श्री जानकीजी सहित प्रभु केँ देखिकय ओ आनन्द-समाधि मे मग्न भ’ कय पृथ्वी पर खसलाह, शरीरक सुधियो तक नहि रहलनि। श्री रघुनाथजी हुनकर परम प्रेम देखि हुनका हर्ष सँ उठा हृदय सँ लगा लेलनि।

१०. छंद:

लियो हृदयँ लाइ कृपा निधान सुजान रायँ रमापति।
बैठारि परम समीप बूझी कुसल सो कर बीनती॥
अब कुसल पद पंकज बिलोकि बिरंचि संकर सेब्य जे।
सुख धाम पूरनकाम राम नमामि राम नमामि ते॥१॥

सुजान लोकनिक राजा (शिरोमणि), लक्ष्मीकान्त, कृपानिधान भगवान्‌ हुनका हृदय सँ लगा लेलनि आर अत्यन्त नजदीक मे बैसाकय कुशल पुछलनि। निषादराज विनती करय लगलाह – “अपनेक जे चरणकमल ब्रह्माजी आर शंकरजी सँ सेवित अछि, तेकर दर्शन कयकेँ हम आब सकुशल छी। हे सुखधाम! हे पूर्णकाम श्री रामजी! हम अहाँ केँ नमस्कार करैत छी, नमस्कार करैत छी।”

११.

सब भाँति अधम निषाद सो हरि भरत ज्यों उर लाइयो।
मतिमंद तुलसीदास सो प्रभु मोह बस बिसराइयो॥
यह रावनारि चरित्र पावन राम पद रतिप्रद सदा।
कामादिहर बिग्यानकर सुर सिद्ध मुनि गावहिं मुदा॥२॥

सब प्रकारे छोट (तुच्छ) ओहि निषाद केँ भगवान्‌ भरतजी समान अपन हृदय सँ लगा लेलनि। तुलसीदासजी कहैत छथि – “ई मन्दबुद्धि हम मोहवश एहेन प्रभु केँ कोना बिसरि गेलहुँ! रावणक शत्रु केर ई पवित्र करयवला चरित्र सदिखन श्री रामजीक चरण मे प्रीति उत्पन्न करयवला अछि। ई कामादि विकार सब केँ हरयवला अछि आ भगवान्‌ केर स्वरूपक विशेष ज्ञान उत्पन्न करयवला अछि। देवता, सिद्ध आर मुनि आनन्दित भ’ कय ई गबैत छथि।”

“जे सुजान लोक श्री रघुवीर केर समर विजय सम्बन्धी लीला केँ सुनैत छथि, हुनका भगवान्‌ नित्य विजय, विवेक आर विभूति (ऐश्वर्य) दैत छथि। अरे मन! विचार कयकेँ देख! ई कलिकाल पाप सभक घर थिक। एहि मे श्री रघुनाथजीक नाम केँ छोड़िकय पाप सब सँ बचबाक लेल दोसर कोनो आधार नहि अछि।” 

मासपारायण, सत्ताइसम विश्राम

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने षष्ठः सोपानः समाप्तः।

कलियुग केर समस्त पाप केँ नाश करयवला श्री रामचरितमानस केर ई छठम् सोपान समाप्त भेल।

(लंकाकाण्ड समाप्त)

हरिः हरः!!