स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
देवता लोकनिक स्तुति, इंद्र केर अमृत वर्षा
पराम्बा जानकीक अग्नि परीक्षा उपरान्त….
१. देवता सब हर्षित भ’ कय फूल बरसाबय लगलाह। आकाश मे डंका बाजय लागल। किन्नर सब गीत गाबय लागल। विमान सब पर चढ़ल अप्सरा लोकनि नाचय लगलीह।
जनकसुता समेत प्रभु सोभा अमित अपार।
देखि भालु कपि हरषे जय रघुपति सुख सार॥१०९ ख॥
श्री जानकीजी सहित प्रभु श्री रामचंद्रजीक अपरिमित आर अपार शोभा देखिकय रीछ-बानर सब हर्षित भ’ गेलाह आर सुख केर धाम श्री रघुनाथजीक जयकारा लगबय लगलाह।
२. श्री रघुनाथजीक आज्ञा पाबि इंद्र केर सारथी मातलि चरण मे मस्तक नमा रथ लयकय चलि गेलाह। तदनन्तर सदाक स्वार्थी देवता सब अयलाह आ ओ सब एहेब वचन कहि रहला अछि मानू बड़ा परमार्थी होइथ।
“हे दीनबन्धु! हे दयालु रघुराज! हे परमदेव! अपने देवता सब पर बहुत दया कयलहुँ। विश्व केर द्रोह मे तत्पर एहि दुष्ट, कामी आर कुमार्ग पर चलयवला रावण अपनहि पाप सँ नष्ट भ’ गेल।
अपने समरूप, ब्रह्म, अविनाशी, नित्य, एकरस, स्वभावहि सँ उदासीन (शत्रु-मित्र-भावरहित), अखंड, निर्गुण (मायिक गुण सँ रहित), अजन्मा, निष्पाप, निर्विकार, अजेय, अमोघशक्ति (जिनकर शक्ति कहियो व्यर्थ नहि जाइछ) आर दयामय छी।
अपनहिं मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन व परशुराम केर शरीर धारण कयलहुँ। हे नाथ! जखन-जखन देवता सब दुःख पओलनि, तखन-तखन अनेकों शरीर धारण कयकेँ अपनहिं हुनका सभक दुःख केँ नाश कयलहुँ।
ई दुष्ट मलिन हृदय, देवता सभक नित्य शत्रु, काम, लोभ आर मद केर परायण तथा अत्यन्त क्रोधी छल। एहेन अधम सभक शिरोमणि सेहो अपनेक परम पद पाबि गेल। एहि बातक हमरा सभक मोन मे आश्चर्य भेल।
हम देवता श्रेष्ठ अधिकारी भइयो कय स्वार्थपरायण भ’ अपनेक भक्ति केँ बिसरि निरन्तर भवसागर केर प्रवाह (जन्म-मृत्यु केर चक्र) मे पड़ल छी। आब हे प्रभो! हम सब अपनेक शरण मे आबि गेल छी, हमरा लोकनिक रक्षा करू।”
३. विनती कयकेँ देवता आर सिद्ध सब जहाँ के तहाँ हाथ जोड़ने ठाढ़ रहला। तखन अत्यन्त प्रेम सँ पुलकित शरीर सँ ब्रह्माजी स्तुति करय लगलाह –
छंद-
जय राम सदा सुख धाम हरे। रघुनायक सायक चाप धरे॥
भव बारन दारन सिंह प्रभो। गुन सागर नागर नाथ बिभो॥१॥
तन काम अनेक अनूप छबी। गुन गावत सिद्ध मुनींद्र कबी॥
जसु पावन रावन नाग महा। खगनाथ जथा करि कोप गहा॥२॥
जन रंजन भंजन सोक भयं। गत क्रोध सदा प्रभु बोधमयं॥
अवतार उदार अपार गुनं। महि भार बिभंजन ग्यानघनं॥३॥
अज ब्यापकमेकमनादि सदा। करुनाकर राम नमामि मुदा॥
रघुबंस बिभूषन दूषन हा। कृत भूप बिभीषन दीन रहा॥४॥
गुन ध्यान निधान अमान अजं। नित राम नमामि बिभुं बिरजं॥
भुजदंड प्रचंड प्रताप बलं। खल बृंद निकंद महा कुसलं॥५॥
बिनु कारन दीन दयाल हितं। छबि धाम नमामि रमा सहितं॥
भव तारन कारन काज परं। मन संभव दारुन दोष हरं॥६॥
सर चाप मनोहर त्रोन धरं। जलजारुन लोचन भूपबरं॥
सुख मंदिर सुंदर श्रीरमनं। मद मार मुधा ममता समनं॥७॥
अनवद्य अखंड न गोचर गो। सब रूप सदा सब होइ न गो॥
इति बेद बदंति न दंतकथा। रबि आतप भिन्नमभिन्न जथा॥८॥
कृतकृत्य बिभो सब बानर ए। निरखंति तनानन सादर ए॥
धिग जीवन देव सरीर हरे। तव भक्ति बिना भव भूलि परे॥९॥
अब दीनदयाल दया करिऐ। मति मोरि बिभेदकरी हरिऐ॥
जेहि ते बिपरीत क्रिया करिऐ। दुख सो सुख मानि सुखी चरिऐ॥१०॥
खल खंडन मंडन रम्य छमा। पद पंकज सेवित संभु उमा॥
नृप नायक दे बरदानमिदं। चरनांबुज प्रेमु सदा सुभदं॥११॥
हे नित्य सुखधाम आ दु:ख केँ हरनिहार हरि! हे धनुष-बाण धारण कएने रघुनाथजी! अपनेक जय हो। हे प्रभो! अपने भव (जन्म-मरण) रूपी हाथी केँ विदीर्ण करबाक लेल सिंह समान थिकहुँ। हे नाथ! हे सर्वव्यापक! अपने गुण केर समुद्र आर परम चतुर थिकहुँ।
अपनेक शरीर अनेकों कामदेवक समान, परन्तु अनुपम छवि अछि। सिद्ध, मुनीश्वर आर कवि अपनेक गुण गबैत रहैत छथि। अपनेक यश पवित्र अछि। अपने रावणरूपी महासर्प केँ गरुड़ जेकाँ क्रोधपूर्वक पकड़ि लेलहुँ।
हे प्रभो! अपने सेवक लोकनि केँ आनन्द दयवला, शोक आर भय केँ नाश करयवला, सदा क्रोधरहित आर नित्य ज्ञान स्वरूप थिकहुँ। अपनेक अवतार श्रेष्ठ, अपार दिव्य गुण सँ पूर्ण, पृथ्वीक भार उतारयवला आर ज्ञान केर समूह थिकहुँ।
अवतार लेलो पर अपने नित्य, अजन्मा, व्यापक, एक (अद्वितीय) आर अनादि थिकहुँ। हे करुणाक खान श्रीरामजी! हम अपने केँ बड़ा हर्षक संग नमस्कार करैत छी। हे रघुकुल केर आभूषण! हे दूषण राक्षस केँ मारयवला आ समस्त दोष सब हरयवला! विभिषण दीन छल, ओकरा अपने लंकाक राजा बना देलहुँ।
हे गुण आर ज्ञान केर भंडार! हे मानरहित! हे अजन्मा, व्यापक और मायिक विकार सब सँ रहित श्रीराम! हम अपने केँ नित्य नमस्कार करैत छी। अपनेक भुजदंड केर प्रताप आ बल प्रचंड अछि। दुष्ट समूह केँ नाश करय मे अपने परम निपुण थिकहुँ।
हे बिना कारण दीन सब पर दया आ ओकर हित करयवला आर शोभाक धाम! हम श्रीजानकीजी सहित अपने केँ नमस्कार करैत छी। अपने भवसागर सँ तारयवला थिकहुँ, कारणरूपा प्रकृति आर कार्यरूप जगत दुनू सँ परे थिकहुँ आर मोन सँ उत्पन्न होयवला कठिन दोष सब केँ हरयवला थिकहुँ।
अपने मनोहर बाण, धनुष आर तरकस धारण करयवला थिकहुँ। लाल कमल केर समान रक्तवर्ण अपनेक नेत्र अछि। अपने राजा सब मे श्रेष्ठ, सुख केर मन्दिर, सुन्दर, श्री लक्ष्मीजीक वल्लभ तथा मद (अहंकार), काम आर झूठक ममता केँ नाश करयवला थिकहुँ।
अपने अनिन्द्य या दोषरहित थिकहुँ, अखंड थिकहुँ, इंद्रिय सभक विषय नहि थिकहुँ। सदा सर्वरूप होइतो अपने ओ सब कहियो भेबे नहि कयलहुँ, एना वेद कहैत अछि। ई कोनो दन्तकथा (कोरा कल्पना) नहि थिक। जेना सूर्य आ सूर्य केर प्रकाश अलग-अलग अछि आर अलग नहियो अछि, तहिना अपने संसार सँ भिन्न आ अभिन्न दुनू थिकहुँ।
हे व्यापक प्रभो! ई सब बानर कृतार्थ रूप थिक, जे आदरपूर्वक ई सब अपनेक मुंह देखि रहल अछि। आर, हे हरे! हमर अमर जीवन आर देव (दिव्य) शरीर केँ धिक्कार अछि, जे हम अपनेक भक्ति सँ रहित भेल संसार मे (सांसारिक विषय सब मे) भटकि गेल छी।
हे दीनदयालु! आब दया करू आ हमर ओहि विभेद उत्पन्न करयवाली बुद्धि केँ हरि लिय’, जाहि सँ हम विपरीत कर्म करैत छी आर जे दु:ख अछि, ओकरे सुख मानिकय आनन्द सँ विचरैत छी।
अपने दुष्ट सभक खंडन करयवला आ पृथ्वीक रमणीय आभूषण थिकहुँ। अपनेक चरणकमल श्री शिव-पार्वती द्वारा सेवित अछि। हे राजा सभक महाराज! हमरा ई वरदान दिय’ जे अपनेक चरणकमल मे सदिखन हमर कल्याणदायक (अनन्य) प्रेम हो।
एहि प्रकारे ब्रह्माजी अत्यन्त प्रेम-पुलकित शरीर सँ विनती कयलनि। शोभाक समुद्र श्रीरामजीक दर्शन करैत हुनकर नेत्र तृप्त नहि भ’ रहल छन्हि।
४. ताहि समय दशरथजी ओतय अयलाह। पुत्र (श्रीरामजी) केँ देखिकय हुनकर नेत्र मे प्रेमाश्रुक जल भरि गेलनि। छोट भाइ लक्ष्मणजी सहित प्रभु हुनकर वन्दना कयलनि आर पिता हुनका आशीर्वाद देलखिन। श्रीरामजी कहलखिन्ह – हे तात! ई सबटा अपनेक पुण्य केर प्रभाव थिक, जे हम अजेय राक्षसराज केँ जीति गेलहुँ। पुत्र केर वचन सुनिकय हुनकर प्रीति आरो बढ़ि गेलनि। नेत्र मे जल भरि गेलनि आ रोमावली ठाढ़ भ’ गेलनि।
५. श्री रघुनाथजी पहिनेक अवस्थाक (जीवितकालक) प्रेम केँ विचारिकय, पिता दिश देखिकय हुनका अपन स्वरूपक दृढ़ ज्ञान करा देलनि। शिवजी कहैत छथि – हे उमा! दशरथजी भेद-भक्ति मे अपन मोन लगेने रहथि, ताहि सँ ओ (कैवल्य) मोक्ष नहि पओलनि। मायारहित सच्चिदानंदमय स्वरूपभूत दिव्यगुणयुक्त सगुण स्वरूप केर उपासना करयवला भक्त एहि तरहक मोक्ष लैतो नहि अछि। हुनका श्रीरामजी अपन भक्ति दैत छथि। प्रभु केँ (इष्टबुद्धि सँ) बेर-बेर प्रणाम कयकेँ दशरथजी हर्षित भ’ कय देवलोक चलि गेलाह।
६. छोट भाइ लक्ष्मणजी आर जानकीजी सहित परम कुशल प्रभु श्रीकोसलाधीश केर शोभा देखिकय देवराज इंद्र मनहि मन हर्षित भ’ कय स्तुति करय लगलाह –
छंद –
जय राम सोभा धाम। दायक प्रनत बिश्राम॥
धृत त्रोन बर सर चाप। भुजदंड प्रबल प्रताप॥१॥
जय दूषनारि खरारि। मर्दन निसाचर धारि॥
यह दुष्ट मारेउ नाथ। भए देव सकल नाथ॥२॥
जय हरन धरनी भार। महिमा उदार अपार॥
जय रावनारि कृपाल। किए जातुधान बिहाल॥३॥
लंकेस अति बल गर्ब। किए बस्य सुर गंधर्ब॥
मुनि सिद्ध नर खग नाग। हठि पं सब कें लाग॥४॥
परद्रोह रत अति दुष्ट। पायो सो फलु पापिष्ट॥
अब सुनहु दीन दयाल। राजीव नयन बिसाल॥५॥
मोहि रहा अति अभिमान। नहिं कोउ मोहि समान॥
अब देखि प्रभु पद कंज। गत मान प्रद दुख पुंज॥६॥
कोउ ब्रह्म निर्गुन ध्याव। अब्यक्त जेहि श्रुति गाव॥
मोहि भाव कोसल भूप। श्रीराम सगुन सरूप॥७॥
बैदेहि अनुज समेत। मम हृदयँ करहु निकेत॥
मोहि जानिऐ निज दास। दे भक्ति रमानिवास॥८॥
छंद –
दे भक्ति रमानिवास त्रास हरन सरन सुखदायकं।
सुख धाम राम नमामि काम अनेक छबि रघुनायकं॥
सुर बृंद रंजन द्वंद भंजन मनुजतनु अतुलितबलं।
ब्रह्मादि संकर सेब्य राम नमामि करुना कोमलं॥
दोहा –
अब करि कृपा बिलोकि मोहि आयसु देहु कृपाल।
काह करौं सुनि प्रिय बचन बोले दीनदयाल।।११३।।
शोभाक धाम, शरणागत केँ विश्राम दयवला, श्रेष्ठ तरकस, धनुष और बाण धारण कएने, प्रबल प्रतापी भुज दंडवला श्रीरामचंद्रजीक जय हो!
हे खरदूषण केर शत्रु आर राक्षस सभक सेना केँ मर्दन करयवला! अपनेक जय हो!
हे नाथ! अपने एहि दुष्ट केँ मारलहुँ, जाहि सँ सब देवता सनाथ (सुरक्षित) भ’ गेलाह। हे भूमि केर भार हरनिहार! हे अपार श्रेष्ठ महिमावला! अपनेक जय हो।
हे रावणक शत्रु! हे कृपालु! अपनेक जय हो। अपने राक्षस सब केँ बेहाल (तहस-नहस) कय देलहुँ। लंकापति रावण केँ अपना बल बड बेसी घमंड रहैक। ओ देवता आर गंधर्व सब केँ अपना वश मे कय लेने रहय आ मुनि, सिद्ध, मनुष्य, पक्षी आर नाग आदि सभक पाछाँ हठपूर्वक (हाथ धोकय) पड़ि गेल छलय। ओ दोसर सँ द्रोह करय मे तत्पर आर अत्यन्त दुष्ट छल। ओ पापी तेहने फल पओलक।
आब हे दीन सब पर दया करनिहार! हे कमल केर समान विशाल नेत्रवाला! सुनू! हमरा बहुते अभिमान छल जे हमरा समान कियो नहि अछि, मुदा आब प्रभुक चरणकमल केर दर्शन कयला सँ दुःखक समूह दयवला हमर ओ अभिमान चलि गेल।
कियो ओहि निर्गुन ब्रह्म केर ध्यान करैत अछि जिनका वेद अव्यक्त (निराकार) कहैत अछि। मुदा हे रामजी! हमरा तँ अहाँक ई सगुण कोसलराज-स्वरूपे प्रिय लगैत अछि। श्रीजानकीजी आर छोट भाइ लक्ष्मणजी सहित हमर हृदय मे अपन घर बनाउ।
हे रमानिवास! हमरा अपन दास बुझि अपन भक्ति दिय’। हे रमानिवास! हे शरणागत केर भय केँ हरनिहार आर ओकरा सब प्रकारक सुख देनिहार! हमरा अपन भक्ति दिय’।
हे सुख केर धाम! हे अनेकों कामदेव केर छबिवला रघुकुल केर स्वामी श्रीरामचंद्रजी! हम अहाँ केँ नमस्कार करैत छी। हे देवसमूह केँ आनन्द दयवला, जन्म-मृत्यु, हर्ष-विषाद, सुख-दु:ख आदि द्वंद्व सबकेँ नाश करयवला, मनुष्य शरीरधारी, अतुलनीय बलवला, ब्रह्मा आर शिव आदि सँ सेवनीय, करुणा सँ कोमल श्रीरामजी! हम अहाँ केँ नमस्कार करैत छी। हे कृपालु! आब हमरा दिश कृपा कयकेँ (कृपा दृष्टि सँ) देखिकय आज्ञा दिय जे हम कि सेवा करू!
७. इंद्र केर ई प्रिय वचन सुनिकय दीनदयालु श्रीरामजी कहलखिन – हे देवराज! सुनू, हमर बानर-भालू, जेकरा निशाचर सब मारि देलक अछि, पृथ्वी पर पड़ल अछि। ई सब हमर हित लेल अपन प्राण त्यागि देलक। हे सुजान देवराज! एकरा सब केँ जिया दिय’।
८. काकभुशुण्डिजी कहैत छथि – “हे खगेश (गरुड़जी)! सुनू! प्रभुक ई वचन अत्यन्त गहन (गूढ़) अछि। ज्ञानी मुनि टा ई बुझि सकैत छथि। प्रभु श्रीरामजी त्रिलोकी केँ मारिकय जिया सकैत छथि। एतय तँ ओ केवल इंद्र केँ बड़ाई देलनि अछि।”
९. इंद्र अमृत बरसाकय बानर-भालु सब केँ जिया देलनि। सब हर्षित भ’ कय उठल आ प्रभुक लग मे आबि गेल। अमृत केर वर्षा दुनू दल पर भेलैक। मुदा रीछ-बानर टा जीवित भेल, राक्षस नहि। कियैक तँ राक्षस सभक मोन तँ मरैत काल रामाकार भ’ गेल छलैक। यानि ओ सब मुक्त भ’ गेल छल, ओकरा सभक भवबंधन छुटि गेल छलैक। मुदा बानर आर भालू तँ सब देवांश (भगवान् केर लीलाक परिकर) छल। ताहि सँ ओ सब श्रीरघुनाथजीक इच्छा सँ जीवित भ’ गेल।
१०. श्रीरामचंद्रजीक समान दीन केर हित करयवला के अछि? जे सब राक्षस सब केँ मुक्त कय देलनि! दुष्ट, पापक घर आर कामी रावण सेहो वैह गति पओलक जे श्रेष्ठ मुनियो तक नहि पबैत छथि।
११. फूल केर वर्षा कयकेँ सब देवता लोकनि सुन्दर विमान सब पर चढ़ि-चढ़िकय चललाह। तखन सुअवसर जानिकय सुजान शिवजी प्रभु श्रीरामचंद्रजी लग अयलाह आ परम प्रेम सँ दुनू हाथ जोड़िकय, कमल केर समान नेत्र मे जल भरिकय, पुलकित शरीर आर गद्गद् वाणी सँ त्रिपुरारी शिवजी विनती करय लगलाह –
छंद
मामभिरक्षय रघुकुल नायक। धृत बर चाप रुचिर कर सायक॥
मोह महा घन पटल प्रभंजन। संसय बिपिन अनल सुर रंजन॥१॥
अगुन सगुन गुन मंदिर सुंदर। भ्रम तम प्रबल प्रताप दिवाकर॥
काम क्रोध मद गज पंचानन। बसहु निरंतर जन मन कानन॥२॥
बिषय मनोरथ पुंज कुंज बन। प्रबल तुषार उदार पार मन॥
भव बारिधि मंदर परमं दर। बारय तारय संसृति दुस्तर॥३॥
स्याम गात राजीव बिलोचन। दीन बंधु प्रनतारति मोचन॥
अनुज जानकी सहित निरंतर। बसहु राम नृप मम उर अंतर॥
मुनि रंजन महि मंडल मंडन। तुलसिदास प्रभु त्रास बिखंडन॥४-५॥
दोहा
नाथ जबहिं कोसलपुरीं होइहि तिलक तुम्हार।
कृपासिंधु मैं आउब देखन चरित उदार ॥११५॥
हे रघुकुल केर स्वामी! सुन्दर हाथ मे श्रेष्ठ धनुष आर सुन्दर बाण धारण कएने अपने हमर रक्षा करू। अपने महामोहरूपी मेघसमूह केँ उड़ेबाक लेल प्रचंड पवन थिकहुँ, संशयरूपी वन केँ भस्म करबाक लेल अग्नि थिकहुँ आर देवता सबकेँ आनन्द दयवला थिकहुँ।
अपने निर्गुण, सगुण, दिव्य गुण केर धाम आर परम सुन्दर छी। भ्रमरूपी अंधकार केँ नाश करबाक लेल प्रबल प्रतापी सूर्य छी। काम, क्रोध आ मदरूपी हाथी सब केँ वध करबाक लेल सिंह समान अपने एहि सेवक केर मनरूपी वन मे निरन्तर वास करू।
विषयकामना सभक समूहरूपी कमलवन केँ नाश करबाक लेल अपने प्रबल पाला थिकहुँ, अपने उदार आर मन सँ परे छी। भवसागर केँ मथबाक लेल अहाँ मंदराचल पर्वत छी। अपने हमर परम भय केँ दूर करू आ हमरा दुस्तर संसार सागर सँ पार करू।
हे श्यामसुंदर-शरीर! हे कमलनयन! हे दीनबंधु! हे शरणागत केँ दु:ख सँ छोड़ेनिहार! हे राजा रामचंद्रजी! अपने छोट भाइ लक्ष्मण आर जानकीजी सहित निरन्तर हमर हृदयक अन्दर निवास करू।
अपने मुनि लोकनि केँ आनन्द दयवला, पृथ्वीमंडल केर भूषण, तुलसीदास केर प्रभु आर भय केँ नाश करयवला थिकहुँ। हे नाथ! जखन अयोध्यापुरी मे अहाँक राजतिलक होयत, तखन हे कृपासागर! हम अहाँ उदार लीला देखय आयब।
हरिः हरः!!