रामचरितमानस मोतीः हनुमान्‌जीक सीताजी केँ कुशल सुनेनाय, सीताजीक आगमन आर अग्नि परीक्षा

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

हनुमान्‌जीक सीताजी केँ कुशल सुनेनाय, सीताजीक आगमन आर अग्नि परीक्षा

विभीषणक राज्याभिषेक उपरान्त….

१. प्रभु हनुमान्‌जी केँ बजौलनि। भगवान्‌ कहलखिन – अहाँ लंका जाउ। जानकी केँ सब समाचार सुनाउ आर हुनकर कुशल समाचार लय कय अहाँ चलि आउ। हनुमान्‌जी नगर मे गेलाह। ई सुनि राक्षस-राक्षसी हुनकर सत्कार वास्ते दौड़ि पड़ल। ओ सब अनेकों तरहें हनुमान्‌जीक पूजा कयलक आर फेर श्री जानकीजी लग लयकय पहुँचल। हनुमान्‌जी सीताजी केँ दूरहि सँ प्रणाम कयलनि।

२. जानकीजी चिन्हि गेलीह जे ई वैह श्री रघुनाथजीक दूत छथि आर पुछलीह – हे तात! कहू, कृपाक धाम हमर प्रभु छोट भाइ आर बानर सभक सेना सहित कुशल सँ त छथि? हनुमान्‌जी कहलखिन – हे माता! कोसलपति श्री रामजी सब प्रकारे सकुशल छथि। ओ संग्राम मे दस गोट माथ वला रावण केँ जीति लेलनि अछि आ विभीषण अचल राज्य प्राप्त कयलनि अछि। हनुमान्‌जीक वचन सुनिकय सीताजीक हृदय मे हर्षक ठेकान नहि रहि गेलनि।

३. छंद:

अति हरष मन तन पुलक लोचन सजल कह पुनि पुनि रमा।
का देउँ तोहि त्रैलोक महुँ कपि किमपि नहिं बानी समा॥
सुनु मातु मैं पायो अखिल जग राजु आजु न संसयं।
रन जीति रिपुदल बंधु जुत पस्यामि राममनामयं॥

श्री जानकीजीक हृदय मे अत्यन्त हर्ष भेलनि। हुनकर शरीर पुलकित भ’ गेलनि आर नेत्र मे आनन्दाश्रुक जल भरि गेलनि। ओ बेर-बेर कहैत छथि – हे हनुमान्‌! हम अहाँ केँ कि दी? एहि वाणी (समाचार) केर समान तीनू लोक मे आर किछु नहि! हनुमान्‌जी कहलखिन – हे माता! सुनू, हम आइ निःसंदेह भरि जगत्‌ केर राज्य पाबि लेलहुँ जे हम रण मे शत्रु केँ जीतिकय भाइ सहित निर्विकार श्री रामजी केँ देखि रहल छी।

४. जानकीजी कहलखिन – “हे पुत्र! सुनू, समस्त सद्गुण अहाँक हृदय मे बसय आर हे हनुमान्‌! शेष (लक्ष्मणजी) सहित कोसलपति प्रभु सदा अहाँ पर प्रसन्न रहथि। हे तात! आब अहाँ वैह उपाय करू जाहि सँ हम अपन आँखि सँ प्रभुक कोमल श्याम शरीरक दर्शन करी।”

५. तखन श्री रामचंद्रजी लग जाय हनुमान्‌जी जानकीजीक कुशल समाचार सुनौलनि। सूर्य कुलभूषण श्री रामजी सन्देश सुनिकय युवराज अंगद आर विभीषण केँ बजा लेलनि आ कहलनि – “पवनपुत्र हनुमान्‌ संग जाउ आ जानकी केँ आदर सहित लय आनू।”

६. ओ सब गोटे तुरन्त ओतय गेलाह जतय सीताजी छलीह। सब राक्षसी लोकनि नम्रतापूर्वक हुनकर सेवा कय रहल छल। विभीषणजी शीघ्रहि हुनका सब केँ बुझा देलनि। ओ सब खूब बढियाँ सँ सीताजी केँ स्नान करौलक, बहुते प्रकारक गहना पहिरौलक आर फेर ओ सब एक गोट सुन्दर सनक माफा (पालकी) सजाकय आनि लेलक। सीताजी प्रसन्न भ’ कय सुख केर धाम प्रियतम श्री रामजीक स्मरण करैत ओहि पर हर्षक संग चढ़ि गेलीह।

७. चारू दिश हाथ मे छड़ी लेने रक्षक सब चलल। सभक मोन मे परम उल्लास छैक। रीछ-बानर सब दर्शन करबाक लेल आयल त रक्षक सब ओकरा लोकनि केँ रोकबाक लेल दौड़ल। श्री रघुवीर कहलखिन – “हे मित्र! हमर कहब मानू आ सीता केँ पैदल लय आनू, जाहि सँ बानर सब हुनका माता सदृश देखि सकय।” गोसाईं श्री रामजी हँसिकय एना कहलखिन।

८. प्रभुक वचन सुनिकय रीछ-बानर सब हर्षित भ’ गेल। आकाश सँ देवता सब खूबे रास फूल बरसौलनि। सीताजी केर असल स्वरूप केँ पहिनहि अग्नि मे राखल गेल छल। आब भीतर के साक्षी भगवान्‌ हुनका प्रकट करय चाहैत छथि। ताहि कारण करुणाक भंडार श्री रामजी लीला सँ किछ कड़ा वचन कहलनि, जे सुनिकय सब राक्षसी सब विषाद करय लगलीह।

९. प्रभुक वचन केँ माथ पर राखि मन, वचन आर कर्म सँ पवित्र श्री सीताजी बजलीह – “हे लक्ष्मण! अहाँ हमर धर्म केर सहयोगी (धर्माचरण मे सहायक) बनू आर तुरन्त अग्नि तैयार करू।” श्री सीताजीक विरह, विवेक, धर्म आर नीति सँ सनल वाणी सुनिकय लक्ष्मणजीक आँखि मे (विषादक नोर केर) जल भरि गेलनि। ओ हाथ जोड़ि ठाढ़ रहला। ओहो प्रभु सँ किछु नहि कहि सकैत छलथि।

१०. तखन श्री रामजीक रुइख देखि लक्ष्मणजी दौड़लाह आर आइग तैयार करय लेल बहुते रास लकड़ी आनि लेलनि। अग्नि केँ खूब धधकैत देखिकय जानकीजीक हृदय मे हर्ष भेलनि, हुनका कनिकबो भय नहि भेलनि। सीताजी लीलापूर्वक कहलीह – “यदि मन, वचन आर कर्म सँ हमर हृदय मे श्री रघुवीर केँ छोड़िकय दोसर गति (आन केकरहु आश्रय) नहि अछि, तँ अग्निदेव, जे सभक मनक गति जनैत छथि, हमरहु मोनक गति केँ जानिकय हमरा चन्दन समान शीतल भ’ जाइथ।”

११. छंद:

श्रीखंड सम पावक प्रबेस कियो सुमिरि प्रभु मैथिली।
जय कोसलेस महेस बंदित चरन रति अति निर्मली॥
प्रतिबिंब अरु लौकिक कलंक प्रचंड पावक महुँ जरे।
प्रभु चरित काहुँ न लखे नभ सुर सिद्ध मुनि देखहिं खरे॥१॥

प्रभु श्री रामजी केँ स्मरण कयकेँ आर जिनकर चरण महादेवजी द्वारा वंदित अछि, आर जिनका मे सीताजीक अत्यन्त विशुद्ध प्रीति अछि, ताहि कोसलपति केर जयकार करैत जानकीजी चन्दन समान शीतल भेल अग्नि मे प्रवेश कयलीह। प्रतिबिम्ब (सीताजीक छायामूर्ति) आर हुनक लौकिक कलंक प्रचण्ड अग्नि मे जरि गेलनि। प्रभुक एहि चरित्र केँ कियो नहि बुझि सकल। देवता, सिद्ध आर मुनि सब आकाश मे ठाढ़ देखिते रहि गेलाह।

धरि रूप पावक पानि गहि श्री सत्य श्रुति जग बिदित जो।
जिमि छीरसागर इंदिरा रामहि समर्पी आनि सो॥
सो राम बाम बिभाग राजति रुचिर अति सोभा भली।
नव नील नीरज निकट मानहुँ कनक पंकज की कली॥2॥

तखन अग्नि शरीर धारण कयकेँ वेद मे आर जगत्‌ मे प्रसिद्ध वास्तविक श्री सीताजी केर हाथ पकड़ि हुनका श्री रामजी केँ ओहिना समर्पित कयलनि जेना क्षीरसागर विष्णु भगवान्‌ केँ लक्ष्मी समर्पित कएने रहथि। ओ सीताजी श्री रामचंद्रजीक वाम भाग मे विराजित भेलीह। हुनकर उत्तम शोभा अत्यन्ते सुन्दर छन्हि। मानू नव खिलल नीलकमल केर पास सोनाक कमल केर कली सुशोभित हो।

हरिः हरः!!