स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
रावणक मूर्च्छा टूटब, राम-रावण युद्ध, रावण वध, सर्वत्र जयध्वनि
प्रसंग राम-रावण युद्ध मे सीता लग त्रिजटा द्वारा युद्ध वर्णन तथा सीता केँ शुभ शकुन बाम अंग फरकय लागब – प्रसंग निरन्तरता मे….
१. एम्हर आधा राति रावण मूर्च्छा सँ जागल आर अपन सारथी पर रुष्ट होइत बाजय लागल – अरे मूर्ख! तूँ हमरा रणभूमि सँ अलग कय देलें। अरे अधम! अरे मंद बुद्धि! तोरा धिक्कार छौक, धिक्कार छौक! सारथि चरण पकड़िकय रावण केँ अनेकों प्रकार सँ समझेलक। भोर होइत ओ रथ पर चढ़िकय फेर दौड़ल।
२. रावण केर आयब सुनिकय बानरक सेना मे बहुते खलबली मचि गेल। ओ भारी योद्धा जहाँ-तहाँ सँ पर्वत आ गाछ सब उखाड़िकय क्रोध सँ दाँत कटकटबैत दौड़ल।
छंद :
धाए जो मर्कट बिकट भालु कराल कर भूधर धरा।
अति कोप करहिं प्रहार मारत भजि चले रजनीचरा॥
बिचलाइ दल बलवंत कीसन्ह घेरि पुनि रावनु लियो।
चहुँ दिसि चपेटन्हि मारि नखन्हि बिदारि तन ब्याकुल कियो॥
विकट आर विकराल बानर-भालू हाथ मे पर्वत लेने दौड़ल। ओ सब बहुत क्रोध कयकेँ प्रहार करैत अछि। ओकरा सभक मारला सँ राक्षस भागि चलल। बलवान् बानर सब शत्रुक सेना केँ विचलित कयकेँ फेर रावण केँ सेहो घेरि लेलक। चारू दिश सँ चपेटा मारिकय आ नह सँ नोंचिकय बानर सब ओकरो व्याकुल कय देलक।
३. बानर सब केँ अपना पर भारी देखिकय रावण विचार कयलक आ अन्तर्धान भ’ कय क्षणहि भरि मे माया पसारलक।
छंद :
जब कीन्ह तेहिं पाषंड। भए प्रगट जंतु प्रचंड॥
बेताल भूत पिसाच। कर धरें धनु नाराच॥१॥
जखन ओ पाखंड (माया) रचलक, तखन भयंकर जीव सब प्रकट भ’ गेलैक। बेताल, भूत आ पिशाच सब हाथ मे धनुष-बाण लेने प्रकट भेल!
जोगिनि गहें करबाल। एक हाथ मनुज कपाल॥
करि सद्य सोनित पान। नाचहिं करहिं बहु गान॥२॥
योगिनि सब सेहो एक हाथ मे तलवार आर दोसर हाथ मे मनुष्यक खोपड़ी लेने ताजा खून पिबिकय नाचय आ तरह-तरह के गीत सब गाबय लागल।
धरु मारु बोलहिं घोर। रहि पूरि धुनि चहुँ ओर॥
मुख बाइ धावहिं खान। तब लगे कीस परान॥३॥
ओ सब ‘पक़ड़, मार’ आदि घोर शब्द बाजि रहल अछि। चारू दिश यैह आवाज भरि गेल अछि। ओ सब मुंह खोलिकय खाय लेल दौड़ैत अछि। तखन बानर सब भागय लागल।
जहँ जाहिं मर्कट भागि। तहँ बरत देखहिं आगि॥
भए बिकल बानर भालु। पुनि लाग बरषै बालु॥४॥
३. बानर सब भागिकय जेम्हरहि जाइत अछि, ओतहि आगि जरैत देखैत अछि। बानर-भालू व्याकुल भ’ गेल। फेर रावण बाउल बरसाबय लागल।
जहँ तहँ थकित करि कीस। गर्जेउ बहुरि दससीस॥
लछिमन कपीस समेत। भए सकल बीर अचेत॥५॥
बानर केँ जहाँ-तहाँ थकित (शिथिल) कय रावण फेर गरजल। लक्ष्मणजी आर सुग्रीव सहित सब वीर अचेत भ’ गेल।
हा राम हा रघुनाथ। कहि सुभट मीजहिं हाथ॥
ऐहि बिधि सकल बल तोरि। तेहिं कीन्ह कपट बहोरि॥६॥
हा राम! हा रघुनाथ! चिकरिते श्रेष्ठ योद्धा अपन हाथ मलैत (पछताइत) अछि।
५. एहि प्रकारे सभक बल केँ तोड़िकय रावण फेर दोसर माया रचलक।
प्रगटेसि बिपुल हनुमान। धाए गहे पाषान॥
तिन्ह रामु घेरे जाइ। चहुँ दिसि बरूथ बनाइ॥७॥
ओ बहुते रास हनुमान् प्रकट कयलक, जे पत्थर लेने दौड़ल। ओ सब चारू दिश दल बनाकय श्री रामचंद्रजी केँ जा कय घेरि लेलक।
मारहु धरहु जनि जाइ। कटकटहिं पूँछ उठाइ॥
दहँ दिसि लँगूर बिराज। तेहिं मध्य कोसलराज॥८॥
ओ सब पूँछ उठाकय कटकटाइते बाजय लागल, ‘मार, पकड़, भागि नहि पाबउ’। ओहि लंगूर सभक पूँछ दसो दिशा मे देखाय दय रहल अछि आ ताहि बीच मे कोसलराज श्री रामजी छथि।
६. छंद :
तेहिं मध्य कोसलराज सुंदर स्याम तन सोभा लही।
जनु इंद्रधनुष अनेक की बर बारि तुंग तमालही॥
प्रभु देखि हरष बिषाद उर सुर बदत जय जय जय करी।
रघुबीर एकहिं तीर कोपि निमेष महुँ माया हरी॥१॥
ओकरा सभक बीच मे कोसलराज केर सुन्दर श्याम शरीर एना शोभा पाबि रहल अछि, मानू विशाल तमाल केर गाछ लेल अनेकों इन्द्रधनुष सभक घेरा बनायल गेल हो। प्रभु केँ देखि देवता हर्ष आर विषादयुक्त हृदय सँ ‘जय, जय, जय’ बाजय लगलाह। फेर श्री रघुवीर क्रोध कयकेँ एक्कहि टा बाण मे निमेषमात्र मे रावणक सबटा माया हरि लेलनि।
माया बिगत कपि भालु हरषे बिटप गिरि गहि सब फिरे।
सर निकर छाड़े राम रावन बाहु सिर पुनि महि गिरे॥
श्रीराम रावन समर चरित अनेक कल्प जो गावहीं।
सत सेष सारद निगम कबि तेउ तदपि पार न पावहीं॥२॥
७. माया दूर भ’ गेला उपरान्त बानर-भालू सब हर्षित भ’ गेल आ गाछ एवं पाथर (पर्वत) लय-लयकय सब घुमि आयल युद्ध मे। श्री रामजी बाणक समूह छोड़लनि, जाहि सँ रावणक हाथ आर मूरी फेरो कटि-कटिकय पृथ्वी पर खसि पड़ल। श्री रामजी आर रावणक युद्ध केर चरित्र यदि सैकड़ों शेष, सरस्वती, वेद आर कवि अनेकों कल्प धरि गबैत रहता तैयो ओकर पार नहि पाबि सकैत छथि।
वैह चरित्र केर किछु गुणगण मंदबुद्धि तुलसीदास कहैत छथि, जेना माछी सेहो अपन पुरुषार्थ अनुसार आकाश मे उड़ैत अछि।
८. हाथ आ माथ सब बहुतो बेर काटल गेलैक। तैयो वीर रावण मरैत नहि अछि। प्रभु त खेल कय रहल छथि, मुदा मुनि, सिद्ध आ देवता ओहि क्लेश केँ देखिकय (प्रभु केँ क्लेश पबैत बुझि) व्याकुल छथि।
९. रावणक मूरी काटिते फेर सँ मूरीक समूह बढ़ि जाइत छैक, जेना प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ैत छैक। शत्रु मरैत नहि अछि आ परिश्रम सेहो काफी भ’ रहल अछि। तखन श्री रामचंद्रजी विभीषण दिश तकलाह।
१०. शिवजी कहैत छथि – “हे उमा! जिनकर इच्छा मात्र सँ कालहु मरि जाइत अछि, वैह प्रभु सेवक केर प्रीतिक परीक्षा लय रहल छथि।” विभीषणजी कहलखिन – “हे सर्वज्ञ! हे चराचर केर स्वामी! हे शरणागत केर पालन करनिहार! हे देवता आर मुनि लोकनि केँ सुख देनिहार! सुनू – एकर नाभिकुंड मे अमृत केर निवास छैक। हे नाथ! रावण ओकरहि बल पर जिबैत अछि।”
११. विभीषणक वचन सुनिते कृपालु श्री रघुनाथजी हर्षित होइत हाथ मे विकराल बाण लेलनि। ताहि समय नाना प्रकारक अपशकुन होबय लागल। बहुते रास गदहा, स्यार आर कुत्ता सब कानय लागल। भरि जगत् के दुःख (अशुभ) केँ सूचित करबाक लेल चिड़ियाँ सब सेहो बाजय चहचहाय-चिचियाय लागल। आकाश मे जहाँ-तहाँ केतु (पुच्छल तारा) प्रकट भ’ गेल। दस दिशा मे धाह दियए लागल (मानू आगि लागि गेल हो), बिना योग के सूर्यग्रहण लागय लागल। मन्दोदरीक हृदय बहुते काँपय लगलैक। मूर्ति सब सेहो नेत्र मार्ग सँ जल बहबय लागल।
१२. छंद :
प्रतिमा रुदहिं पबिपात नभ अति बात बह डोलति मही।
बरषहिं बलाहक रुधिर कच रज असुभ अति सक को कही॥
उतपात अमित बिलोकि नभ सुर बिकल बोलहिं जय जए।
सुर सभय जानि कृपाल रघुपति चाप सर जोरत भए॥
मूर्ति सब कानय लागल, आकाश सँ वज्रपात होमय लागल, अत्यन्त प्रचण्ड वायु बहय लागल, पृथ्वी हिलय लागल, बादल रक्त, केश आ धुरा केर वर्षा करय लागल। एहि प्रकारे एतबा बेसी अमंगल होमय लागल जे ओकर वर्णन कियो नहि कय सकैत अछि।
१३. अपरिमित उत्पात देखिकय आकाश मे देवता व्याकुल भ’ कय जय-जय पुकारय लगलाह। देवता सब केँ भयभीत जानि कृपालु श्री रघुनाथजी धनुष पर बाण सन्धान करय लगलाह। कान तक धनुष केँ खींचिकय श्री रघुनाथजी एकतीस गोट बाण छोड़लनि। ओ श्री रामचंद्रजीक बाण सब एना चलल मानू कालसर्प हो। एक बाण नाभि केर अमृत कुंड केँ सोखि लेलक। अन्य तीस बाण कोप कयकेँ ओकर माथ (मूरी) आ हाथ मे लागल। से बाण माथ आ हाथ सब केँ लयकय चलल।
१४. मुण्ड आ हाथ सँ रहित रुण्ड (धड़) पृथ्वी पर नाचय लागल। धड़ प्रचण्ड वेग सँ दौड़ैत अछि, जाहि सँ धरती धँसय लागल। तखन प्रभु बाण मारिकय ओकरो दुइ टुकड़ा कय देलखिन। मरैत समय बड़ा घोर शब्द सँ गरजिकय बाजल – “राम कतय छथि? हम ललकारिकय हुनका युद्ध मे मारी!” रावण केर खसिते पृथ्वी हिल गेल। समुद्र, नदी, दिशा सभक हाथी आर पर्वत क्षुब्ध भ’ उठल। रावणक धड़ केर दुनू टुकड़ा पसरिकय भालू आ बानर सभक समुदाय केँ दबबिते पृथ्वी पर खसि पड़ल।
१५. रावण केर हाथ आ माथ सब मन्दोदरीक सामने राखिकय रामबाण ओतय चलल जेतय जगदीश्वर श्री रामजी रहथि। सब बाण जाकय तरकस मे प्रवेश कय गेल। से देखिकय देवता लोकनि नगाड़ा बजौलनि। रावणक तेज प्रभुक मुख मे समा गेल। से देखिकय शिवजी आर ब्रह्माजी हर्षित भेलाह। ब्रह्माण्ड भरि मे जय-जय केर ध्वनि भरि गेल। प्रबल भुजदण्डवाला श्री रघुवीर केर जय हो। देवता और मुनि लोकनिक समूह फूल बरसाबैत छथि आर कहैत छथि – कृपालु केर जय हो, मुकुन्द केर जय हो, जय हो!
छंद :
जय कृपा कंद मुकुंद द्वंद हरन सरन सुखप्रद प्रभो।
खल दल बिदारन परम कारन कारुनीक सदा बिभो॥
सुर सुमन बरषहिं हरष संकुल बाज दुंदुभि गहगही।
संग्राम अंगन राम अंग अनंग बहु सोभा लही॥१॥
हे कृपा केर कंद! हे मोक्षदाता मुकुन्द! हे (राग-द्वेष, हर्ष-शोक, जन्म-मृत्यु आदि) द्वंद्व सब केँ हरनिहार! हे शरणागत केँ सुख देनिहार प्रभो! हे दुष्ट दल केँ विदीर्ण करनिहार! हे कारणहु केर परम कारण! हे सदा करुणा करनिहार! हे सर्वव्यापक विभो! अपनेक जय हो। देवता हर्ष मे भरल पुष्प बरसाबैत छथि, घमाघम नगाड़ा बाजि रहल अछि। रणभूमि मे श्री रामचंद्रजीक अंग सब बहुते रास कामदेव जेकाँ शोभा प्राप्त कयलक।
सिर जटा मुकुट प्रसून बिच बिच अति मनोहर राजहीं।
जनु नीलगिरि पर तड़ित पटल समेत उडुगन भ्राजहीं॥
भुजदंड सर कोदंड फेरत रुधिर कन तन अति बने।
जनु रायमुनीं तमाल पर बैठीं बिपुल सुख आपने॥२॥
माथ पर जटा केर मुकुट अछि, जेकर बीच मे अत्यन्त मनोहर पुष्प शोभा दय रहल अछि। मानू नील पर्वत पर बिजलीक समूह सहित नक्षत्र सुशोभित भ’ रहल अछि। श्री रामजी अपन भुजदण्ड सँ बाण आर धनुष नचा रहल छथि। शरीर पर रुधिर केर कण अत्यन्त सुन्दर लगैत छन्हि। मानू तमाल केर वृक्ष पर बहुते रास ललमुनियाँ चिड़ियाँ अपन महान् सुख मे मग्न होइत निश्चल बैसल हुए। प्रभु श्री रामचंद्रजी कृपा दृष्टि केर वर्षा कयकेँ देव समूह केँ निर्भय कय देलनि। बानर-भालू सब हर्षित भेल आर सुखधाम मुकुन्द केर जय हो, एना नारा लगबय लागल।
हरिः हरः!!