स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
इंद्र केर श्री रामजीक वास्ते रथ पठायब, राम-रावण युद्ध
पैछला अध्याय मे राम-रावण युद्ध निरन्तरता मे आगू….
१. देवता लोकनि प्रभु श्री रामजी केँ पैदले (बिना सवारीक युद्ध करैत) देखलनि त हुनका सभक हृदय मे भारी क्षोभ (दुःख) भेलनि। फेर कि छल! इंद्र तुरन्त अपन रथ पठा देलथि। ओकर सारथी मातलि हर्ष सँ ओतप्रोत भ’ रथ ओतय आनि लेलक। ओहि दिव्य, अनुपम आर तेजक पुंज (तेजोमय) रथ पर कोसलपुरीक राजा श्री रामचंद्रजी हर्षित भ’ कय चढ़लाह। ओहि मे चारि गोट चंचल, मनोहर, अजर, अमर आ मनक गति समान शीघ्र चलयवला देवलोकक घोड़ा जोतल गेल छल।
२. श्री रघुनाथजी केँ रथ पर चढ़ल देखि बानर सब विशेष बल पाबिकय दौड़ल। बानर सभक मारि सहल नहि जाइछ। तखन रावण माया पसारलक। एकटा श्री रघुवीर टा केँ मात्र ओ माया नहि लगलनि। बाकी समस्त बानर आ लक्ष्मणजी सेहो ओहि माया केँ सच मानि लेलनि। बानर सब राक्षसी सेना मे भाइ लक्ष्मण सहित बहुते रास राम केँ देखलन्हि।
छंद :
बहु राम लछिमन देखि मर्कट भालु मन अति अपडरे।
जनु चित्र लिखित समेत लछिमन जहँ सो तहँ चितवहिं खरे॥
निज सेन चकित बिलोकि हँसि सर चाप सजि कोसलधनी।
माया हरी हरि निमिष महुँ हरषी सकल मर्कट अनी॥
बहुते रास राम-लक्ष्मण देखिकय बानर-भालू मोन मे मिथ्या डर सँ बहुते डरा गेल। लक्ष्मणजी सहित ओ बानर सब मानू चित्र लिखल जेकाँ जतय छल ओतहि ठाढ़ भ’ गेल। अपन सेना केँ आश्चर्यचकित देखि कोसलपति भगवान् हरि (दुःख केँ हरयवला श्री रामजी) हँसिकय धनुष पर बाण चढ़ा, पलहि भरि मे सबटा माया हरि लेलनि। बानर सभक सम्पूर्ण सेना खूब हर्षित भ’ उठल।
३. श्री रामजी सभक दिश ताकिकय गम्भीर वचन बजलाह – “हे वीर सब! अहाँ लोकनि बहुते थाकि गेल छी, तेँ आब हमर आ रावणक द्वंद्व युद्ध देखू।” एतेक कहिकय श्री रघुनाथजी ब्राह्मण सभक चरणकमल मे सिर नमौलनि आ फेर रथ चलौलनि। आब रावणक हृदय मे क्रोध आबि गेलैक आ ओ गरजैत-ललकारैत सामने दिश दौड़ल। ओ कहैत छन्हि – “अरे तपस्वी! सुने, तूँ युद्ध मे जाहि योद्धा सब केँ जितलें हँ, हम ओकरा सब जेकाँ नहि छी। हमर नाम रावण अछि, हमर यश समूचा संसार जनैत अछि। लोकपाल तक जेकर कैदखाना मे पड़ल छथि। तूँ खर, दूषण आर विराध केँ मारलें! बेचारे बालि केँ त व्याध जेकाँ वध कयलें। बड़का-बड़का राक्षस योद्धा सभक समूह केँ संहार कयलें आ कुंभकर्ण तथा मेघनाद केँ सेहो मारि देलें। अरे राजा! जँ तूँ रण सँ भागि नहि गेलें त आइ हम सबटा दुश्मनी निकालि लेबौक। आइ तोरा निश्चय टा काल केँ सौंपि देबौक। तूँ दुरूह रावण के पल्ला पड़ि गेलें।”
४. रावणक दुर्वचन सुनिकय आ ओकरा कालवश जानि कृपानिधान श्री रामजी हँसिकय ई वचन कहलखिन – “तोहर सबटा प्रभुता (बुधियारी), जेना तूँ कहैत छँ, बिल्कुल सच छौक। मुदा आब व्यर्थ बकवाद नहि करे, अपन पुरुषार्थ देखा।”
छंद :
जनि जल्पना करि सुजसु नासहि नीति सुनहि करहि छमा।
संसार महँ पूरुष त्रिबिध पाटल रसाल पनस समा॥
एक सुमनप्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहीं।
एक कहहिं कहहिं करहिं अपर एक करहिं कहत न बागहीं॥
“व्यर्थ बकवाद कयकेँ अपन सुन्दर यश केँ नाश नहि करे। क्षमा करिहें, तोरा नीति सुनबैत छी, सुने! संसार मे तीन प्रकारक पुरुष होइत अछि – पाटल (गुलाब), आम आर कटहर जेकाँ। एकटा (पाटल) फूल दैत अछि, एक (आम) फूल और फल दुनू दैत अछि, एक (कटहर) मे केवल फल टा लगैत छैक। तहिना पुरुष सब मे एकटा कहैत छैक, दोसर कहैत आ करैत दुनू अछि आ एकटा तेसरका खाली करैत त अछि मुदा वाणी सँ किछु नहि कहैत अछि।”
५. श्री रामजीक वचन सुनिकय रावण खूबे हँसल आ बाजल – “हमरा ज्ञान सिखबैत छँ? ताहि समय वैर करैत त डरेलें नहि, आब प्राण बेसी प्रिय लागि रहल छौक?” दुर्वचन कहिकय रावण क्रुद्ध होइत वज्र समान बाण छोड़य लागल। अनेकों आकारक बाण दौड़ल आ दिशा, विदिशा आ आकाश तथा पृथ्वी, सब ठाम छा गेलैक। श्री रघुवीर अग्निबाण छोड़लनि जाहि सँ रावणक छोड़ल ओ सारा धनुष क्षणहि भरि मे भस्म भ’ गेलैक। तखन ओ खिसियाकय तीक्ष्ण शक्ति छोड़लक, मुदा श्री रामचंद्रजी ओकरा अपन बाण के संग वापस पठा देलखिन्ह।
६. रावण करोड़ों चक्र आ त्रिशूल चलबैत अछि मुदा से सबटा बिना परिश्रमहि केँ श्री रामजी काटिकय हंटा दैत छथिन। रावणक बाण कोन प्रकारे निष्फल होइत अछि, जेना दुष्ट मनुष्यक सबटा मनोरथ! फेर ओ श्री रामजीक सारथी केँ सौ बाण मारलक। ओहो श्री रामजीक जय पुकारैत पृथ्वी पर खसि पड़ल। श्री रामजी कृपा कयकेँ सारथी केँ उठौलनि। आब प्रभु बहुत बेसी क्रोधित भ’ गेलाह।
छंद :
भए क्रुद्ध जुद्ध बिरुद्ध रघुपति त्रोन सायक कसमसे।
कोदंड धुनि अति चंड सुनि मनुजाद सब मारुत ग्रसे॥
मंदोदरी उर कंप कंपति कमठ भू भूधर त्रसे।
चिक्करहिं दिग्गज दसन गहि महि देखि कौतुक सुर हँसे॥
युद्ध मे शत्रुक विरुद्ध श्री रघुनाथजी क्रोधित भेलाह, तखन तरकस मे बाण कसमसाय लागलन्हि, बाहर निकलबाक लेल आतुर होबय लगलन्हि। हुनकर धनुष केर अत्यन्त प्रचण्ड शब्द (टंकार) सुनिकय मनुष्यभक्षी सब राक्षस वातग्रस्त भ’ गेल, सब कियो अत्यन्त भयभीत भ’ गेल। मंदोदरीक हृदय काँपि उठलैक, समुद्र, कच्छप, पृथ्वी और पर्वत सब डरा गेल। दिशा सभक हाथी पृथ्वी केँ दाँत सँ पकड़िकय चिग्घाड़य लागल। ई सब तमाशा देखिकय देवता लोकनि हँसलाह।
७. धनुष केँ कानतक तानिकय श्री रामचंद्रजी भयानक बाण छोड़लन्हि। श्री रामजीक बाण समूह एना चलल मानू साँप लहराइत चलि रहल हो। पहिने सारथी आ घोड़ा केँ मारि देलखिन। रथ केँ चूर-चूर कयकेँ ध्वजा आ पताका सबटा गिरा देलखिन। ताहि पर रावण बड जोर सँ गरजल, मुदा भीतर सँ ओकर बल थाकि गेल छलैक। तुरन्त दोसर रथ पर चढ़िकय खिसियाकय ओ नाना प्रकारक अस्त्र-शस्त्र छोड़लक।
८. ओकर सबटा उद्योग ओहिना निष्फल भ’ गेलैक, जेना परद्रोह मे लागल चित्तवला मनुष्यक होइत छैक। तखन रावण दस त्रिशूल चलेलक आ श्री रामजीक चारू घोड़ा केँ मारिकय पृथ्वी पर खसा देलक। घोड़ा सब केँ उठाकय श्री रघुनाथजी क्रोधपूर्वक धनुष खिंचिकय बाण छोड़लनि। रावणक सिररूपी कमल वन मे विचरण करयवला श्री रघुवीर केर बाणरूपी भ्रमर केर पंक्ति चलल। श्री रामचंद्रजी ओकर दसो सिर मे दस-दस बाण मारलनि, जे आर-पार भ’ गेलैक आ सिर सब सँ रक्तक धारा बहय लगलैक। रुधिर बहिते अवस्था मे बलवान् रावण दौड़ल। प्रभु फेरो धनुष पर बाण संधान कयलनि। श्री रघुवीर तीस बाण मारलनि आ बीसो हाथ समेत दसो माथ काटिकय पृथ्वी पर खसा देलनि।
९. माथ आ हाथ काटिते फेर नवका आबि गेलैक। श्री रामजी फेर सबटा हाथ आ माथ केँ काटि खसौलनि। एहि तरहें प्रभु बेर-बेर आ बहुतो बेर हाथ आ माथ कटलखिन, लेकिन काटिते देरी ओ तुरन्त नवका भ’ गेल करैक। प्रभु बेर-बेर ओकर हाथ आ माथ केँ काटि रहल छथि, कियैक तँ कोसलपति श्री रामजी बड़ा कौतुकी छथि। आकाश मे माथ आ हाथ एना छा गेलैक मानू असंख्य केतु आ राहु हो।
छंद :
जनु राहु केतु अनेक नभ पथ स्रवत सोनित धावहीं।
रघुबीर तीर प्रचंड लागहिं भूमि गिरत न पावहीं॥
एक एक सर सिर निकर छेदे नभ उड़त इमि सोहहीं।
जनु कोपि दिनकर कर निकर जहँ तहँ बिधुंतुद पोहहीं॥
मानू अनेकों राहु आर केतु रुधिर बहबैत आकाश मार्ग सँ दौड़ि रहल हो। श्री रघुवीर केर प्रचण्ड बाण सब बेर-बेर लगला सँ ओ पृथ्वीयो पर नहि खसि पबैत अछि, एक-एक बाण सँ समूह केर समूह माथ कटायल आकाश मे उड़ैत एना शोभा दय रहल अछि मानू सूर्यक किरण क्रोध कयकेँ जतय-ततय राहु सब केँ गुथने होइथ।
१०. जेना-जेना प्रभु ओकर माथ सब केँ काटैत छथि, तेना-तेना ओ अपार होइत जाइत अछि। जेना विषय सभक सेवन करैत काम (ओकरा भोगबाक इच्छा) केँ कम कयला सँ ओ आरो बेसी बढ़ैत चलि जाइत अछि। जेना विषय सभक सेवन कयला सँ ओकरा भोगबाक इच्छा आरो दिन-प्रतिदिन नया ढंग सँ बढ़ैत जाइत छैक।
११. माथे-माथ (सिर) केर बाढ़ि देखिकय रावण केँ अपन मृत्यु बिसरा गेलैक आ क्रोध आरो बढ़ि गेलैक। ओ महान् अभिमानी मूर्ख गर्जना कयलक आ दसो धनुष केँ तानिकय दौड़ल। रणभूमि मे रावण क्रोध कय बाण बरसाकय श्री रघुनाथजीक रथ केँ तोपि (झाँपि) देलक। रथ एक दण्ड (घड़ी) धरि देखाइयो नहि पड़ल, मानू कोहरा मे सूर्य नुका गेल हो। जखन देवता सब हाहाकार कयलनि तखन प्रभु क्रोध कयकेँ धनुष उठौलनि आ शत्रुक बाण सब केँ हंटाकय ओ फेरो शत्रुक सिरभंजन करैत ओहि सँ दिशा, विदिशा, आकाश आ पृथ्वी सबटा पाटि देलनि। काटल सिर आकाश मार्ग सँ दौड़ैत अछि आ जय-जय केर ध्वनि करैत भय उत्पन्न करैत अछि। ‘लक्ष्मण आर बानरराज सुग्रीव कतय छथि? कोसलपति रघुवीर कतय छथि?’
छंद :
कहँ रामु कहि सिर निकर धाए देखि मर्कट भजि चले।
संधानि धनु रघुबंसमनि हँसि सरन्हि सिर बेधे भले॥
सिर मालिका कर कालिका गहि बृंद बृंदन्हि बहु मिलीं।
करि रुधिर सरि मज्जनु मनहुँ संग्राम बट पूजन चलीं॥
‘राम कतय छथि?’ ई कहिकय रावणक कटल माथ सभक समूह दौड़ल, से देखिते बानर सब भागि गेल। तखन धनुष सन्धान करैत रघुकुलमणि श्री रामजी हँसिकय बाण सब सँ ओहो माथ सब केँ खूब नीक जेकाँ बेधि देलनि। हाथ मे मुण्डक माला लयकय बहुते रास कालिका सभक झुंड ओहिठाम आबि जुटलीह आ ओ लोकनि रुधिर केर नदी मे स्नान कय केँ तेना चलि देलीह, मानू संग्रामरूपी वटवृक्षक पूजा करय जा रहल होइथ।
हरिः हरः!!