रामचरितमानस मोतीः युद्ध लेल रावणक प्रस्थान आ श्री रामजीक विजयरथ एवं बानर-राक्षस केर युद्ध

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

युद्ध लेल रावणक प्रस्थान आ श्री रामजीक विजयरथ एवं बानर-राक्षस केर युद्ध

पैछला अध्याय मे पुत्र मेघनादक वध आ शोक केर स्थितिक वर्णन छल आ अन्त मे रावण स्वयं युद्ध लेल प्रस्थान करबाक निर्णय कयलक, रथ सजौलक, हजारों अपशकुन भ’ रहल छैक लेकिन ताहि सब बातक ओकरा कोनो परवाह नहि भ’ रहलैक अछि। आगू –

१. महाकवि तुलसीदास बड नीक पंक्ति लिखने छथि –

ताहि कि संपति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम।
भूत द्रोह रत मोहबस राम बिमुख रति काम॥७८॥

जे जीव सभक द्रोह मे रत अछि, मोह केर बस भ’ रहल अछि, रामविमुख अछि आ कामासक्त अछि, ओकरा कि कहियो सपनहुँ मे सम्पत्ति, शुभ शकुन आ चित्त केर शान्ति भ’ सकैत छैक?

२. राक्षस सभक अपार सेना चलि देलक। चतुरंगिणी सेनाक बहुते रास टुकड़ी सब अछि। अनेकों प्रकारक वाहन, रथ आर सबारी सब छैक तथा बहुते रंगक पताका आ ध्वजा सब छैक। मतवाला हाथीक बहुते रास झुंड चलल। मानू पवन सँ प्रेरित भेल वर्षा ऋतु केर बादल हो! रंग-बिरंगा बाना धारण करयवला वीर लोकनिक समूह छैक, जे युद्ध मे बहुते शूरवीर छैक आर बहुतो प्रकारक माया सब सेहो जनैत छैक। अति विचित्र फौज सुशोभित छैक, मानू वीर वसंत सेना सजेने हुए! सेनाक चलला सँ दिशा सभक हाथी हिलय लागल, समुद्र क्षुभित भ’ गेल आ पर्वत सेहो डगमग करय लागल। एतेक धुरा उड़ि रहल अछि जे सूर्य सेहो झँपा गेल छैक। फेर अचानक हवा रुकि गेलैक आ पृथ्वी अकुला उठल। ढोल आ नगाड़ा भीषण ध्वनि सँ बाजि रहल अछि, जेना प्रलयकाल केर बादल गरजि रहल हो। भेरी, नफीरी (तुरही) आर शहनाइ मे योद्धा सब केँ सुख दयवला मारू राग बाजि रहल छैक। सब वीर सिंहनाद करैछ आर अपन-अपन बल पौरुषक बखान कय रहल अछि। रावण कहलकैक – हे उत्तम योद्धागण! सुनह! तूँ सब रीछ-बानर सभक ठट्ट केँ रगड़ह आ हम दुनू राजकुमार भाइ केँ देखैत छी। एना कहिकय ओ अपन सेना केँ आगू बढ़ेलक।

३. जखन बानर सब ई खबरि पेलक, तखन ओहो सब श्री रामक दोहाय दैत दौड़ि पड़ल।

छंद :
धाए बिसाल कराल मर्कट भालु काल समान ते।
मानहुँ सपच्छ उड़ाहिं भूधर बृंद नाना बान ते॥
नख दसन सैल महाद्रुमायुध सबल संक न मानहीं।
जय राम रावन मत्त गज मृगराज सुजसु बखानहीं॥

ओ विशाल आ काल केर समान कराल बानर-भालू सब दौड़ल, मानू पाँखिवला पर्वत सभक समूह उड़ि रहल छल। ओ सब अनेकों वर्णक अछि। नह, दाँत, पर्वत आ पैघ-पैघ गाछ-वृक्ष सब ओकरा लोकनिक हथियार थिकैक। ओ सब बहुते बलवान् अछि आ केकरहु डर नहि मानैत अछि। रावणरूपी मतवाला हाथी लेल सिंहरूप श्री रामजीक जय-जयकार कयकेँ ओ सब हुनकर सुन्दर यश केर बखान करैत अछि।

४. दुनू दिशक योद्धा जय-जयकार कयकेँ अपन-अपन जोड़ी चुनिकय एम्हर श्री रघुनाथजीक आ ओम्हर रावणक बखान कय-कय केँ ओ सब आपस मे भिड़न्त करय लागल। रावण लग रथ छैक मुदा श्री रघुवीर केँ बिना रथ केँ देखिकय विभीषण अधीर भ’ गेलाह। प्रेम अधिक भेला सँ हुनकर मोन मे सन्देह भ’ गेलनि जे श्री राम बिना रथ केँ रावण केँ कोना जीत सकता! श्री रामजीक चरणक वंदना कयकेँ ओ स्नेहपूर्वक कहय लगलाह – “हे नाथ! अहाँ लग न रथ अछि, न तन केर रक्षा करयवला कवच अछि आ न जूत्ते अछि। ओ बलवान् वीर रावण कोन तरहें जीतल जायत?”

५. कृपानिधान श्री रामजी कहलखिन –

“हे सखा! सुनू, जाहि सँ जय होइत छैक, ओ रथ दोसरे होइत छैक।

शौर्य आर धैर्य ओहि रथ केर पहिया छैक।

सत्य आर शील (सदाचार) ओकर मजबूत ध्वजा आर पताका छैक।

बल, विवेक, दम (इंद्रिय केँ वश मे होयब) आर परोपकार – ई चारि टा ओकर घोड़ा थिकैक, जे क्षमा, दया आर समतारूपी डोरी सँ रथ मे जोतल गेल अछि।

ईश्वर केर भजन मात्र ओहि रथ केँ चलबयवला चतुर सारथी थिकैक।

वैराग्य ढाल थिकैक आ सन्तोष तलबार थिकैक।

दान फरसा, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष थिकैक।

निर्मल (पापरहित) आर अचल (स्थिर) मन तरकस केर समान छैक।

शम (मन केँ वश मे होयब), अहिंसादि ‘यम’ आर शौचादि नियम – ई सब बहुते रास बाण सब थिकैक।

ब्राह्मण आ गुरुक पूजन अभेद्य कवच थिकैक।

एकरा समान विजय केर दोसर उपाय नहि छैक। हे सखा! एहेन धर्ममय रथ जेकर होय ओकरा लेल जीतय योग्य शत्रुए कतहु नहि छैक।

हे धीरबुद्धिक सखा! सुनू, जेकरा पास एहेन दृढ़ रथ होय, ओ वीर संसार (जन्म-मृत्यु) रूपी महान्‌ दुर्जय शत्रु केँ सेहो जीति सकैत अछि। रावणक त बाते जुनि पुछू!”

६. प्रभुक वचन सुनिकय विभीषणजी हर्षित भ’ कय हुनकर चरणकमल पकड़ि लेलनि आ कहलनि – “हे कृपा आर सुख केर समूह श्री रामजी! अपने एहि बहन्ने हमरा महान् उपदेश सेहो देलहुँ।”

७. ओम्हर सँ रावण ललकारि रहल अछि आ एम्हर सँ अंगद आ हनुमान्! राक्षस आर रीछ-बानर अपन-अपन स्वामी केर दोहाय दयकय लड़ि रहल अछि। ब्रह्मा आदि देवता आर अनेकों सिद्ध तथा मुनि विमान सब पर चढ़ल आकाश सँ युद्ध देखि रहल छथि। शिवजी कहैत छथि – “हे उमा! हमहुँ ओहि समाज मे रही आ श्री रामजीक रण-रंग (रणोत्साह) केर लीला देखि रहल छलहुँ। दुनू दिशक योद्धा रण रस मे मतवाला भ’ रहल छथि। बानर सब केँ श्री रामजीक बल छन्हि, एहि सँ ओ जयशील छथि, जीति रहल छथि।”

८. सब कियो एक-दोसर सँ भिड़ैत आ ललकारैत अछि आ एक-दोसर केँ मसैल-मसैल पृथ्वी पर खसबैत अछि। ओ मारैत, काटैत, पकड़ैत आ पछाड़ैत अछि। मुरी तोड़िकय ओहि मुरी सँ दोसर पर प्रहार करैत अछि। पेट फाड़ैत अछि, हाथ उखाड़ैत अछि आ योद्धा सभक पैर पकड़िकय पृथ्वी पर पटका मारैत अछि। राक्षस योद्धा सब केँ भालू सब पृथ्वी मे गाड़ि दैत अछि आर उपर सँ बहुते रास बाउल सब दयकय झाँपि दैत अछि। युद्ध मे शत्रु सब सँ विरुद्ध भेल वीर बानर सब एना देखाय पड़ैत अछि मानू बहुते रास क्रोधित काले सब हो।

९. छंद :
क्रुद्धे कृतांत समान कपि तन स्रवत सोनित राजहीं।
मर्दहिं निसाचर कटक भट बलवंत घन जिमि गाजहीं॥
मारहिं चपेटन्हि डाटि दातन्ह काटि लातन्ह मीजहीं।
चिक्करहिं मर्कट भालु छल बल करहिं जेहिं खल छीजहीं॥१॥

क्रोधित भेल काल केर समान ओ बानर सब खून बहैत शरीर सँ पर्यन्त शोभित भ’ रहल अछि। ओ सब बलवान्‌ वीर राक्षस सेनाक योद्धा सब केँ मसलैत अछि आ मेघ जेकाँ गरजैत अछि। डाँटि-डपटिकय चमेटा सँ मारैत अछि, दाँत सँ काटिकय लात सँ मर्दन करैत अछि। बानर-भालू चिग्घाड़ैत आ एहेन-एहेन छल-बल करैत अछि, जाहि सँ दुष्ट राक्षस नष्ट भ’ जाय।

धरि गाल फारहिं उर बिदारहिं गल अँतावरि मेलहीं।
प्रह्लादपति जनु बिबिध तनु धरि समर अंगन खेलहीं॥
धरु मारु काटु पछारु घोर गिरा गगन महि भरि रही।
जय राम जो तृन ते कुलिस कर कुलिस ते कर तृन सही॥२॥

ओ सब राक्षस सभक गाल पकड़िकय ओदारि दैत अछि, छाती चीरि दैत अछि आर अँतड़ी-भोंतरी निकालिकय गला मे टांगि लैत अछि। ओ बानर सब एना देखाय पड़ैत अछि मानू प्रह्लादक स्वामी नृसिंह भगवान् अनेकों शरीर धारण कय केँ युद्धक मैदान मे क्रीड़ा कय रहल होइथ। पकड़, मार, काट, पछाड़ आदि घोर शब्द आकाश आर पृथ्वी मे भरि गेल छैक। श्री रामचंद्रजीक जय हो, जे सचमुच तृण सँ वज्र आ वज्र सँ तृण कय दैत छथि, निर्बल केँ सबल आर सबल केँ निर्बल कय दैत छथि।

१०. अपन सेना केँ विचलित होइत देखलक त बीसो हाथ मे दस टा धनुष लयकय रावण रथ पर चढ़िकय गर्व करैत ‘घुर, घुर’ कहैत चलि देलक। रावण अत्यन्त तामस सँ दौड़ल। बानर सब सेहो हुँकार करैत लड़बाक लेल ओकरा सामने आयल। बानर सब हाथ मे गाछ, पाथर आर पहाड़ सब लेने रावण पर एक्के बेर प्रहार करय लागल। पर्वत रावणक वज्रतुल्य शरीर मे लागैत देरी तुरन्ते टुकड़ा-टुकड़ा भ’ कय फुटि जाइत अछि।

११. अत्यन्त क्रोधी रणोन्मत्त रावण रथ रोकिकय अचल अवस्था मे ठाढ़ रहल, अपन स्थान सँ कनिकबो नहि हिलल। ओकरा बहुते तामस भेलैक। ओ एम्हर-ओम्हर झपटि-डपटिकय बानर योद्धा सब केँ मसलय लागल। अनेकों बानर-भालू सब ‘हे अंगद! हे हनुमान्! रक्षा करू, रक्षा करू’ चिकरिते भागि पड़ल। हे रघुवीर! हे गोसाईं! रक्षा करू, रक्षा करू। ई दुष्ट काल जेकाँ हमरा सब केँ खा रहल अछि। रावण देखलक जे सबटा बानर सब भागि गेल, तखन रावण दसों धनुष पर बाण सन्धान कयलक।

१२. छंद :
संधानि धनु सर निकर छाड़ेसि उरग जिमि उड़ि लागहीं।
रहे पूरि सर धरनी गगन दिसि बिदिसि कहँ कपि भागहीं॥
भयो अति कोलाहल बिकल कपि दल भालु बोलहिं आतुरे।
रघुबीर करुना सिंधु आरत बंधु जन रच्छक हरे॥

ओ धनुष पर सन्धान करैत बाणक समूह छोड़लक। ओ बाण साँप जेकाँ उड़िकय लागि रहल छैक। पृथ्वी-आकाश आर दिशा-विदिशा सर्वत्र बाण भरि रहल अछि। बानर सब भागय त कतय भागय? एकदम कोहराम मचि गेल। बानर-भालु सभक सेना व्याकुल भ’ कय आर्त्त पुकार करय लागल – “हे रघुवीर! हे करुणासागर! हे पीड़ितक बन्धु! हे सेवकक रक्षा कयकेँ ओकर दुःख हरनिहार हरि!”

हरिः हरः!!