स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
हनुमानजीक सुषेण वैद्य केँ आनब आ संजीवनी बुटी लेल जायब
कालनेमि-रावण संवाद, मकरी उद्धार, कालनेमि उद्धार
पिछला अध्याय मे लक्ष्मण-मेघनाद युद्ध आ लक्ष्मणजी पर शक्तिबाण प्रहार सँ हुनका मुर्छा मे देखि श्री रामजी सहित समस्त लोक चिन्तित छथि। तेकर बाद –
१. जाम्बवान् कहलखिन – लंका मे सुषेण वैद्य रहैत छथि, हुनका आनय वास्ते किनका पठायल जाय? हनुमान्जी छोट रूप धय कय गेलाह आ सुषेण केँ हुनकर घर सहित उठा अनलनि। सुषेण आबिकय श्री रामजीक चरणारविन्द मे सिर नमौलनि। वैद्यजी पर्वत आ औषधि केर नाम बतेलनि, आ कहलनि जे हे पवनपुत्र! औषधि आनय जाउ।
२. श्री रामजीक चरणकमल केँ हृदय मे राखिकय पवनपुत्र हनुमान्जी अपन बल बखानि यानि ‘हैया, तुरन्त अनलहुँ’ कहिकय चलि देलाह। ओम्हर एकटा गुप्तचर रावण केँ ई खबरि पहुँचेलक। तखन रावण कालनेमि केर घर आयल। रावण ओकरा सँ सब हाल कहलक।
३. कालनेमि सुनलक आ बेर-बेर माथ पिटलक, खेद प्रकट कयलक। ओ कहलक – “तोरा देखिते-देखिते जे सौंसे नगर जरा देलकौक, ओकर बाट केँ के रोकि सकैत अछि? श्री रघुनाथजीक भजन कयकेँ तूँ अपन कल्याण कर! हे नाथ! झूठक बकवाद छोड़ि दे। नेत्र केँ आनन्द दयवला नीलकमल समान सुन्दर श्याम शरीर केँ अपन हृदय मे राख। हम-तूँ (भेद-भाव) आर ममतारूपी मूढ़ता केँ त्यागि दे। महामोह (अज्ञान) रूपी रात्रि मे सुति रहल छँ, से जागि जो, जे कालरूपी साँप तक केर भक्षक अछि, कतहु ओ सपनहुँ मे रण मे जितल जा सकैत अछि?”
४. ओकर ई बात सब सुनिकय रावण बहुते क्रोधित भेल। तखन कालनेमि मोन मे विचार कयलक जे एकरा हाथ सँ मारल जेबाक अपेक्षा श्री रामजीक दूतहि केर हाथ सँ मारल जायब त नीक होयत। ई दुष्ट त पापसमूह मे रत अछि। ओ मनहि मन एना कहिकय चलल आ पवनसुत हनुमान्जीक मार्ग मे माया रचलक। पोखरि, मंदिर आर सुन्दर बगीचा बनेलक।
५. हनुमान्जी सुन्दर आश्रम देखिकय सोचलनि जे मुनि सँ पुछिकय जल पीबि ली, जाहि सँ थकावट दूर भ’ जाय। राक्षस ओतय कपट सँ मुनिक वेष बनेने विराजमान छल। ओ मूर्ख अपन माया सँ मायापतिक दूत केँ मोहित करय चाहैत छल। मारुति ओकरा लग जाकय मस्तक नमौलनि।
६. ओ कालनेमि कपटवेश मे श्री रामजीक गुण सभक कथा कहय लगलाह। ओ बाजल – “रावण आर राम मे महान् युद्ध भ’ रहल अछि। रामजी जितता, एहि मे कनिकबो सन्देह नहि अछि। हे भाई! हम एतय रहितो सब किछु देखि रहल छी। हमरा ज्ञानदृष्टि केर बहुत पैघ बल अछि।”
७. हनुमान्जी ओकरा सँ जल मँगलनि त ओ कमण्डलु दय देलक। हनुमान्जी कहलखिन्ह – कनिके जल सँ हम तृप्त नहि होयब। तखन ओ कहलक – पोखरि मे स्नान कयकेँ तुरन्त आबि जाउ आ हम अहाँ केँ दीक्षा दी, जाहि सँ अहाँ केँ ज्ञान प्राप्त होयत। पोखरि मे प्रवेश करिते एकटा मगरमच्छिनी अकुलाकय ताहि घड़ी हनुमान्जीक पैर पकड़ि लेलक। हनुमान्जी ओकरा मारि देलखिन। तखन ओ दिव्य देह धारण कयकेँ विमान पर चढ़ि आकाश दिश चलि देलक। चलैत काल ओ कहलक – “हे बानर! हम अहाँक दर्शन सँ पापरहित भ’ गेलहुँ। हे तात! श्रेष्ठ मुनि केर शाप मेटा गेल। हे कपि! ई मुनि नहि छी, घोर निशाचर छी। हमर वचन सत्य मानू।”
८. एतेक कहिकय ओ अप्सरा जहिना गेल तहिना हनुमान्जी निशाचर लग घुरलाह। हनुमान्जी कहलखिन्ह – हे मुनि! पहिने गुरुदक्षिणा लय लिय’। बाद मे अहाँ हमरा मंत्र देब। हनुमान्जी ओकर माथ केँ पूँछ मे लपेटिकय ओकरा बजड़ा मारलखिन जे ओ ओतहि दम तोड़ि देलक।
९. मरैत समय ओ अपन (राक्षसी) शरीर प्रकट कयलक। ओहो “राम-राम” कहिकय प्राण छोड़लक। ई (ओकर मुँह सँ राम-राम केर उच्चारण) सुनिकय हनुमान्जी मोन मे हर्षित भ’ कय आगू चलि देलाह। ओ सुषेण वैद्यक कहल पर्वत केँ देखलनि, मुदा औषधि नहि चिन्हि सकलाह। फेर हनुमान्जी एकदम सँ पर्वते केँ उखाड़ि लेलनि, पर्वत लयकय हनुमान्जी रातिये मे आकाश मार्ग सँ दौड़ि पड़लाह आ अयोध्यापुरीक उपर पहुँचि गेलाह।
हरिः हरः!!