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मैथिली के अमरगीत ‘कोयली’ के रचनाकार चन्द्रभानु सिंह

साभार: मैथिल जागरण पुनर्प्रकाश एवं राजकुमार झा

लेखक: शशिबोध मिश्र शशि

महाकवि चन्द्रभानु सिंह : व्यक्तित्व आ कृतित्व

– शशिबोध मिश्र ‘शशि’

मैथिली दैनिक राष्ट्रीय अखबारमे प्रकाशित आलेख पढ़ि मिथिलाक विभूति स्वर्गीय चन्द्रभानु सिंहकें अशेष नमन निवेदित करैत छी।

– राजकुमार झा

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स्वर्गीय चन्द्रभानु सिंहक जन्म दरभंगा जिलाक बिरौल थानान्तर्गत नदियामी गाममे भेल छलनि। पिता बाबू राम गुलाम सिंह एकटा सम्पन्न कास्तकार किसान रहथिन। चन्द्रभानु सिंहक बाल्यावस्था, युवावस्था आ वृद्धावस्था गामहिमे व्यतीत भेल छलनि। प्रारंभिक शिक्षाक उपरांत हिनक पिता गोवर्द्धन साहित्य महाविद्यालय, देवघरमे नामांकन करा देलथिन आ कालेजक तत्कालीन प्राचार्य बहुश्रुत हिन्दीक साहित्यकार डाक्टर लक्ष्मीनारायण ‘सुधांसु’ जीक अभिभावकत्वमे राखि देलथिन। ओत्तहि रहि ओ साहित्यालंकारक उपाधि प्राप्त केलन्हि। तत्पश्चात् डिप-इन-एडक प्रमाण-पत्र प्राप्त कयलनि।

छात्रावस्थहि सँ हिनक खद्धर धोती आ कुर्ताक परिधान रहनि।

पिताक असामयिक निधन सँ किछु दिन विचलित रहलाह; परन्तु मायक छत्रछाया भेटैत रहलनि। जीविकाक लेल १९५५ ईस्वीमे, घरक लगीचहि दक्षिणी लगमा मिड्ल स्कूलमे योगदान देलनि। अपन पिताक स्मृतिमे १९६२ ईस्वीमे गामहिमे गोविन्द पुस्तकालयक स्थापना कएलनि। एतय ई बात ध्यातव्य जे ओ अपन छात्रावस्थहिमे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आस्थावान सिपाही बनि गेल छलाह। इएह कारण छल जे अपन गामक पुस्तकालयमे लालकृष्ण आडवाणी तथा सुश्री उमा भारती सदृश धाकर नेताक ई स्वागत-सत्कार कऽ चुकल छलाह। हिनक राष्ट्रप्रेम आ विशेष राजनीतिक दलक प्रति अटूट आस्थाक कारण, तत्कालीन सत्ताधारी दलक कोप भाजन बनए पड़लनि।

महाकवि चन्द्रभानु सिंहक मादे, दरभंगाक एकटा लब्धप्रतिष्ठ अधिवक्ता जे मध्यविद्यालय, जयंतीपुर दाथमे हुनक शिष्य रहि चुकल छथि – एकटा रोचक संस्मरण कविवरक मादे सुनौलनि। एक दिन कविवर ओहि वकील साहेबक गाम, दाथ अवस्थित हुनक घर पहुँचलाह तँ कविवरक गट्टामे बान्हल पट्टी देखि जिज्ञासा भेलनि। कविवर कहय लगलाह “बड़ मारि मारलक, हाड़ तोड़ि देलक अछि” की केस करबै ? “ओ केओ आन नहि अपन बेटा अछि”, कविवरक उत्तर छल। ई सूनि हुनक पूर्ववर्ती छात्र मिथिलेश सिन्हा दाथवासी अवाक् रहि गेलाह। एहने सरल स्वभावक छलाह महाकवि चन्द्रभानु सिंह। आब महाकविक साहित्यमे अवदानक विषयमे चर्चा निम्नलिखित अछि :-

महाकवि चन्द्रभानु सिंह अपन सभ कवितामे केवल आ केवल छन्दहिक प्रयोग कएने छथि। छन्द मुक्त कविता हुनका बांतर छलन्हि। अपन हिन्दी काव्य संग्रह राष्ट्र भारतीक लेखकीयमे ओ लिखैत छथि “जहाँ तक अपनी रचनाधर्मिता का प्रश्न है, अबतक मेरी समस्त रचनायें तुकान्त और गेय रहीं है। सर्वाधिक गीत, रागिनीबद्ध, लोकधुनों से संस्कारित है। असंख्य कंठों में फलती रही है।…..आज के कलाकार अपने को मानक कवि मानते हैं। उनकी कलम से कवितायें अमर होकर नहीं निकलतीं, बल्कि क्षणभंगुर, अल्पायु, छिछलेपन लिए हुए कविता निकलती है जो टिक नहीं पाती। अतुकान्त पद की रचना कविवर निराला ने भी की, किन्तु वह गहराई, भाव गाम्भीर्य परिपक्वता और गेयता नये कवियों में कहाँ दिखती है? ऐसे कवि हृदयहारी नहीं, बल्कि वटमारी कवि बनकर रह गये हैं। आयु के शतक द्वार पर मैं ऐसी कविताओं से परेशान हो गया हूँ।

छन्दक प्रति अगाध निष्ठाक मादे महाकवि चन्द्रभानु सिंहक उपर्युक्त कथ्य सँ हम शत प्रतिशत सहमत छी। छन्दत्वक लालित्य पाठकक लेल हृदय ग्राही होएत छैक। कविवर चन्द्रभानु सिंहक कवितादि प्रसाद गुण सम्पन्न छन्हि जाहिमे उचित सौन्दर्य बोध, संवेदना, विभिन्न भावानुभूतिक समन्वयक क्षमता, उत्कृष्ट शैलीक प्रयोग, संप्रेषणीयता, यति, गति, लय संग गेयता तथा व्यंजनात्मकता आदि गुण सँ युक्त काव्य सृजन करबाक सहज क्षमता छन्हि। तैं साहित्य शास्त्रमे कवि केँ विलक्षण व्यक्तित्व सँ सम्पन्न काव्य रुपी संसारक सृष्टिकर्ता कहल गेल अछि : –

“अपारे काव्य संसारे, कविरेव प्रजापति:। यथास्मै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते।”

जहाँ धरि कविवर द्वारा छन्द मुक्त कविता केनिहार कवि सँ दूरि बना कऽ राखबाक हुनक विचार छन्हि से हुनक निजी विचार छन्हि। छन्द मुक्त कविता जौं संवेदना पूर्ण भावक संप्रेषण करैत अछि आ ओ मर्मस्पर्शी अछि तँ एहनो कविताक साहित्यमे स्वागत होयबाक चाही; तथापि आजुक पीढ़ी सँ हमर विनम्र निवेदन अछि जे यदि ओ छन्दक पूर्ण ज्ञान सँ वंचित होअए, तैयो ओ कविताक लयात्मकतामे निष्ठा अवश्य राखय। लयमे प्रवाह होएत छैक आ जतय प्रवाह रहतैक, ओतय सँ गतिरोध अवश्य दूर होइत छैक। शिल्पक सौष्ठव बौद्धिकताक देन होइछ, मुदा हृदय सँ निकसित भावमे हृदय धरि पहुँचबाक क्षमता होइछ।

कविवर चन्द्रभानु सिंह अपन समान अधिकार रखैत राष्ट्रभाषा हिन्दी तथा मातृभाषा मैथिली दुनूमे प्रचुर रचना कयने छथि। आब पहिने हुनक हिन्दी भाषामे कयल छन्दरचनाक मादे दू टप्पी गप्प करब तत्पश्चात् हुनक मैथिली रचना पर। हिन्दीमे हुनक अद्यावधि कुल तीन टा पोथी प्रकाशमे आयल अछि जे निम्न प्रकार अछि :-

१) सप्त महारथीमे देशक सात टा सपूतक वर्णन अछि जे परतंत्र भारतक स्वतंत्रता संग्रामक अग्रणी सेनानी छलाह। एहिमे गांधीजी सर्वोपरि छथि। हुनका मादे कविवर गाबि उठैत छथि :

“जब आती दुनियाँ में आंधी, गांधी अवतार लिया करता
अधिकार सुधा दे मानव को शंकर सा गरल पिया करता।”

पंडित जवाहर लाल नेहरू कमला नेहरूक विछोहमे जेलमे बन्द छथि आ कवि गाबि उठैत छथि :

“वह मुक्ति केशिनी के वियोग में बन्दी गृह का नागर है,
चल वहाँ हमारे मोती का अभिमानी लाल जवाहर है।”

एहिना डा. राजेन्द्र प्रसादक मादे :

“क्या जाने इस जादूगर ने कैसी लय में गति बांधी है,
वह पिंडश्याम यमुनाभ वरण राजेन्द्र हमारा गांधी है।”

नेताजी सुभाष चंद्र बोसक विषयमे :

आँख लाल काल सा विशाल डाल बंक है
धूर्णिवात में मतंग झूमता मयंक है
एड़िया कसी हुईं कसक उठी कसी कमर
नाभि उर्घ्व शीश थाम वक्ष फैला उभर।
पार्श्व भाग ठोस तरंग बूंद बूंद है बुलंद
आ रहा प्रवास से अलोप सा सुभाषचंद्र

जखन बाबू सूरज नारायण सिंह अपन अन्य क्रान्तिकारी सहयोगी सभक संग नेपाल भागि कऽ चलि गेलाह तँ बाबू चन्द्रभानु सिंह अंग्रेज फौजक दमनकारी चक्र सँ बचबाक लेल कोनो गुप्त स्थान सँ एक साल धरि आजाद भारतक बुलेटिन लिखि ओकरा प्रसारित करैत रहलाह। एहि घटनाक उल्लेख ओ अपन मैथिली गीत गाबि कऽ कयने छथि जे ओहि समय लोकक कंठमे खुब लोकप्रिय भेल छल :

“उड़ल हजारीबागक बंदी महाक्रान्ति केर रोली मे
“भारत माता छली नुकाएल
जय प्रकाश केर झोली मे।”

कविवरक दोसर हिन्दी काव्य संग्रह अछि “राष्ट्रभारती”। जाहिमे कुल १५८ टा कविता संकलित अछि। जाहिमे किछु गंभीर तँ किछु अभिधात्मक अछि। एहि संग्रहमे किछु बालोपयोगी काव्य रचना सेहो अछि। विविध व्यंजनक विविध स्वाद सँ युक्त हुनक एहि काव्य संग्रहक विशेषता छन्हि जाहिमे कविक ऋतु वर्णन द्रष्टव्य :-

१) वसंत:
“गूंजता समीर तारपर अभद्र राग री।
खो गई सुगन्ध में वसंत की…

महाकविक मैथिली काव्यमे अवदान
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१) स्वदेश भारती, २) के ई गीत अलापै छई, ३) शकुन्तला (मैथिली महाकाव्य) तथा ४) स्वर भारती (मैथिली गीत संग्रह)

आब प्रथम काव्य संग्रह “स्वदेशी भारती”
(वर्ष १९४० ईस्वी सँ लऽ कऽ वर्ष १९६० ईस्वी धरि आकाशवाणी सँ प्रसारित शताधिक गीत प्रसंगक चर्चा करी।)

कविवरक गाम – नदियामी, प्रखंड – कुशेश्वर स्थान, अनुमंडल मुख्यालय – बिरौल (दरभंगा), कोशी, कमला, बलान तथा करेह नदी सँ चतुर्दिक घेरल अछि। भरि चतुर्मासा गमनागमनक नावाहिक टा अबलम्ब। प्रत्येक वर्ष एतय भीषण बाढ़ि अबैत रहैत छैक। एहि गामक बाढ़िक विभीषिकाक विषयमे मिथिलाक प्रसिद्ध तीर्थस्थलक रूपमे ख्यात कुशेश्वरनाथ महादेव केँ संबोधित उपालम्भक स्वरमे हृदय सँ नि:सृत कविक मर्मस्पर्शी वेदना श्रव्य :

“कहियो ने हो भोला बाबा एहन पीड़ा भेल।।
ढेहक तारमतारे दामस सँ कांपय पुरबैया
नगदा खसि उठि जाय वेग सँ ताकथि कोसी मैया
ढाकन डांटी लुधकुट लादल हमरा द्वारे द्वारे
गाइक संगहि एक खाम्ह तर टूटल एक मड़ैया
हल्फी मे बहरैलो जाय ने
खसइछ बुन्दक बेल।।”

समय विकालक एक झोल सँ टूटल खढ़ केर रस्सी
भहरि भीत भुइयां जनु पसरल बुताइ गेल तन-बोरसी
घर खंधारि खसौलक देखू सिर पर वज्र फुहारा
अहिंक कण्ठ सन नागो ससरय कंपइछ सब घर वासी
दु:के सब आबै ले झगरय
होइछ ठेलम ठेल।।

अहींक छी तेँ जते घुमाबी बान्हि ठोंठ गरदामी
नहि फराक छी कनेक
उत्तर हम्मर घर नदियामी

“स्वदेश भारती” मे संकलित उपर्युक्त काव्यमे कोसीक बाढ़ि सँ क्षतिग्रस्त भेल अपन खेत-पथार, घर-आंगन, गाछी-बिरछीकेँ देखि हृदय फाटि जाइत छन्हि आ वेदनाक स्वत:स्फूर्त स्वर काव्यक रूपमे प्रकट भऽ जाइत छन्हि जे लोकक मर्मकेँ भीतर सँ झकझोरि दैत छैक।
उपर्युक्त पोथीक एकटा आओर गीत “कोइली” केँ जखन ओ स्वयं अपन स्वरमे गाबि कऽ सुनाबैत छलाह तँ श्रोतागणक मोन अघाइते नहि छल। बेरि-बेरि ओ गीत सुनएबाक आग्रह होइत छलन्हि। कोनो कवि सम्मेलन हो किंवा कोनो साहित्यिक मंच, ओहि गीतक फरमाइस हुनका सँ कएले जाइत छल। एकटा अपन ओ गीत गाबि कऽ गीतकारक रूपमे लोकप्रियताक शिखर पर पहुँचि गेल छलाह। ओहि गीतक प्रकाशित प्रति घूमि-घूमि कऽ खूब बेचबो करैत छलाह।

कविवरक मैथिली साहित्यमे एकटा आओर महत्वपूर्ण अवदान हुनका द्वारा रचित “शकुन्तला” महाकाव्य अछि। कहल जाएत अछि जे ककरो कठोर तप सँ देवराज इन्द्र कुपित भऽ जाएत छथि, हुनका चिन्ता सतबय लगैत छन्हि जे कहुँ वरदान पाबि, हमरा सँ बेशी पराक्रमी बनि, स्वर्गक आसन ने छीनि लेथि। ऋषि विश्वामित्रक कठोर तपस्या सँ भयभीत इन्द्र अपन स्वर्ग सुन्दरी अप्सरा मेनका केँ मुनि विश्वामित्रक तप भंग करबाक लेल पृथ्वीलोकमे पठबैत छथि। ऋषि विश्वामित्रक ध्यान टूटैत छन्हि तँ ओ ओहि अप्सराक मोह जालमे फँसि कऽ, ओकरा संग शारीरिक संबंध स्थापित करैत छथि। मेनकाक गर्भ सँ शकुन्तलाक जन्म आ तत्पश्चात् कण्व ऋषिक आश्रममे ओहि जन्मौटी बच्चाकेँ त्यागि, मेनकाक पलायन। ओहि अबोध बालिकाक पालन-पोषण ऋषि कण्व स्वयम् करैत छथि जकर नामकरण शकुन्तला होएत छैक। कालान्तरमे ऋषि आश्रमक पालिता ओहि सुन्दर कन्याक संग राजा दुष्यन्तक गुप्त मिलन, गंदर्भ विवाह आ राजमहल लए जयबाक आश्वासन। राजा दुष्यन्तक विस्मरण, शकुन्तला द्वारा पुत्ररत्न भरतक जन्म। कालान्तरमे परम पराक्रमी राजा दुष्यन्तक परम प्रतापी पुत्र सम्राट भरतक नाम पर ई देश भारतवर्ष बनल।

कविकुल गुरू कालिदास विरचित “अभिज्ञान शाकुंनतलम्” नाटककेँ आधार बना कऽ लिखल गेल ई महाकाव्य एकटा भीमकाय कलेवरक महाकाव्य थिक जाहिमे कविक अद्भुत कल्पना, उद्दात भावना, दृष्टिक सूक्ष्मता, विचारक प्रवणता, सृष्टिक विविधता, उक्तिक वैचित्र्य, कथोपकथनक चमत्कार, उपमा उपमेयक अम्बार, अलंकारक माधुर्य, राष्ट्रप्रेमक प्राचूर्य तथा पदगेयताक झंकार सभटा एकहि संग भेटैत अछि। नौ सर्ग आ अड़तीस उपखंडमे विभाजित प्रसाद गुण सम्पन्न एहि दीर्घकाय महाकाव्यमे पाँच सय सँ बेशी पृष्ठ अछि। सम्पूर्ण मिथिलांचलक व्यवहार गीतक सम्यक समावेशक कारणेँ एकर उपयोगिता आओर बढ़ि जाएत छैक।

महाकविक सूक्ष्म दृष्टि तथा वर्णनात्मक वैशिष्ट्यक हम किछु दृश्य उपस्थित करए चाहैत छी। विश्वामित्रक घोर तपस्या सँ भयभीत इर्ष्यालु इन्द्र आ तदर्थ मुनिक तप भंजनक चेष्टा पर महाकविक कटाक्ष द्रष्टव्य अछि :

“एहन तँ सामान्य मनुक्खक होइछ ओछ स्वभाव
प्रगट देवता केर अधिपति तों गुरू सँ कोन दुराव
ईर्ष्या सँ घटि जाय महत आ ईर्ष्या बढ़बय शंका।
सर्वनाश ईर्ष्ये सँ होइछ पीटि कहय कवि डंका।।”

इन्द्रक प्रेषिता, विश्वामित्रक तपभंजिका मेनकाक नखशिख वर्णनमे श्रृंगार रस सँ पूर्ण काव्यांशमे महाकवि विद्यापतिक समकक्ष चन्द्रभानु सिंह ठाढ़ भेटैत छथि। द्रष्टव्य :

“घुट्ठी सँ छाबा ठेहुन धरि जांघक मोड़ प्रकम्प।
कसल डांर सँ मेरुदंड धरि अछि उठैत भूकम्प।।
डंरवासा सँ नाभि कुंड तइ उपर मानसरोवर।
हलचल भेल बिहारि उठल उर सुसुमन सोखल सरवर।।८३।।

जेंकि कविवर एक अत्यन्त लोकप्रिय गीतकार छथि तँ सूनि लिअ हुनक झंकार :

“सोनलता ज्योति पुंज सोन जूही रश्मिमंजु।
उदय श्रृंग किरण पंख, भ्रमय भृंग कुंज कुंज।
तुंग शिखर पौर पाढ़ स्वरस-रागझनझनाय।
झुनुर झुनुर झनकि जाय
मधुर मधुर मुरज मंजु।
तोम तम-फटोन फाटि व्योम फांक मे समाय।
तरुण अरुण तिमिर चूड़ि भरय चिड़इ गगन गूंज।
मलय श्रृंग गनगनाय पिंक पलक सिंजनाय।
चन्द्रभानु ज्योति विहग फरफराय
गंज गंज।” (अधमाविर्भाव पृष्ठ संख्या – ९१)

उपर्युक्त गीतक अलंकारक विन्यास सराहनीय; परन्तु तत्सम,तद्भव आ खांटी मैथिलीक ठेठ शब्दक खिच्चड़ि कतेको पाठकक लेल पचायब कठिन प्रतीत होइछ।

प्रसाद गुण सम्पन्न शकुन्तला महाकाव्यमे पर्याप्त उपमा-उपमेय, अलंकारक विन्यास, ऋतु आदिक मनोहारी व्यंजन, उक्तिचातुरी एवम् आस्वादनार्थ विविध रस सम्पन्न व्यंजनक उपरान्तहुं प्रचूर संख्यामे अनावश्यक गीतादिक समावेश पोथीक कलेवरकेँ भीमकाय रूप दय देला सँ पाठकक मोन उबिया जाइत छैक। महाकाव्यमे सर्ग जकरा महाकवि पर्वक संज्ञा देने छथि सेहो सम्यक रूपेँ प्रबन्धित नहि बुझाइछ जे एहि महाकाव्यक प्रति लोकक अरूचिक कारण भऽ सकैछ। आब महाभारत आओर रामायण तँ आध्यात्मिक आस्था कारणें लोक पढ़ि लैत अछि; मुदा महाकवि चन्द्रभानु सिंहक एहि दीर्घकाय महाकाव्यमे मनोरंजन ताकब सेहो अल्प समयमे, अति दुष्कर काज प्रतीत होइछ।

दोसर, एहि महाकाव्यमे बेरि बेरि सृष्टिक शब्दक प्रयोग लेखकक तँ नहि, परन्तु प्रूफ रीडरक त्रुटिकेँ प्रदर्शित करैत अछि। एक आध ठाम अशुद्धिकेँ अनठाओल जाय सकैत अछि, परन्तु बारंबार नहि। पोथीमे बारम्बार एकटा आओर अशुद्धिकेँ दोहराओल गेल अछि आ ओ शब्द अछि प्रकट केर स्थान पर प्रगट। तथापि महाकविक “शकुन्तला महाकाव्य” मैथिलीक काव्य साहित्यमे एकटा मीलक पाथर अछि जकर महत्व मैथिली साहित्यक इतिहासमे चिरकाल धरि बनल रहत।

आब चर्चा करब महाकविक अन्तिम प्रकाशित मैथिली कृति “स्वर भारती” काव्य संकलनक मादे जे पूर्णतया एकटा छंदोबद्ध गीत संग्रह थिक। एहिमे कुल ७२ टा गीतक संग्रह अछि जकरा, कविवर अपन जीवितावस्थामे बहुत मधुर स्वरमे गामे गाम घूमिके सुनाबैत रहैत छलाह जे लोक सभ मंत्रमुग्ध भेल तन्मयताक संग सुनैत रहैत छल। ओहि क्रममे हुनक आन आन पाकेटहु सँ छोट साइजमे गीत संग्रह खूब बिकाइत छलन्हि। हुनक गीत सुनयबाक कार्यक्रम मिड्ल स्कूल आ हाई स्कूल सभमे होइत छलन्हि। ओहि टुकड़ी-टुकड़ीमे बांटल गीतादिकेँ संकलित कऽ कालान्तरमे पुस्तकाकार गीत संग्रह प्रकाशित भेलन्हि।

उपर्युक्त “स्वर भारती” गीत संग्रहमे दिवंगत महापुरूष लोकनिक स्तुति गान तथा देवी देवताक स्तुति प्रस्तुत कएने छथि। एहिमे अपन राष्ट्रक प्रति गीतक माध्यम सँ श्रद्धा भाव निवेदित केने छथि।

“स्वर भारती”क भूमिकामे कविवरक चिर सखा पंडित चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’ लिखैत छथि – “स्वदेश भारती” मे कविता कामिनीकेँ आरती उतारि आइ स्वर भारती लऽ मातृभाषाक अर्चना हेतु उपस्थित छथि। जन जन केर जिह्वा पर हिनक ‘कोइली’ मैथिली कविता काननकेँ बारहो मास वसंत शोभा सँ गुंजायमान कयने रहलनि अछि।

आजुक रंग-बिरंगक ‘वादक’ विवाद सँ सर्वथा फराक रहि अपनाकेँ अपवादेक श्रेणीमे रखलनि। सामान्यत: अन्यान्यो भाषा, विशेषत: मैथिलीमे बहुविद्यावादीय रचनाकार देखबामे अबैत छथि, मुदा ई कवि चूड़ामणि मधुप जकां छन्दक सीमाक उल्लंघन करबाक चेष्टो नहि कयलनि। अत: कथा, नाटक, निबन्धादि गद्य रचना दिस हुलकीओ मारबाक इच्छा नहि भेलन्हि।”

आगां ओ लिखैत छथि ‘ई सब दिन गाममे रहलाह, गाम-गाम घुमैत रहलाह। राष्ट्र भाषाक सिद्धहस्त कवि रहितो मातृभाषाक अलख जगबैत रहलाह तैं समाज हिनका जनकविक रूपमे आदर दैत रहलनि। ध्यान रहय जे ई जनकवि छथि जनवादी कवि नहि। तैँ हिनका मिथिलाक माटि-पानि, खेत-पथार, गाछ-वृक्ष, पशु-पक्षी, जीव-जन्तु, राग-भास, खान-पान, वेष-परिधानक प्रति अनन्य अनुराग रहलनि। ओहि अनुरागक चित्रित-वर्णित रूप हिनक काव्यमे पाठक वर्गकेँ भेटैत छन्हि।”

कोनो काव्य अथवा महाकाव्य केवल अनुभूतिये टा नहि, अपितु अपन भाव विस्तारक संग कविक कल्पना, चिंतन प्रवाह तथा दृष्टिक व्यापकताक सेहो परिचय दैत अछि। आदर्श दार्शनिक घोंट चारित्रिक अधोपतन सँ बचएबाक लेल औषधिक काज सेहो करैछ। राष्ट्रभाषा हिन्दी आ मातृभाषा मैथिलीमे ललित काव्यक सृजन केर लेल हुनका शत शत नमन।

किमधिकं विज्ञेषु।
हरि: ओम् तत्सत्।

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