साहित्य मे आलोचनाक अभाव

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साहित्य मे आलोचनाक अभाव

विचार

लेखकः मैथिल यायावर, सुपौल मे आयोजित द्विदिवसीय साहित्यिक सेमिनार मे

मैथिल यायावर, सहरसा । ५ अक्टूबर २०२३, मैथिली जिन्दाबाद!!

परंपरागत रूपमे वाद-विवाद आ संवादक संवाहक रहल अछि भारतीय भाषा आ साहित्य। चाहे कोनो भाषा आ साहित्य होए, सबठाम स्वस्थ आ सार्थक बहस होएत आबि रहल अछि। आ एहि स्वस्थ बहसेक नाम थिक – आलोचना !

कहानी, उपन्यास, नाटक, कविता, रिपोर्ताज आदि साहित्यक विधा जेकां आलोचना सेहो एकटा साहित्यिक विधा थिक।

मुदा, एखनधरि एहि आलोचना विधा के विधा जेकां स्वीकार्यता वास्तविक रुपमे नहिं भेटल अछि। जखन कि कोनो साहित्यकार, कवि आ लेखकक भांति आलोचको के अपन एकटा अलग दृष्टिकोण होइत अछि। दुनू अपन अपन व्यक्तित्व, अंतर्दृष्टि आ लक्ष्यक तदनुरूप शब्द कर्म करैत अछि। दुनू अपन कल्पना, वैचारिकता, संवेदना आ निर्वैयक्तिकताक परिपक्वताक संग अपन समय आ समाज के अपन-अपन वैयक्तिक दृष्टिकोण सँ रचैत अछि।

मुदा, दुनुमे फर्क बस एतबेक होइत छै जे कोनो साहित्यकार, कवि, कथाकार आ कि लेखक अपन रचना कर्मक बाद रुकि जाइत छैक, जखन कि एकटा आलोचक नहिं मात्र मूल कृतिक गर्भ मे छिपल अर्थव्यंजक संभावना केँ खोजैत छै; अपितु, समयक ओहि पार जाए के विस्मृतिक कोनो कोन मे पड़ल कृति विशेषक पुनः पाठ कऽ ओकरा वर्तमान सँ जोड़ैत छैक। एतबेटा नहिं रचनाकार जेकाँ जीवनक पाठ करबाक क्रममे ओ असकरे नहिं रहैत छै, अपितु, एकटा पूरा परंपरा के ओकर ऐतिहासिकता मे विश्लेषित करबाक जिम्मेवारी ओकरहि कान्ह पर रहैत छै।

मुदा, साहित्य, सिद्धांत आ आलोचनाक समुचित ज्ञानक अभाव मे साहित्यक हमर सबहक अध्ययन अधूरे रहि जा सकैत अछि। आ ज्ञानक एहि अभावक कारणे साहित्यक प्रति हमर सबहक दृष्टिकोण वस्तुनिष्ठ आ आलोचनात्मक बनबाक बजाए व्यक्तिनिष्ठ भ’ सकैत अछि।

आलोचकक ई दायित्व होइत छै जे कि ओ रचनाकार विशेष पर चर्चा करैत ओकर समग्र रचना केँ एकटा अभिन्न इकाईक रूपमे देखै। आ तखन फेर परंपरा मे ओकरा चिन्हित करैत युगीन परिप्रेक्ष्य मे ओकर आ आन-आन महत्वपूर्ण रचनाकारक तुलनात्मक अध्ययन करै। एहि प्रक्रिया मे ओ नहि मात्र रचनाकार विशेष केर व्यक्तित्व विकासक विभिन्न मोड़ सँ परिचित होइत जेतै, अपितु ओ एकटा बड्ड पैघ कालखंडक निर्माण करै बला परिस्थितिक, घटनाक आ शास्त्र व्यवस्थाक भितरिया बनावट सँ सेहो परिचित होइत जेतै।

“आलोचनाक पहिल दायित्व थिक – अपन समय केँ बूझब।”

कारण जे समय आ परिस्थितिक अनुरूप साहित्य आ समाज दोनो मे परिवर्तन होइत रहल अछि। समयक एहि प्रवाह आ प्रभाव मे मार्क्सवाद आ उपभोक्तावाद सन विचारधारा बहुत पाछू रहि गेल अछि। आब तँ एक्कीसम सदीक ई युग मिथ्यावादक युग थिक। जत’ की विज्ञापन आ आत्मप्रचारक सहारे सत्य के असत्यक रंगीन रौशनी सँ झांपि देल जाएत छै।जतेक नमहर झूठ ओतेक नमहर जयघोष। जतेक ऊंच प्रतिमा ओतेक बौना कद। जखन कि आलोचना तँ धाराक विरुद्ध हेलबाक स’ख थिक। समस्त खतरा कऽ कतियाके जे साहसपूर्वक सच के समय आ समाजक आगू राखैत अछि, सैह वास्तविक आलोचना थिक।

हिंदी साहित्यक पहिल आलोचक छलाह पं रामचन्द्र शुक्ल, जिनकर आलोचनाक कसौटी पर तत्कालीन रचनाकारक रचना केँ कसल गेल छल। फेर साहित्यक क्रमिक विकास मे हिंदी साहित्यक क्षेत्रमे मुक्तिबोध ‘सभ्यता समीक्षा’ केर बात कहैत रहलाह। नि:संदेह, मुक्तिबोध पर सेहो मार्क्सवादी प्रभाव छल। मुदा, एहेन मानि लेने सँ, चलि आबि रहल विचारधाराक वर्चस्वक बात त तखन फुइस साबित भ सकैत अछि। कारण जे विचारधारा तँ हर बौद्धिक संवेदनशील चेतना केँ प्रभावित करैत अछि। जखन कि मुक्तिबोध सेहो अपनहिं आत्मालोचनक आ आत्मान्वेषणक मूर्त रुपमे नजरि अबैत छथि। तैं संभवत: ई कहल जाइत छैक जे आलोचक सेहो जीवन भरिक विकासक एहि परिवर्तन यात्राक पथिक रहैत अछि। नलिन विलोचन शर्मा आ की रामविलास शर्मा, सब कियो वैचारिक दृष्टिकोण सँ आलोचनाक काज करैत रहलाह अछि।

नव पीढ़ीकेँ निरन्तर उत्प्रेरित करबाक लेल मैनेजर पांडेय सेहो आलोचनाक काज करैत रहलाह। हुनका सँ २००८ इस्वी मे पटना पुस्तक मेला मे हमरा भेंट भेल छल। तखन हम हुनका सँ पुछने रहियनि जे लेखनक क्षेत्र मे एतेक संघर्ष किएक रहैत छै श्रीमान। तँ ओ झट सँ जवाब देलखिन्ह जे

“कमर डोलाबै, टक्का पाबै आ कलम चलाबै, धक्का खाबै”

हम तत्क्षण एहि बातक विशेष अर्थ त नहिं बूझि सकल रहि। मुदा, आब हमरा ओहि बातक अर्थ बूझबा मे आबि रहल अछि। तैं आब हमरा लागि रहल अछि जे एहि भाषा आ साहित्यक क्षेत्रमे सेहो बहुत रास नटुआ सब अपन करतब देखाकें बहुत रास पैसा, पुरस्कार आ प्रसिद्धि तीनू पाबि रहल अछि।

एकटा आर विशेष बात जे एखन अपना समाज मे पोथी पढैबलाक संख्या, पोथी लिखैबलाक संख्याक तुलना मे बहुत कमतर अछि। कारण जे आब लोक ओतबे टा पोथी पढ़ैत अछि कि जकरा पढला सँ नीक नौकरी भेटि सकैत होए। एखन अपना समाज मे भोगवादी प्रवृत्ति ततेक नै बढि गेल अछि जे आब जीवनक उद्देश्ये बदलि गेल अछि। तँ एहेन सन समय आ समाज मे लेखको आ कि प्रकाशको सभक विवशता छैक। आ ताहि लेल कोनो लेखक आ कि प्रकाशक केँ प्रचारक विविध माध्यमक संग डिजिटल सहायताक उपयोग करैये पड़तनि। मुदा, एहि प्रक्रिया मे जे एकटा नब परंपरा निर्मित भ’ गेल अछि, से प्रशंसनीय नहिं कहल जा सकैत अछि। ओ परंपरा अछि –

– मुफ्त मे पोथी बंटबाक परंपरा !

हम अपनहिं एकर शिकार भेल छी। मुदा, आब हम अपना केँ सम्हारै के प्रयास क’ रहल छी। कारण जे, एहि परंपराक दुष्परिणाम ई होइत अछि जे कि ई किछ नब पीढ़ीकेँ समीक्षक आ कि आलोचक केँ किंकर्तव्यविमूढक स्थिति मे राखि दैत अछि। हमरा ई नहिं बूझल अछि जे पूर्वोके पीढ़ीकेँ किछ लोक एहि स्थिति सँ गुजरि रहल छलाह आ कि नहि। मुदा, मैथिली भाषा मे आलोचनाक संकट बेसी गहींर भेल अछि। आंगुर पर गिनल गुथल नाम अछि। आ ताहू मे किछु लोक पूर्वाग्रह सँ ग्रसित छथि। किछ त एहनो लोक छथि जे अपन हरेक पोथी मे अपन आपबीती लिखिते टा छथि। आ अपन एहि क्रिया लेल ओ कहै छथि जे ई हमर भोगल यथार्थ थिक। बंधु! भोगल यथार्थ त कतहुं एक्के ठाम लिखबै ने। आ कि जे किछ लिखबै वा जत’ कतहुं बाजबै सब ठाम भोगले यथार्थ बाजबै। माने की अहाँक भोगल यथार्थ नहि भेल सृजनक आधार बनि गेल। जे जिनगी एक बेर भोगि लेने छी, ओकरा लिखियो लेने छी; तखन बेर-बेर ओहि बातक विशेष चर्चा किएक। किछ नब लिखबाक प्रयास हेबाक चाही।

हम मैथिली भाषा आ साहित्यक क्षेत्रमे देखि रहल छी जे किछ समीक्षक (नहि जानि सही मायने मे ओ छथि कि नहि) धराधर समीक्षा क’ रहल छथि। जेनां की हुनका कपार पर लेखकक आ कि प्रकाशकक राखल एकटा भारी बोझ होए, जकरा कि उतारब ओ अतिआवश्यक बुझैत छथि। मुदा ओ बिसरि जाइत छथि जे हड़बड मे सब गड़बड़ भऽ जाएत छै। आ एकर सबसँ पैघ दुष्परिणाम ई होइत छै जे जाहि पोथीक समीक्षा ओहि पोथीक रचनाकारक समय काल आ परिस्थितिक परिप्रेक्ष्य मे ओहि रचनाके ऐतिहासिकता के देखैत आन-आन रचनाकारक संग ओकर तुलनात्मक अध्ययन कएलाक बाद एकटा उचित निष्कर्ष दैत हेबाक चाही; से नहि होइत छैक। तैं बेसी काल तँ ओऽ समीक्षा व्यक्तिनिष्ठ भ’ जाइत छैक।

हमरा सभकें एहि स्थिति सँ बाहर निकलि कय एकटा स्वस्थ आ सार्थक हस्तक्षेप करैत समीक्षा करबाक चाही। आ मुफ्त मे भेटल पोथीके कपारक भार बुझिकय ओकर समीक्षा नहिं करबाक चाही। एहेन कयला पर बेसी समय ओकर व्यक्तिनिष्ठ होएबाक संभावना बनल रहैत छैक।

हमरा सभकें ई मोन रखबाक चाही जे आलोचक सेहो एकटा लोक होइत अछि आ आलोचना सेहो एकटा विधा थिक।  तखन तँ ई आवश्यक भ जाइत अछि जे हमरा सभकें अपन मर्यादा के बुझबाक जरुरत छै। मर्यादा मे रहब सेहो एकटा साहित्यिक संस्कारे थिक। आ हमरा सभकें अपन संस्कार बचाकें रखबाक आवश्यकता अछि। कारण जे संस्कार रहत त साहित्य रहत आ साहित्य रहत त तखनहिं ई समाज बांचल रहत।