स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
अंगद-राम संवाद, युद्ध केर तैयारी
१. एम्हर सुबेल पर्वत पर श्री रामजी अंगद केँ बजौलनि। ओ आबिकय चरणकमल मे सिर नमौलनि। बहुत आदर सँ ओ लग मे बैसिकय खर (राक्षस) केर शत्रु कृपालु श्री रामजी हँसिकय बजलाह – हे बालि केर पुत्र! हम बहुत उत्सुक भ’ रहल छी। हे तात! ताहि चलते हम अहाँ सँ पुछैत छी, सच सच कहब कि जे रावण राक्षस सभक कुल केर तिलक थिक आ जेकर अतुलनीय बाहुबल केर जग भरि मे धाक छैक, तेकर चारि गोट मुकुट अहाँ फेंकने रही। हे तात! कहू, अहाँ ओ मुकुट सब केना पाबि गेलहुँ!
२. अंगद कहलखिन – हे सर्वज्ञ! हे शरणागत केँ सुख देनिहार! सुनू। ओ मुकुट नहि थिक। ओ त राजाक चारि गुण थिक। हे नाथ! वेद कहैत अछि जे साम, दान, दण्ड आर भेद – ई चारू राजाक हृदय मे बसैत अछि। ई नीति-धर्म केर चारि सुन्दर चरण थिक, मुदा रावण मे धर्म केर अभाव छैक, एना मोनेमोन जानिकय ई नाथ लग आबि गेल। दशशीश रावण धर्महीन, प्रभुक पद सँ विमुख आर काल केर वश मे अछि, ताहि लेल हे कोसलराज! ओ गुण सब रावण केँ छोड़िकय अपने लग आबि गेल अछि।
३. अंगदक परम चतुरता सँ परिपूर्ण उक्ति कान सँ सुनिकय उदार श्री रामचंद्रजी हँसय लगलाह। फेर बालि पुत्र किलाक (लंका केर) सबटा समाचार कहलनि। जखन शत्रु केर समाचार प्राप्त भ’ गेलनि तखन श्री रामचंद्रजी सब मंत्री लोकनि केँ अपना लग बजौलनि आ कहलनि – लंकाक चारि टा अत्यन्त विकट दरबज्जा छैक। ओहि पर कोन तरहें आक्रमण कयल जाय एहि पर विचारय जाउ।
४. ताहि पर बानरराज सुग्रीव, ऋक्षपति जाम्बवान् आर विभीषण हृदय मे सूर्यकुल केर भूषण श्री रघुनाथजीक स्मरण कयलनि आर विचार कयकेँ ओ सब अपन-अपन कर्तव्य निश्चित कयलनि। बानर सभक सेनाक चारि टा दल बनल। आर सब दल लेल यथायोग्य (जेहेन चाही ओहेन) सेनापति नियुक्त कयलनि। फेर सब यूथपति लोकनि केँ बजा लेलनि आ प्रभु केर प्रताप कहिकय सबकेँ बुझौलनि, जेकरा सुनिकय बानर सब, सिंह जेकाँ गर्जना करैत दौड़ि पड़ल। ओ सब हर्षित भ’ श्री रामजीक चरण मे सिर नमबैत अछि आ पर्वत सभक शिखर लय-लयकय सब वीर दौड़ैत अछि।
५. ‘कोसलराज श्री रघुवीरजीक जय हो’ केर नारा लगबैत भालू आ बानर सब गरजैत आ ललकारैत अछि। लंका केँ अत्यन्त श्रेष्ठ (अजेय) किला जनिते बानर सब प्रभु श्री रामचंद्रजीक प्रताप से निडर भ’ कय चलल। चारू दिश सँ मेघक बदरा जेकाँ चारू तरफ सँ लंका केँ घेरिकय ओ सब मुंह सँ डंका आ भेरी बजाबय लागल।
हरिः हरः!!