रामचरितमानस मोतीः रावण केँ फेरो मन्दोदरी द्वारा बुझेनाय

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

रावण केँ फेरो मन्दोदरी द्वारा बुझेनाय

१. अंगद श्री रामजीक दूत बनि आयल छलाह, रावण केँ खूब नीक सँ ओकर असल ओकादि देखाकय निडर-निःशंक भ’ रणभूमि मे रावण केँ देखि लेबाक चुनौती दैत वापस गेलाह। एम्हर रावण अपन सभा सँ सन्ध्या भेल बुझैत काफी उदास भ’ महल मे गेल।

२. मन्दोदरी रावण केँ बुझबैत फेरो कहली – “हे कान्त! मोन मे विचारिकय कुबुद्धि केँ छोड़ू। अहाँ केँ श्री रघुनाथजी सँ युद्ध शोभा नहि दैछ। हुनक छोट भाइ कनी टा के रेखा खिंचि देने रहथि, तेकरो अहाँ नहि नाँघि सकल छलहुँ, एहेन त अहाँक पुरुषत्व अछि।

हे प्रियतम! अहाँ हुनका संग्राम मे जिति पायब, जिनकर दूत एहेन काज कयलक अछि? खेले-खेल सँ समुद्र नाँघिकय ओ बानर सब मे सिंह हनुमान् अहाँक लंका मे निर्भय चलि आयल। रखबार केँ मारिकय ओ अशोक वन उजाड़ि देलक। अहाँक देखिते-देखिते ओ अक्षयकुमार केँ मार देलक आर संपूर्ण नगर केँ जराकय खाख कय देलक। ताहि समय अहाँक बल केर गर्व कतय चलि गेल छल?

आब हे स्वामी! झूठे गाल नहि मारू, गप जुनि हाँकू। हमर कहय पर कनिको विचार करू। हे पतिदेव! अहाँ श्री रघुपति केँ मात्र राजा जुनि बुझू, बल्कि अग-जगनाथ (चराचर केर स्वामी) आर अतुलनीय बलवान्‌ बुझू।

श्री रामजीक बाण केर प्रताप त नीच मारीच सेहो जनैत छल लेकिन अहाँ ओकरो कहब नहि मानलहुँ।

जनकक सभा मे अगणित राजागण रहथि, ताहि ठाम विशाल आ अतुलनीय बलवला अहाँ सेहो रही। ओतय शिवजीक धनुष तोड़िकय श्री रामजी जानकी केँ ब्याहलनि, तहिया अहाँ हुनका संग्राम मे कियैक नहि जितलहुँ?

इंद्रपुत्र जयन्त हुनकर बल केँ किछु-किछु जनैत अछि। श्री रामजी पकड़िकय खाली ओकर एकटा आँखि टा फोड़ि देलखिन आ ओकरा जिबिते छोड़ि देलखिन।

शूर्पणखाक दशा तँ अहाँ देखिये लेलहुँ, तैयो अहाँक हृदय मे हुनका सँ लड़बाक बात सोचिकय कनिको लाज नहि अबैछ! जे विराध आर खर-दूषण केँ मारिकय लीला भरि सँ कबन्ध केँ सेहो मारि देलनि आ जे बालि केँ एक्कहि बाण सँ मारि देलनि।

हे दशकन्ध! अहाँ हुनका चिन्हू! जे खेलहि सँ मात्र समुद्र केँ बान्हि लेलनि आर जे प्रभु सेना सहित सुबेल पर्वत पर आबि गेलाह, ओहि सूर्यकुल केर ध्वजास्वरूप करुणामय भगवान् अहींक हित लेल दूत पठौलनि। जे बीच सभा मे आबिकय अहाँक बल केँ ओहि तरहें मथि देलक जेना हाथी सभक झुंड मे आबिकय सिंह!

रण मे बहादुर अत्यन्त विकट वीर अंगद आ हनुमान् जिनकर सेवक छथि, हे पतिदेव! हुनका अहाँ बेर-बेर मनुष्य कहैत छियनि।

अहाँ व्यर्थहि मे मान, ममता आ मद केर बोझ उठा रहल छी! हा प्रियतम! अहाँ श्री रामजीक विरोध कयलहुँ आर काल के विशेष वश भेला सँ अहाँक मोन मे आबहु ज्ञान नहि भ’ रहल अछि।

काल दण्ड (लाठी) लय कय केकरहु नहि मारैछ। ओ धर्म, बल, बुद्धि आ विचार केँ हरि लैत अछि। हे स्वामी! जेकर काल (मरबाक समय) निकट आबि जाइत अछि, ओकरा अहीं जेकाँ भ्रम भ’ जाइत छैक।

अहाँक दुइ पुत्र मारल गेल आर नगर जरि गेल। जे भेल से भेल, हे प्रियतम! आबहु एहि भूल केर अन्त करू आ श्री रामजी सँ वैरी त्यागिकय हे नाथ! कृपाक समुद्र श्री रघुनाथजी केँ भजिकय निर्मल यश प्राप्त करू।

३. स्त्रीक बाण समान वचन सुनिकय ओ भोर होइते उठिकय सभा मे चलि गेल आ सबटा भय बिसराकय खूब अभिमान मे चूर भ’ सिंहासन पर जा बैसल।

हरिः हरः!!