– उमाकान्त झा ‘बक्शी’
वयस मारलक चारिम थापड़। आन्हर आँखि कान भेल पाथर॥
नहि सूनी नहि देखी आब। करू नीक बा खून – ख़राब॥
नेता लूटू, खाउ, पकाउ। जाति – जाति केँ खूब लड़ाउ॥
धर्मक ठिकेदार कहाउ। खूब अधर्मक पाठ पढाउ॥
बेचू बेटा‚ लियऽ दहेज़। खाउ कन्यागतक करेज॥
पुत्रवधू के आगि लगाउ। राम राम सत चिता सजाउ॥
पूर्वज केर करिऔ गुणगान। हम छी मैथिल बड़ी महान॥
भाइ-भाइ मे करू लड़ाइ। घर घराड़ी बाँटू आइ॥
दीनहीन सँ खेत लिखाउ। संस्कार केर पाठ पढ़ाउ॥
माय बाप केँ करिऔ भीन। स्वयं पलंग पर सुखक नीन॥
एक दोसर केर खींचू टाँग। आगाँ बढ़य न अपन समांग॥
नहि भेटय जँ सहजहि भांग। करू विदेशी दारूक मांग॥
उपजत सहजहिं गप्पक खेती। खूब बघारू अप्पन सेखी॥
बना दिऔ मिथिला केँ नर्क। “बक्शी” केँ कि पड़तै फर्क॥
सकारात्मक अछि “बक्शी” भेल। तैयारी छैक जयबा लेल॥
मानू अहाँ नहि मानू बात। सदिखन सत्य करू आत्मसात॥