रामचरितमानस मोतीः अंगदजीक लंका गेनाय आर रावणक सभा मे अंगद-रावण संवाद

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

अंगदजीक लंका गेनाय आर रावणक सभा मे अंगद-रावण संवाद

१. एम्हर सुबेल पर्वत पर प्रातःकाल श्री रघुनाथजी जगलाह आर ओ सब मंत्री लोकनि केँ बजाकय सलाह पुछलनि जे आब जल्दी कहय जाउ कि कोन उपाय करबाक चाही? जाम्बवान्‌ श्री रामजीक चरण मे सिर नमवैत कहलखिन – हे सर्वज्ञ (सब किछु जननिहार)! हे सभक हृदय मे बसनिहार (अंतर्यामी)! हे बुद्धि, बल, तेज, धर्म आर गुण सभक राशि! सुनू! हम अपन बुद्धि अनुसार सलाह दैत छी जे बालिकुमार अंगद केँ दूत बनाकय पठायल जाय।

२. ई नीक सलाह सभक मोन केँ जँचि गेलनि। कृपाक निधान श्री रामजी अंगद सँ कहलखिन – हे बल, बुद्धि आर गुण केर धाम बालिपुत्र! हे तात! अहाँ हमर काज वास्ते लंका जाउ। अहाँ केँ बेसी कि बुझाउ! हमरा पता अछि जे अहाँ परम चतुर छी। शत्रु सँ बात करबाक, जाहि सँ हमर काज हो आ ओकरहु कल्याण हो।

३. प्रभुक आज्ञा माथ चढ़ा आर हुनक चरणक वंदना कय केँ अंगदजी उठलाह आ बजलाह – “हे भगवान्‌ श्री रामजी! अपने जेकरा उपर कृपा करैत छी, ओ गुणहि-गुण के समुद्र भ’ जाइत अछि। हे स्वामी! सबटा काज अपने-आप सिद्ध भ’ जाइछ, ई त प्रभु हमरा आदर देलहुँ जे अपन काज पर हमरा पठा रहल छी।” एना विचारिकय युवराज अंगद केर हृदय हर्षित आर शरीर पुलकित भ’ गेलनि। चरणक वंदना कयकेँ और भगवान्‌ केर प्रभुता हृदय मे धारण कय अंगद सब केँ सिर नमाकय चलि देलाह।

४. प्रभुक प्रताप केँ हृदय मे धारण कएने रणबाँकुरा वीर बालिपुत्र स्वाभाविके निर्भय छथि। लंका मे प्रवेश करिते देरी रावणक पुत्र सँ भेंट भ’ गेलनि, जे ओतय खेला रहल छल। बाते-बात मे दुनू मे झगड़ा भ’ गेलनि, दुनू अतुलनीय बलवान् रहथि आ फेर दुनू गोटेक युवावस्था सेहो रहनि। रावणक पुत्र अंगद पर लात उठौलक। अंगद वैह लात पकड़िकय ओकरा घुमाकय जमीन पर पटका मारि खसा देलखिन। ई देखि राक्षसक समूह भारी योद्धा देखि जहाँ-तहाँ भागि गेल, ओ सब डर के चलते हल्लो-शोर नहि मचा सकल।

५. एक-दोसरक मर्म (असली बात) कियो नहि कहैत अछि, रावणक पुत्र केर वध भेल बुझि सब कियो चुप्पी साधिकय रहि जाइत अछि। रावण पुत्र केर मृत्यु जानि आ राक्षस सब केँ भय के मारे भगैत देखिकय भरि नगर मे शोर मचि गेल कि जे लंका जरौने छल, वैह बानर फेरो आबि गेल अछि। सब अत्यन्त भयभीत भ’ विचार करय लागल जे नहि जानि विधाता आगू कि करता। ओ सब बिन पुछनहिये अंगद केँ रावणक दरबार जेबाक बाट बता दैत अछि।

६. अंगद जेकरे देखैत छथिन, वैह डर सँ थरथरा लगैत अछि। श्री रामजीक चरणकमल केर स्मरण कयकेँ अंगद रावणक सभा केर द्वार पर गेलथि आ ओ धीर, वीर तथा बल केर राशि सिंह जेकाँ शान सँ एम्हर-ओम्हर देखय लगलाह। तुरंते ओ एकटा राक्षस केँ पठौलनि आ रावण केँ अपन अयबाक सूचना देबाक लेल कहलखिन। सुनिते देरी रावण हँसिकय बाजल – बजेने आबे, देखी कतय के बंदर छी। आज्ञा पाबि बहुते रास दूत सब दौड़ल आ बानर सब मे हाथी जेकाँ देखायवला अंगद केँ बजा अनलक।

७. अंगद रावण केँ एना बैसल देखलक जेना कोनो प्राणयुक्त काजर के पहाड़ हुए! भुजा सब गाछ जेहेन आ माथ पर्वतक शिखर समान छैक। रोमावली मानू जेना बहुते रास लत्ती सब जेकाँ छैक। मुँह, नाक, नेत्र आर कान पर्वतक कन्दरा आर खोह जेकाँ छैक।

८. अत्यन्त बलवान्‌ बाँका वीर बालिपुत्र अंगद सभा मे गेलाह, ओ मोन मे कनिको नहि झिझकला। अंगद केँ देखिते सब सभासद् उठिकय ठाढ़ भ’ गेल। ई देखि रावणक हृदय मे बड़ा भारी क्रोध भेलैक। जेना मतवाला हाथी सभक झुंड मे सिंह (निःशंक भ’ कय) चलल जाइत अछि, तहिना श्री रामजीक प्रताप केँ हृदय मे स्मरण कयकेँ ओ (निर्भय) सभा मे सिर नमाकय बैसि रहलाह।

९. रावण कहैत अछि – अरे बंदर! तूँ के छिएं? अंगद जवाब दैत छथिन – “हे दशग्रीव! हम श्री रघुवीर केर दूत थिकहुँ। हमर पिता आर अहाँ मे मित्रता छल, तेँ हे भाइ! हम अहाँक भलाई वास्ते एतय आयल छी। अहाँक उत्तम कुल अछि, पुलस्त्य ऋषिक अहाँ पौत्र छी। शिवजी आ ब्रह्माजी केर अहाँ बड नीक सँ पूजा कयलहुँ। हुनका सब सँ वरदान पेलहुँ आ सब कामना सिद्ध भेल। लोकपाल आ राजा सब केँ सेहो अहाँ जित लेलहुँ। राजमद सँ या मोहवश अहाँ जगज्जननी सीताजी केँ हरण कय अनलहुँ अछि। आब अहाँ हमर शुभ वचन – हमर हितकारी सलाह सुनू! ताहि मुताबिक चलला सँ प्रभु श्री रामजी अहाँक सब अपराध क्षमा कय देता। दाँत तर खैरका दबाउ, गरदैन पर कुरहैर राखू आ कुटुम्ब सभक संग अपन स्त्री सब केँ संगहि लयकय आदरपूर्वक जानकीजी केँ आगू कय, एहि तरहें सबटा भय छोड़िकय चलू। आर ‘हे शरणागत केर पालन करनिहार रघुवंश शिरोमणि श्री रामजी! हमर रक्षा करू, रक्षा करू।’ एहि तरहें आर्त प्रार्थना सुनिते प्रभु अहाँ केँ निर्भय कय देता।”

१०. रावण बाजल – “अरे बंदरक बच्चा! सम्हरिकय बाज! मूर्ख! हम देवता लोकनिक शत्रु केँ तूँ चिन्हलें नहि? अरे भाइ! अपन आ अपना बापक नाम त बता। कोन नाता सँ मित्रता मनैत छँ?” अंगद कहलखिन – “हमर नाम अंगद अछि, हम बालि केर पुत्र छी। हुनका संग कहियो तोरा भेंट भेल छलह?” अंगदक वचन सुनिते रावण किछु सकुचा गेल आ बाजल – “हाँ, हम बुझि गेलहुँ, हमरा याद आबि गेल। बालि नामक एकटा बंदर छल। अरे अंगद! त तूँ बालि केर बेटा थिकें? अरे कुलनाशक! तूँ त अपनहि कुलरूपी बाँस लेल अग्निरूप जन्म भेल छँ! गर्भहि मे कियैक नहि नष्ट भ’ गेलें तूँ? व्यर्थहि जन्म लेलें जे अपनहि मुंह सँ तपस्वी लोकनिक दूत हेबाक बात बजलें! आब बालि केर कुशल त कहे, ओ आइ-काल्हि कतय अछि?”

११. तखन अंगद हँसिकय कहलखिन – “किछु दिन बितला पर अपने तूँ बालि लग जेबह, अपन मित्र केँ गला लगाकय हुनकहि सँ कुशलक्षेम पुछिहनु। श्री रामजी सँ विरोध कयला सँ जेहेन कुशल होइत छैक, से सबटा बात ओ तोरा अपनहि सुनेथुन। अरे मूर्ख! सुनह! भेद नीति ओकरे उपर अपन प्रभाव छोड़ैत छैक जेकर हृदय मे श्री रघुवीर नहि होइथ। सच छय, हम त कुल केर नाश करयवला छी आर हे रावण! तूँ कुल केर रक्षक थिकह। आन्हरो-बहीर सब ई बात नहि कहतह, तोहर त बीस गोट आँखि आ बीस गोट कान छह! शिव, ब्रह्मा (आदि) देवता आ मुनी लोकनिक समुदाय जिनकर चरणक सेवा करय चाहैत छथि, हुनकर दूत भ’ कय हम कुल केँ डुबा देलहुँ? अरे एहेन बुद्धि भेला पर तोहर हृदय फटैत कियैक नहि छह?”

१२. बानर (अंगद) केर कठोर वाणी सुनिकय रावण आँख गुरारिकय बाजल – “अरे दुष्ट! हम तोहर सबटा कठोर वचन एहि लेल सहि रहल छी जे हम नीति आ धर्म केँ जनैत ओकर रक्षा कय रहल छी।” अंगद कहैत छन्हि – “तोहर धर्मशीलता हमहुँ खूब सुनने छी। ओ ई जे तूँ पराया स्त्रीक चोरी कएने छह! आर दूतक रक्षा केर बात तँ अपन आँखि सँ देख लेलहुँ। एहेन धर्म के व्रत धारण (पालन) करयवला तूँ डूबिकय मरि नहि जाय होइ छह! नाक-कान सँ रहित बहिन केँ देखिकय तूँ धर्महि विचारि कय त क्षमा कय देने रहक! तोहर धर्मशीलता जगजाहिर छह। हमहुँ बड भाग्यवान् छी, जे हम तोहर दर्शन पेलहुँ!”

१३. रावण फेरो कहैत अछि – “अरे जड़ जन्तु बानर! व्यर्थ बक-बक जुनि कर, अरे मूर्ख! हमर भुजा सब देख। ई सबटा लोकपाल सभक बलरूपी चन्द्रमा केँ गिरयवला राहु थिक। फेर तूँ सुननहिये हेमें जे आकाशरूपी पोखरि मे हमर भुजारूपी कमल पर बैसिकय शिवजी सहित कैलास हंस जेकाँ शोभा प्राप्त कएने छल! अरे अंगद! सुने, तोहर सेना मे बता, एहेन कोन योद्धा छौक जे हमरा सँ भिड़ सकत! तोहर मालिक त स्त्रीक वियोग मे बलहीन भ’ रहल छौक आर ओकर छोट भाइ ओकरहि दुःख सँ दुःखी आ उदास अछि। तूँ आर सुग्रीव, दुनू (नदी) तट केर गाछ थिकें, आ रहल हमर छोट भाइ विभीषण, ओ त भारी डरपोक अछि। मंत्री जाम्बवान्‌ बहुते बूढ़ भेल। ओ आब लड़ाइ मे कि चढ़ाइ कय सकत? नल-नील त शिल्प-कर्म जनैत अछि, ओ लड़नाय कि बुझय गेल? हाँ, एकटा बानर जरूर महान्‌ बलवान्‌ छौक, जे पहिने आयल छल आर ओ लंका जरौने छल।”

१४. ई वचन सुनिते बालिपुत्र अंगद कहैत छथिन – “हे राक्षसराज! सच बात कह! कि ओ बानर सच्चे तोहर नगर जरा देने छलौक? रावण जेहेन जगद्विजयी योद्धाक नगर एक छोट सन बानर जरा देलकौ। एहेन वचन सुनिकय ओकरा सत्य के कहतैक? हे रावण! जेकरा तूँ बड़का योद्धा कहिकय सराहना कयलें, ओ त सुग्रीवक एक गोट छोट सन दौड़ि-दौड़िकय काज करयवला हरकारा टा थिक। ओ बहुत चलैत अछि, वीर नहि अछि। ओकरा त हम सब खाली खोज-खबरि लेबाक लेल पठेने रही। कि सचमुच मे ओ बानर प्रभुक आज्ञा पेने बिना तोहर नगर जरा देलकौ? बुझि पड़ैत अछि, यैह डर सँ ओ घुमिकय सुग्रीव लग नहि गेल आ कतहु नुका रहल! हे रावण! तूँ सब किछु सत्ये कहैत छँ, हमरा सुनिकय कनिकबो क्रोध नहि भेल। सचमुच हमरा सभक सेना मे कियो एहेन नहि अछि जे तोरा सँ लड़य मे शोभा पाओत। प्रीति आ वैर बराबरीवला सँ मात्र करबाक चाही, नीति एहने अछि। सिंह जँ बेंग केँ मारय, त कियो ओकरा नीक कहतैक? यद्यपि तोरा मारय मे श्री रामजी केर लघुता हेतनि आ बड़ा दोष सेहो हेतैक, तथापि हे रावण! सुने! क्षत्रिय जाति केर क्रोध बड़ा कठिन होइत छैक।”

१५. वक्रोक्तिरूपी धनुष सँ वचनरूपी बाण मारिकय अंगद शत्रुक हृदय जरा देलक। वीर रावण ओहि बाण सभक मानू प्रत्युत्तररूपी सँड़सी सब सँ निकालि रहल अछि। रावण हँसिकय कहैत अछि – “बंदर मे ई एकटा बड़का गुण छैक कि ओकरा जे पोसैत अछि, तेकर ओ अनेकों उपाय सब सँ नीक करबाक चेष्टा करैत रहैत छैक। बंदर सब धन्य अछि, जे अपना मालिक लेल लाज छोड़िकय जहाँ-तहाँ नाचैत अछि। नाचि-कुइद कय, लोक केँ रिझाकय, मालिकक हित करैत अछि। ई ओकर धर्मक निपुणता थिकैक। हे अंगद! तोहर जाति स्वामिभक्त छौक, फेर भला तूँ अपन मालिकक गुण एहि तरहें केना नहि बखानमें? हम गुण ग्राहक (गुण सभक आदर करयवला) आर परम सुजान (समझदार) छी, एहि सँ तोहर जरल-झरकल बक-बकी पर ध्यान नहि दैत छी।”

१६. अंगद कहैत छथि – “तोहर सच्चा गुण ग्राहकता त हमरा हनुमान्‌ सुनौने छल। ओ अशोक वन मे विध्वंस (तहस-नहस) कयकेँ, तोहर बेटा केँ मारिकय नगर केँ जरा देने छलौक। तैयो तूँ अपन गुण ग्राहकता केर कारण यैह बुझलें जे ओ तोहर कोनो अपकार नहि कयलकौक। तोहर वैह सुन्दर स्वभाव विचारिकय, हे दशग्रीव! हम किछु धृष्टता कयलहुँ अछि। हनुमान्‌ जे किछु कहने छल, से बात एतय आबि हम प्रत्यक्ष देख लेलहुँ जे तोरा न कोनो लाज छौक, न क्रोध छौक आ नहिये कोनो चिढ़ छौक।”

१७. रावण जवाब दैत बाजल – “अरे बानर! जखन तोहर एहने बुद्धि छौक, तखन न तूँ बाप केँ खा गेलें।” एहेन वचन बाजिकय रावण हँसल। अंगद जवाब दैत छथिन – “पिता केँ खाकय फेर तोरो खा लितहुँ, मुदा एखन तुरन्त किछु आरे बात हमरा बुझय मे आबि गेल! अरे नीच अभिमानी! बालि केर निर्मल यश केर पात्र बुझि हम तोरा नहि मारैत छी। रावण! ई त बता जे जगत् मे कतेक रावण अछि? हम जतेक रावण सभक बारे मे अपन कान सँ सुनने छी, से सुन – एकटा रावण केँ राजा बलि जितने छल आ पाताल मे रखने छल, बच्चा सब ओकरा घोड़साल मे बान्हिकय रखने छल। बच्चा सब खेलाइत छल आ जा-जाकय ओकरा मारैत छल। बलि केँ दया आबि गेलैक त ओ ओकरा छोड़ा देलक। फेर एकटा रावण केँ सहस्रबाहु देखलक, आर ओ दौड़िकय ओकरा एक गोट विशेष प्रकारक (विचित्र) जन्तु जेकाँ बुझैत पकड़ि लेलक। तमाशा लेल ओ ओकरा घर लय अनलक। तखन पुलस्त्य मुनि जाकय ओकरा छोड़ौलनि। एकटा रावण के बात कहय मे त हमरा बहुत लाज भ’ रहल अछि, ओ बहुते दिन धरि बालि केर काँख मे रहल छल। एहि मे सँ तूँ कोन रावण थिकें? खौंझेनाय छोड़िकय सच-सच बता त!”

१८. रावण ताहि पर कहलक – “अरे मूर्ख! सुन, हम वैह बलवान्‌ रावण छी, जेकर भुजा केर लीला (करामात) कैलास पर्वत जनैत अछि। जेकर शूरता उमापति महादेवजी जनैत छथि, जिनका अपन सिररूपी पुष्प चढ़ा-चढ़ाकय हम पूजा कएने रही। सिररूपी कमल केँ अपन हाथ सँ उतारि-उतारिकय हम अगणित बेर त्रिपुरारि शिवजीक पूजा कयलहुँ अछि। अरे मूर्ख! हमर भुजाक पराक्रम दिक्पाल जनैत छथि, जिनकर हृदय मे ओ आइ धरि चुभन दय रहल छन्हि। दिग्गज (दिशाक हाथी) हमर छातीक कठोरता केँ जनैत छथि। जिनकर भयानक दाँत, जहिया-जहिया जाकय हम हुनका सँ जबरदस्ती भिड़लहुँ, हमर छाती पर कहियो नहि फुटलाह, अपन चिह्न तक नहि बना सकलाह, बल्कि हमर छाती सँ लगिते ओ स्वयं मूरइ जेकाँ टुटि गेलाह। जिनकर चलैत समय पृथ्वी एहि तरहें हिलैत अछि जेना मतवाला हाथीक चढ़ैत समय छोट नाव! हम वैह जगत प्रसिद्ध प्रतापी रावण छी। अरे झूठक बकवास करनिहार! कि तूँ हमरा बारे मे कान सँ नहि सुनलें? ओहि महान प्रतापी आर जगत प्रसिद्ध रावण केँ तूँ छोट कहैत छँ आर मनुष्यक बड़ाइ करैत छँ? अरे दुष्ट, असभ्य, तुच्छ बंदर! आब हम तोहर ज्ञान जानि लेलहुँ।”

१९. रावणक ई वचन सुनिकय अंगद क्रोध सहित वचन बजलाह – “अरे नीच अभिमानी! सोचि-बुझिकय बाज। जिनकर फरसा सहस्रबाहुक भुजारूपी अपार वन केँ जरेबाक लेल अग्नि समान छल, जिनकर फरसा रूपी समुद्र केर तीव्र धारा मे अनगिनत राजा अनेकों बेर डुबि गेल, ताहि परशुरामजीक गर्व जिनका देखिते भागि गेल, अरे अभागा दशशीश! ओ मनुष्य केना क भेलथि?

ऐँ रे मूर्ख उद्दण्ड! श्री रामचंद्रजी मनुष्य छथिन? कामदेव सेहो कि धनुर्धारी छथि? आर गंगाजी कि नदी छथि? कामधेनु कि पशु छथि? आर कल्पवृक्ष कि गाछ छथिन? अन्न सेहो कि दान थिक? आर अमृत कि रस छियैक? गरुड़जी कि पंछी छथिन? शेषजी कि साँप थिकाह? अरे रावण! चिंतामणि सेहो कि पाथर थिक? अरे ओ मूर्ख! सुन, वैकुण्ठ सेहो कि लोक थिक?

आर श्री रघुनाथजीक अखण्ड भक्ति कि आर लाभ सब जेहेन लाभ थिक? सेना समेत तोहर मान मथिकय, अशोक वन केँ उजाड़िकय, नगर केँ जराकय आर तोहर पुत्र केँ मारिकय जे वापस गेल, जेकरा तूँ किछुओ नहि बिगाड़ि सकलें, कि रे दुष्ट? ओ हनुमान्‌जी कि बानर थिकाह?

अरे रावण! चतुराई (कपट) छोड़िकय सुने। कृपाक समुद्र श्री रघुनाथजीक तूँ भजन कियैक नहि करैत छँ? अरे दुष्ट! यदि तूँ श्री रामजीक वैरी भेलें त तोरा ब्रह्मा आर रुद्र सेहो नहि बचा सकथुन। हे मूढ़! व्यर्थ डींग जुनि हाँके। श्री रामजी सँ वैर कयला पर तोहर एहेन हाल हेतौक जे तोहर सिर समूह श्री रामजीक बाण लगिते देरी बानर सभक आगाँ पृथ्वी खसतौक, आर रीछ-बानर तोहर गेंद जेकाँ अनेकों सिर सँ चौगान खेलेतौ। जखन श्री रघुनाथजी युद्ध मे कोप करथुन आर हुनकर अत्यन्त तीक्ष्ण बहुते रास बाण छूटत, तखन कि तोहर गालो चलतौक? एना विचारिकय उदार (कृपालु) श्री रामजी केँ भजे।”

२०. अंगद केर ई वचन सुनि रावण बड बेसी जरि उठल। मानू जरैत प्रचण्ड आगि मे घी पड़ि गेल हो! ओ बाजल –

“अरे मूर्ख! कुंभकर्ण जेहेन हमर भाइ अचि, इन्द्र केर शत्रु सुप्रसिद्ध मेघनाद हमर पुत्र अछि! आर हमर पराक्रम त तूँ सुनबे नहि कएलें जे हम सम्पूर्ण जड़-चेतन केँ जीति लेने छी!

रे दुष्ट! बानर सभक सहायता जोड़िकय राम समुद्र बान्हि लेलक, बस, यैह ओकर प्रभुता थिकैक। समुद्र केँ त अनेकों पक्षी सेहो लाँघि गेल करैत अछि। मुदा एतबे सँ ओ सब शूरवीर नहि भ’ जाइछ।

अरे मूर्ख बंदर! सुने – हमर एक-एक भुजारूपी समुद्र बलरूपी जल सँ पूर्ण अछि, जाहि मे बहुतो रास शूरवीर देवता आर मनुष्य डुबि चुकल अछि। बता, के एहेन शूरवीर अछि, जे हमर एहि अथाह आ अपार बीस समुद्र केँ पार पाबि जायत?

अरे दुष्ट! हम दिक्पालो सब सँ जल भरबेलहुँ आर तूँ एकटा राजाक सुयश सुनबैत छँ! जँ तोहर मालिक, जेकर गुणगाथा तूँ बेर-बेर कहि रहल छँ, संग्राम मे लड़यवला योद्धा छथि – तखन फेर ओ दूत कथी खातिर पठबैत छथि? शत्रु सँ प्रीति (सन्धि) करैत हुनका लाज नहि अबैत छन्हि?

पहिने कैलास केर मथयवला हमर भुजा सब केँ देख। फेर अरे मूर्ख बानर! अपन मालिक केर सराहना करिहें। रावण के समान शूरवीर के अछि? जे अपना हाथ सँ सिर काटि-काटिकय अत्यन्त हर्षक संग कतेको बेर ओकरा अग्नि मे होम कयलक! स्वयं गौरीपति शिवजी एहि बात केर साक्षी छथि।

मस्तक सब जरैत समय जखन हम अपन ललाट सब विधाताक अक्षर देखी, तखन मनुष्यक हाथ सँ अपन मृत्यु होयबाक बात कहिकय, विधाताक वाणी (लेख केँ) असत्य जानिकय हम हँसि पड़लहुँ। ओहो बात केँ याद कय केँ हमरा मोन मे एको रत्ती भय नहि अछि। कियैक त हम बुझैत छी जे बूढ़ ब्रह्मा बुद्धि भ्रम सँ ई बात लिख देलनि।

अरे मूर्ख! तूँ लज्जा आ मर्यादा छोड़िकय हमरा आगाँ बेर-बेर दोसर वीर केर बल बखानैत छँ!”

२१. अंगद बजलाह –

“अरे रावण! तोरा समान लज्जावान्‌ जगत्‌ मे कियो नहि अछि। लज्जाशीलता त तोहर सहज स्वभाव टा थिकौक। तूँ अपनहि मुँह सँ अपन गुण कहियो नहि कहितें। सिर काटब आ कैलास उठेबाक कथा चित्त मे चढ़ल छौक, ताहि सँ तूँ ओ बात बीसो बेर कहलें।

भुजा सभक ओहि केँ तूँ हृदय मे नुका रखने छँ, जाहि सँ तूँ सहस्रबाहु, बलि आ बालि केँ जीतने छलें। अरे मन्द बुद्धि! सुन, आब बस कर। सिर कटला सँ सेहो कियो शूरवीर भ’ जाइत छैक?

इंद्रजाल रचयवला केँ वीर नहि कहल जाइत छैक, जखन कि ओ अपनहि हाथ सँ अपन सारा शरीर काटि दैत अछि!

अरे मन्द बुद्धि! कनी सोचिकय देख। फतिंगा सब मोहवश आगि मे जरि मरैत अछि, गदहा सभक झुंड पीठपर बोझ उघिकय चलैत अछि, तेँ ओ सब एहि सब कारण सँ शूरवीर नहि कहाइत अछि।

अरे दुष्ट! आब बतबढ़ावा जुनि करे, हमर वचन सुने आ अभिमान त्यागि दे!

हे दशमुख! हम दूत जेकाँ सन्धि करय लेल नहि आयल छी। श्री रघुवीर बहुत विचारिकय हमरा पठौलनि अछि – कृपालु श्री रामजी बेर-बेर एना कहैत छथि जे स्यार केँ मारला सँ सिंह केँ कोनो यश नहि भेटैत छैक। अरे मूर्ख! प्रभुक एहि वचन केँ मोन मे नीक सँ बुझियेकय (याद कयकेँ) हम तोहर कठोर वचन सहि रहल छी। नहि तँ तोरा मुँह तोड़िकय हम सीताजी केँ जबर्दस्ती लय जइतहुँ।

अरे अधम! देवता सभक शत्रु! तोहर बल त हम तखनहि जानि लेलहुँ, जखन तूँ पराई स्त्री केँ हरिकय (चोराकय) आनि लेलें।

तूँ राक्षस सभक राजा आ बड़ा अभिमानी छँ, लेकिन हम त श्री रघुनाथजीक सेवक (सुग्रीव) केर दूत (सेवकहु केर सेवक) छी। यदि हम श्री रामजीक अपमान सँ नहि डराइ त तोरा देखिते-देखिते एहेन तमाशा बना दी जे – तोरा जमीन पर पटकिकय, तोहर सेना केर संहार कय आर तोहर गाँव केँ चौपट (नष्ट-भ्रष्ट) कयकेँ, अरे मूर्ख! तोहर युवती स्त्री सहित जानकीजी केँ लय जाय। यदि एना करब, तैयो एहिमे कोनो बड़ाई नहि छैक। मरल केँ मारय मे कोनो पुरुषत्व नहि छैक।

वाममार्गी, कामी, कंजूस, अत्यंत मूढ़, अति दरिद्र, बदनाम, बहुत बूढ़, नित्य केर रोगी, निरन्तर क्रोधयुक्त रहयवला, भगवान्‌ विष्णु सँ विमुख, वेद आर सन्त सभक विरोधी, अपनहि शरीर पोषण करयवला, दोसरक निन्दा करयवला आर पाप केर खान (महान्‌ पापी) – ई चौदह प्राणी जिबिते मुरदा के समान अछि। अरे दुष्ट! एना विचारिकय हम तोरा नहि मारैत छी। आब तूँ हमरा आर बेसी तामस नहि चढ़ा।”

२२. अंगद केर वचन सुनिकय राक्षस राज रावण दाँत सँ ठोर काटिकय, क्रोधित होइत हाथ मलैत बाजल –

“अरे नीच बंदर! आब तूँ मरहे चाहैत छँ! ताहि सँ छोट मुँह पैघ बात कहैत छँ। अरे मूर्ख बंदर! तूँ जेकर बल पर कड़ुआ बोल बकबका रहल छँ, ओहि मे बल, प्रताप, बुद्धि अथवा तेज किछुओ नहि छौक।

ओकरा गुणहीन और मानहीन बुझियेकय त बाप वनवास दय देलकैक। ओकरा एक त ताहि बातक दुःख, ओहि पर सँ युवती स्त्रीक विरह आर फेर राति-दिन हमर डर बनल रहैत छैक।

जेकर बल केर तोरा गर्व छौक, एहेन अनेकों मनुष्य केँ तँ राक्षस राति-दिन खायल करैत अछि। अरे मूढ़! जिद्द छोड़िकय नीक सँ विचार करे।”

२३. जखन रावण श्री रामजीक निन्दा कयलक, तखन त कपिश्रेष्ठ अंगद आर बेसी क्रोधित भेलाह। कियैक तँ शास्त्र मे एना कहल जाइत अछि जे अपना कान सँ भगवान् विष्णु आर शिव केर निन्दा जे सुनैत अछि ओकरा गो वध समान पाप लगैत छैक। बानर श्रेष्ठ अंगद बहुत जोर सँ कटकटेलाह आर ओ तमकिकय खूब जोर सँ अपन दुनू भुजादण्ड केँ पृथ्वी पर बजारि देलनि।

२४. पृथ्वी हिलय लागल, जाहि सँ ओतय बैसल सभासद् सब खसि पड़लाह आ भयरूपी पवन (भूत) सँ ग्रस्त भ’ डर सँ भागि गेलाह। रावण खसैत-खसैत फेर सम्हरिकय उठल। ओकर अत्यन्त सुन्दर मुकुट पृथ्वी पर खसि पड़लैक। किछु तँ ओ उठाकय आ सम्हारिकय माथ पर राखि लेलक आ किछु अंगद उठाकय प्रभु श्री रामचन्द्रजी लग फेकि देलनि।

२५. मुकुट सब केँ अबैत देखिकय बानर सब भागय लागल। सोचय लागल – “हे विधाता! ई दिनहि मे उल्कापात (तारा टुटिकय खसब) होमय लागल अछि की? आ कि रावण तमसाकय चारि गोट वज्र चलौलक अछि जे बड़ा वेग सँ आबि रहल अछि?” – प्रभु बानर सब सँ विहुँसिकय कहलखिन – “मन मे डर जुनि करू। ई न उल्का छी, न वज्र छी आर नहिये केतु या राहुए छी। अरे भाइ! ई त रावणक मुकुट छी, जे बालिपुत्र अंगद फेकलनि अछि।” पवन पुत्र श्री हनुमान्‌जी कूदिकय ओकरा सब केँ अपन हाथ सँ पकड़ि लेलनि आ आनिकय प्रभुक सोझाँ मे राखि देलनि। रीछ आ बानर सब तमाशा देखय लागल। ओहि मुकुट सभक प्रकाश सूर्य समान चमकीला छल।

२६. ओम्हर सभा मे क्रोधयुक्त रावण सब सँ क्रोधित भ’ कय कहय लागल जे बंदर केँ पकड़ आ पकड़िकय मारि दे। अंगद ई सुनिकय हँसय लगलाह। रावण फेरो बाजल – “एकरा मारिकय सब योद्धा तुरन्त दौड़ आ जतय कतहु रीछ-बानर भेटओ, ओतहि खा जो। पृथ्वी केँ बंदर सँ रहित कय दे आ जा कय दुनू तपस्वी भाइ (राम-लक्ष्मण) केँ जिबिते पकड़ि ले।”

२७. रावण केर ई कोप सँ भरल वचन सुनिकय फेर युवराज अंगद क्रोधित होइत बजलाह –

“तोरा गाल बजबैत लाज नहि होइत छौक! अरे निर्लज्ज! अरे कुलनाशक! गला काटिकय मरि जो! हमर बल देखियो कय तोहर छाती नहि फटैत छौक!

अरे स्त्रीचोर! अरे कुमार्ग पर चलनिहार! अरे दुष्ट, पाप केर राशि, मन्द बुद्धि आर कामी! तूँ सन्निपात मे कि दुर्वचन बक-बकाइत छँ? अरे दुष्ट राक्षस! तूँ काल केर वश भ’ गेल छँ! एकर फल तूँ आगाँ बानर आ भालु सभक चपेटा लगला पर पेमें।

राम मनुष्य छथि, एहेन वचन बजिते, रे अभिमानी! तोहर जिह्वा कटिकय खसि नहि पड़ैत छौक? एहि मे कोनो सन्देह नहि जे तोहर जिह्वा असगरे नहि, तोहर माथ (सिर) केर संग रणभूमि मे खसतौक।

रे दशकन्धर! जे एक्के टा बाण सँ बालि केँ मारि देला, ओ मनुष्य केना भेलाह? अरे कुजाति, अरे जड़! बीस टा आँखि भेलो पर तूँ आन्हरे छँ।

तोहर जन्म केँ धिक्कार छौक। श्री रामचंद्रजीक बाण समूह तोहर रक्तक प्यास सँ प्यासल अछि। ओ प्यासले रहि जायत ताहि डर सँ, अरे कड़बा बकवाद करयवला नीच राक्षस! हम तोरा छोड़ि दैत छी। हम तोहर दाँत तोड़य मे समर्थ छी। मुदा कि करू? श्री रघुनाथजी हमरा आज्ञा नहि देलनि अछि। एहेन तामस चढ़ि रहल अछि जे तोहर दसो मुँह तोड़ि दी आ तोहर लंका केँ उठाकय समुद्र मे डुबा दी।

तोहर लंका गूल्लरि के फर जेकाँ छौक। तूँ सब कीड़ा ओहि के भीतर (अज्ञानवश) निडर भ’ कय बसल छँ। हम बंदर छी, हमरा ई फर केँ खाइत कतेक देरी लागत? मुदा उदार (कृपालु) श्री रामचंद्रजी ओहेन आज्ञा नहि देलनि अछि।”

२८. अंगद केर युक्ति सुनिकय रावण ठहक्का लगेलक आ बाजल – “अरे मूर्ख! एतेक झूठ बजनाय तूँ कतय सँ सिखलें? बालि तँ कहियो एतेक गाल नहि मारय। बुझि पड़ैत अछि जे तूँ तपस्वी सँ भेटलाक बाद लब्बर भ’ गेलें।” अंगद जवाब देलखिन – “अरे बीस भुजावला! यदि तोहर दसो जिह्वा हम नहि घिचि लेलहुँ त सचमुच हम लब्बरे होयब।”

२९. श्री रामचंद्रजीक प्रताप केँ याद कयकेँ अंगद क्रोधित भ’ गेलाह आ रावणक सभा मे प्रण करैत बड़ी दृढ़ताक संग अपन पैर रोपि देलनि आ कहलखिन – “अरे मूर्ख! यदि तूँ हमर पैर कनिको घुसका सकेँ त श्री रामजी घुरि जेता, हम सीताजी केँ हारि जायब।” हुनकर एहि तरहक चुनौती देला पर रावण अपन सभासद् आ वीर सेनानी सब सँ आह्वान करैत बाजल – “अरे वीर लोकनि! सुने! पैर पकड़िकय बंदर केँ पृथ्वी पर पछाड़ि दे।” इंद्रजीत (मेघनाद) आदि अनेकों बलवान्‌ योद्धा जहाँ-तहाँ सँ हर्षित भ’ कय उठल। ओ सब पूरे बल सँ बहुतो उपाय कयकेँ झपटैत अछि, मुदा पैर टलितो नहि टलैत छैक। तखन सब अपन-अपन माथ झुकाकय अपन‍-अपन स्थान पर जा कय बैसि रहैत अछि।

३०. काकभुशुण्डिजी कहैत छथि – “ओ देवता लोकनिक शत्रु (राक्षस) फेरो उठि-उठि झपटैत अछि, मुदा हे सर्पक शत्रु गरुड़जी! अंगद केर चरण ओकरा सब सँ ओहिना नहि टलैत छैक जेना कुयोगी (विषयी) पुरुष मोहरूपी वृक्ष केँ नहि उखाड़ि सकैत अछि।”

३१. करोड़ों वीर योद्धा जे बल मे मेघनाद केर समान छल, हर्षित भ’ कय उठल, ओ सब बेर-बेर झपटैत अछि, मुदा बानरक पैर नहि उठि पबैत छैक, तखन लाजक मारल माथ झुकाकय बैसि जाइत अछि। जेना करोड़ों विघ्न एलोपर संत केर मोन नीति केँ नहि छोड़ैत अछि, तहिना बानर (अंगद) केर चरण पृथ्वी केँ नहि छोड़ैत अछि। ई देखिकय शत्रु (रावण) केर मद चूर-चूर भ’ गेलैक। अंगद केर बल देखि सब हृदय मे हारि मानि लेलक। तखन अंगद केँ ललकारबाक लेल रावण अपने उठल। जखन ओ अंगद केर पैर पकड़य लागल, तखन बालि कुमार अंगद कहलखिन – “हमर पैर छुला सँ तोहर बचाव नहि हेतौक! अरे मूर्ख – तूँ जाकय श्री रामजीक चरण कियैक नहि पकड़ैत छँ?”

३२. ई सुनिते रावण मोन मे बहुते लज्जिल भेल आ अंगद केर पैर छुनहिये बिना वापस अपन सिंहासन पर बैसि गेल। ओकर सबटा ‘श्री’ हेरा गेल छलैक। ओ एहेन तेजहीन भ’ गेल छल जेना मध्याह्न मे चन्द्रमा देखाय पड़ैत अछि। ओ सिर नीचाँ कयकेँ सिंहासन पर जा बैसल। मानू सारा सम्पत्ति गमाकय बैसल हो।

३३. श्री रामचंद्रजी जगत्‌ भरिक आत्मा आ प्राण केर स्वामी थिकाह। हुनका सँ विमुख रहयवला भला शान्ति केना पाबि सकैत अछि? शिवजी कहैत छथि – “हे उमा! जाहि श्री रामचंद्रजीक भ्रूविलास (भौंह केर इशारा) सँ विश्व उत्पन्न होइत अछि आर फेर नाश केँ प्राप्त भ’ जाइत अछि, जे तृण केँ वज्र आ वज्र केँ तृण बना दैत छथि, अर्थात् निर्बल केँ महान् प्रबल आ महान् प्रबल केँ अत्यन्त निर्बल बना दैत छथि, हुनकर दूत केर प्रण कहू, केना टलि सकैत छल?”

३४. फेर अंगद अनेकों प्रकार सँ नीति कहलखिन। लेकिन रावण नहि मानलक, कियैक तँ ओकर काल निकट आबि गेल छैक। शत्रुक गर्व केँ चूर कयकेँ अंगद ओकरा प्रभु श्री रामचंद्रजीक सुयश सुनेलक आ फेर ओ राजा बालि केर पुत्र ई कहिकय चलि देलक – “रणभूमि मे तोरा खेला-खेलाकय नहि मारी ता धरि पहिने सँ कि बड़ाइ करू।”

३५. अंगद पहिनहि (सभा मे आबय सँ पूर्वहि) ओकर पुत्र केँ मारि देने रहथि, से संवाद सुनिकय रावण दुःखी भ’ गेल। अंगद केर प्रण (सफल) देखिकय सब राक्षस भय सँ अत्यन्त व्याकुल भ’ गेल। शत्रुक बल केँ मर्दन कय, बल केर राशि बालि पुत्र अंगदजी हर्षित मुद्रा मे आबिकय श्री रामचंद्रजीक चरणकमल पकड़ि लेलनि। हुनकर शरीर पुलकित छन्हि आ नेत्र मे आनंदाश्रुक जल भरल छन्हि।

हरिः हरः!!