रामचरितमानस मोतीः मन्दोदरी द्वारा रावण केँ फेरो बुझेनाय, रामजीक महिमा सुनेनाय

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

मन्दोदरी द्वारा रावण केँ फेरो बुझेनाय, रामजीक महिमा सुनेनाय

रावणक रभस-रासलीला मे श्री रामजी द्वारा चलायल गेल बाण सँ रावणक मुकुट आ मन्दोदरीक कर्णफूल कटिकय खसि पड़लाक बाद सभा मे अफरातफरीक माहौल आ सब केँ डरायल देखि रावण बनावटी हँसी हँसैत सब केँ पोल्हबैत कहैत अछि जे जेकर मूरी (माथा) कटि जाइत छैक त ओकर ओतबे सम्मान बढ़ैत छैक, फेर ई त मुकुट मात्र कटल… एहि मे घबरेबाक कोनो आवश्यक नहि छैक। आगू बुझबैत अछि –

१. अपन-अपन घर जाउ आ सुइत रहू, डरेबाक कोनो जरूरत नहि। ताहि पर सब गोटे सिर नमाकय घर गेल।

२. जखन सँ मन्दोदरीक कर्णफूल पृथ्वी पर खसलनि, तखनहि सँ हुनकर हृदय मे सोच आबि गेलनि। आँखि मे नोर भरिकय, दुनू हाथ जोड़िकय ओ रावण सँ कहय लगलीह –

“हे प्राणनाथ! हमर विनती सुनू। हे प्रियतम! श्री राम सँ विरोध छोड़ि दिअ’। हुनका मनुष्य जानिकय मोन मे हठ नहि पकड़ने रहू।

हमर एहि वचन पर विश्वास करू जे ई रघुकुल केर शिरोमणि श्री रामचंद्रजी विश्वरूप छथि – ई सम्पूर्ण विश्व हुनकहि रूप थिक।

वेद जिनकर अंग-अंग मे लोक सभक कल्पना करैत अछि। पाताल (जाहि विश्वरूप भगवान्‌ केर) चरण थिक, ब्रह्मलोक सिर थिक, अन्य (बीच के सब) लोकक विश्राम (स्थिति) जिनकर अन्य भिन्न-भिन्न अंग सब पर थिक।

भयंकर काल जिनकर भृकुटि संचालन (भौंह केर चलब) छथि। सूर्य नेत्र छथि, बादल सभक समूह केश थिक। अश्विनी कुमार जिनकर नासिका छथि, राति आर दिन जिनकर अपार निमेष (पलक मारब आर खोलब) थिक। दसो दिशा कान थिक, वेद एना कहैत अछि।

वायु श्वास थिक आर वेद जिनकर अपन वाणी थिकन्हि। लोभ जिनकर अधर (ठोर) थिकन्हि, यमराज भयानक दाँत छथिन। माया हँसी छथिन, दिक्पाल भुजा सब छथिन। अग्नि मुख छथि, वरुण जिह्वा छथि।

उत्पत्ति, पालन और प्रलय जिनकर चेष्टा (क्रिया) थिकन्हि। अठारह प्रकार केर असंख्य वनस्पति सब जिनकर रोमावली थिकन्हि, पर्वत अस्थि थिकन्हि, नदी नस सभक जाल थिकन्हि, समुद्र पेट थिकन्हि आर नरक जिनकर नीचाँक इंद्रिय थिकन्हि।

एहि प्रकारे प्रभु विश्वमय छथि। अधिक कल्पना (ऊहापोह) कियैक कयल जाय?

शिव जिनकर अहंकार छथि, ब्रह्मा बुद्धि छथि, चंद्रमा मन छथि आ महान (विष्णु) मात्र चित्त छथि। ताहि चराचर रूप भगवान श्री रामजी मनुष्य रूप मे निवास कयलनि अछि।

हे प्राणपति सुनू, एना विचारि कय प्रभु सँ वैरी छोड़ि श्री रघुवीरक चरण मे प्रेम करू, जाहि सँ हमर सोहाग नहि जाय।

३. पत्नीक वचन कान सँ सुनिकय रावण खूब हँसल आ बाजल – अहो! मोह (अज्ञान) केर महिमा बड़ा बलवान्‌ अछि। स्त्रीक स्वभाव सब सत्ते कहैत अछि जे ओकर हृदय मे आठ अवगुण सदैव रहैत छैक – साहस, झूठ, चंचलता, माया (छल), भय (डरपोकपन), अविवेक (मूर्खता), अपवित्रता और निर्दयता। अहाँ शत्रुक समग्र (विराट) रूप गेलहुँ आर हमरा ओकर बड भारी भय सुनौलहुँ। हे प्रिये! ओ सब (एहि चराचर विश्व तँ) स्वभावहि सँ हमर वश मे अछि। अहाँक कृपा सँ हमरा ई सब बात बुझय मे आबि गेल। हे प्रिये! अहाँक चतुराई हम जानि गेलहुँ। अहाँ एहि प्रकारे (एहि बहन्ने) हमर प्रभुताक बखान कय रहल छी। हे मृगनयनी! अहाँक बात सब बड़ा गूढ़ (रहस्य भरल) अछि, बुझला पर सुख दयवला आ सुनला सँ भय छोड़बय वला अछि।

४. मन्दोदरी मोन मे एना निश्चय कय लेलनि जे पति केँ कालवश मतिभ्रम भ’ गेल छन्हि। एहि तरहें अज्ञानवश बहुते रास विनोद करैत रावण केँ भोर भ’ गेलैक। तखन स्वभावहि सँ निडर आ घमंड मे आन्हर लंकापति सभा मे गेल। यद्यपि बादल अमृत समान जल बरसाबैत अछि तैयो बेंत फुलैत-फलैत नहि अछि। एहि प्रकारे चाहे ब्रह्माक समाने ज्ञानी गुरु भेटि जाय, तैयो मूर्ख के हृदय मे चेत (ज्ञान) नहि होइत छैक।

हरिः हरः!!