तीत सत्य
हम मैथिल छी, हमर मूल धर्म अछि ‘आत्मविद्या के आश्रयदाता मैथिल राजा जनकक विदेह धर्म’ अपनबैत बन्धनमुक्त कर्म करैत मुक्तजीव बनबाक सम्पूर्ण चेष्टा करब। ई ‘बन्धनमुक्त कर्म’ के अर्थ बहुत व्यापक आ व्यवहार करय मे बड कठिनाह जरूर छैक, मुदा असम्भव नहि छैक। एहि मे कहल गेल छैक ममता, मोह, मास्चर्य, मत्सर, मद, आदि केँ छोड़ि जीवन निर्वहन लेल जे जरूरी कर्म छैक से करैत रहब, फलासक्ति तक नि:स्पृह-निरपेक्षताक भाव राखब। नि:स्पृह-निरपेक्षताक अर्थ ई भेलय जे परिणाम नीक होइ या बेजा होइ ताहि बात सँ कोनो मतलब रखने बिना अपन कर्तव्यरूपी (जीवन जियय लेल जरूरी काज) करैत चलब। गीता मे भगवान् कृष्ण अर्जुन केँ एहि कारण उदाहरण देने छथिन –
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।
लोकसग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥गीता, अध्याय ३, श्लोक २०॥
“जनक जेहेन राजा लोकनि तँ केवल नियत कर्म केँ कयले टा सँ सिद्धि प्राप्त कयलनि। अतएव सामान्य जन केँ शिक्षित करबाक दृष्टि सँ अहाँ केँ सेहो कर्म करबाक चाही।”
आइ व्यवहारक संसार मे नियम कर्म केँ करय मे तामझाम, आडम्बर, दिखाबा, झूठ-फरेब आ अनावश्यक घिच्चातीरी ततेक बेसी छैक जे विदेहराजक प्रजा कहबय लेल मैथिल आ काज सबटा ‘गैर मैथिल’ वला। बाहरी दुनियाक फैशन सँ एतबे अधिक प्रेरित-प्रभावित जे मैथिल सभक बीच पंजाबी कल्चर, गुजराती कल्चर, अन्यान्य कल्चर के नक्कल सरेआम आम समाज मे कयल करैत अछि। शाश्वत सत्य केँ छोड़िकय असत्य आ नास्तिकता के दुनिया मे डंका बजबयवला अनेकानेक दार्शनिक विचार विदेहक धरती पर जहाँ-तहाँ ताण्डव करैत देखा रहल अछि। आवश्यकता छैक समस्त समाज केँ बैसिकय अपना मे ई तय करय के जे एना कतेक दिन चलत, एकरा जतेक जल्दी हो ततेक जल्दी सम्हारि लिय’। नास्तिक दर्शन “ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत’ वला चार्वाक् सूत्र हमरा सभक नहि रहल कहियो।
हम सब त बस प्रकृतिक देल पंचतत्त्व के सहज प्राकृतिक रूप-स्वरूप मे रहनिहार लोक थिकहुँ। माटिये के घर, माटिक बासन, माटिक कोठी-बखारी आ अपन शरीरो अन्त मे माटिये मिलि जायत त फेर संग्राही प्रवृत्ति मे हम सब कतेक बेहाल होउ! दुनिया बदैल रहल छय, परिवर्तन संसारक नियम थिकैक… एकटा हद धरि परिवर्तन स्वाभाविक मानियो सकैत छी। घर-अंगना, बर्तन-बासन, पहिरन-ओढ़न आदि मे बहुत परिवर्तन आबि गेल अछि। पुरना जमाना वला संचार सँ काफी तीव्र गतिक संचार आ मनुष्य जीवनक कर्म तथा कर्मगति मे सेहो तीव्र परिवर्तन आबि गेल छय। सात्विक व्यवहार के रूप सेहो एक हद तक परिवर्तित भ’ गेल छय। लेकिन एहि परिवर्तनक कारक स्थिति-परिस्थिति आ माहौल होयबाक कारण एहि सँ ओतेक विचलन एकदम नहि होयबाक चाही जाहि तरहें लोक आध्यात्मिकता सँ दूरी बना भौतिकताक आवरण मे आकंठ डूबि रहल छी। हम सब अपन आचरण एहेन नहि करी जेकर दुष्परिणाम सामान्य समाज पर गलत होइः
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥ गीता, अध्याय ३, श्लोक २१॥
एहि बात के ध्यान हमरा सब केँ रखबाक अछि, जे सचमुच श्रेष्ठ कर्म करैत संसार केँ सही मार्ग पर चलैत देखय चाहि रहल छी। अद्भुत संयोग देखू, आजुक एहि लेख के मर्म गीताक तेसर अध्याय पर आधारित भेटल, ताहि मे जे दुइ मूल बात हमरा कहबाक छल से श्लोक २० मे पहिल आ दोसर श्लोक २१ यानि पहिल के तुरन्त बाद मे भेटल। गौर करू एहि दुनू बात पर।
“महापुरुष जे जे आचरण करैत छथि, सामान्य व्यक्ति ओकरे अनुसरण करैत छथि। ओ अपन अनुसरणीय काज सँ जे सब आदर्श प्रस्तुत करैत छथि, सम्पूर्ण विश्र्व ओकरे अनुसरण करैत अछि।”
आर, अन्त मे एहि तेसर अध्याय (गीता) के ३५वाँ श्लोक कण्ठास्थ कय लेबः
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥गीता, अध्याय ३, श्लोक ३५॥
“अपन नियतकर्म केँ दोषपूर्ण ढंग सँ सम्पन्न करब सेहो अन्य केर कर्म केँ भलीभाँति करय सँ श्रेयस्कर अछि। स्वीय कर्म केँ करिते मरनाय पराया कर्म मे प्रवृत्त होयबाक अपेक्षा श्रेष्ठतर अछि, कियैक तँ आन केकरो मार्ग केर अनुसरण भयावह होइत छैक।”
हरिः हरः!!