रामचरितमानस मोतीः श्री रामजीक सेना सहित समुद्र पार उतरब, सुबेल पर्वत पर निवास, रावणक व्याकुलता

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

श्री रामजीक सेना सहित समुद्र पार उतरब, सुबेल पर्वत पर निवास, रावणक व्याकुलता

१. सेतुबन्ध पर बहुते भीड़ भ’ गेलैक, ताहि सँ किछु बानर सब आकाश मार्ग सँ उड़य लागल आ दोसर कतेको रास जलचर जीव सब पर चढ़ि-चढ़ि ओहि पार जा रहल अछि। कृपालु रघुनाथजी (तथा लक्ष्मणजी) दुनू भाइ ई सब कौतुक (तमाशा) देखिकय हँसिते विदाह भेलाह। श्री रघुवीर सेना सहित समुद्रक पार भ’ गेलाह। बानर आ हुनक सेनापतिक भीड़ बारे वर्णन लेल शब्द नहि अछि।

२. प्रभु समुद्रक पार डेरा रखलनि आ सब बानर सब केँ आज्ञा देलनि जे अहाँ सब जाकय सुन्दर फल-मूल खाउ। ई सुनिते रीछ-बानर जहाँ-तहाँ दौड़ि पड़ल। श्री रामजीक हित (सेवा) वास्ते सब वृक्ष ऋतु-कुऋतु-समय केर गति केँ छोड़िकय फुला-फला गेल। बानर-भालू मीठ-मीठ फल खा रहल अछि, गाछ सब केँ डोला रहल अछि आ पर्वत सभक शिखर केँ लंका दिश फेकि रहल अछि। घुमिते-घुमिते जहाँ कतहु कोनो राक्षस केँ भेटि जाइत अछि त सब कियो ओकरा घेरिकय खूब नाच नचबैत अछि आर दाँत सँ ओकर नाक-कान काटिकय, प्रभुक सुयश सुनाकय तखनहि टा ओकरा जाय दैत अछि।

३. जाहि राक्षस सभक नाक आ कान काटि देल गेलय, ओ सब रावण सँ सबटा समाचार कहलक। समुद्र पर सेतुबाँध बनायल जेबाक बात कान सँ सुनैत देरी रावण घबड़ा उठल आ दसो मुंह सँ बाजि उठल –

क्रमशः….

हरिः हरः!!