स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
नल-नील द्वारा पुल निर्माण, श्री रामजी द्वारा श्री रामेश्वर केर स्थापना
१. समुद्रक वचन सुनि प्रभु श्री रामजी मंत्री लोकनि केँ बजाकय कहलनि – “आब विलम्ब कियैक कय रहल छी? पुल तैयार करू जाहि सँ सेना पार उतरय।” जाम्बवान् हाथ जोड़िकय कहलखिन – “हे सूर्यकुल के ध्वजास्वरूप (कीर्ति केँ बढ़ेनिहार) श्री रामजी! सुनू। हे नाथ! सबसँ पैघ पुल त अपनेक नाम मात्र छी, जाहि पर चढ़िकय (जेकर आश्रय लयकय) मनुष्य संसाररूपी समुद्र सँ पार भ’ जाइत अछि। फेर ई छोट सन समुद्र पार करय मे कतेक देरी लागत?” ई बात सुनिते पवनकुमार श्री हनुमान्जी बजलाह – “प्रभु के प्रताप भारी बड़वानल (समुद्रक आगि) केर समान अछि। ओ पहिनहि समुद्रक जल केँ सोखि लेने छल, फेर अहाँक शत्रु लोकनिक स्त्री सभक आँखिक नोर केर धार सँ ई फेर भरि गेल आ तेँ खारा (नुनगर) सेहो भ’ गेल अछि।”
२. हनुमान्जीक ई अत्युक्ति (अलंकारपूर्ण युक्ति) सुनिकय बानर सब श्री रघुनाथजी दिश देखि बहुत हर्षित भेलथि। जाम्बवान् नल-नील दुनू भाइ केँ बजाकय हुनका लोकनि केँ सब बात (कथा) कहलखिन आ फेर इहो कहलखिन जे मोन मे श्री रामजीक प्रताप केँ स्मरण कय केँ पुल निर्माण करू। रामप्रताप सँ कनिकबो परिश्रम नहि होयत। तखन बानर सभक समूह केँ बजौलनि आ कहलनि – अहाँ सब कियो हमर किछु विनती सुनू। अपन हृदय मे श्री रामजीक चरण-कमल केँ धारण कय लिय’ आ सब भालू व बानर मिलिकय एकटा खेल करू। विकट बानर सभक समूह! अहाँ सब दौड़िकय जाउ आ वृक्ष सहित पहाड़ सब उखाड़िकय आनि लिय’।
३. एतेक सुनिते बानर आ भालू ‘हूंह’ (हुंकार) भरैत श्री रघुनाथजीक प्रताप समूह केर यानि श्री रामजी के जय-जयकार करैत चलि पड़ल। बहुते रास ऊँच-ऊँच पर्वत आ वृक्ष सब केँ खेले-खेल मे उखाड़िकय उठा लैछ आ आनि-आनिकय नल-नील केँ दैछ। ओ दुनू गोटे खूब नीक सँ गढ़ि-गढ़िकय सुन्दर पुल बनबैत छथि। बानर सब बड़का-बड़का पहाड़ आनि-आनिकय दैत अछि आर नल-नील ओकरा गेंद जेकाँ लोकि लैत छथि।
४. पुल केर अत्यन्त सुन्दर रचना देखिकय कृपासिन्धु श्री रामजी हँसिकय ई वचन बजलाह – “एतुका भूमि परम रमणीय आर उत्तम अछि। एकर असीम महिमा वर्णन नहि कयल जा सकैछ। हम एतय शिवजीक स्थापना करब। हमर हृदय मे ई महान् संकल्प अछि।”
५. श्री रामजीक वचन सुनि बानरराज सुग्रीव बहुते रास दूत पठौलनि जे सब श्रेष्ठ मुनि लोकनि केँ बजा-बजा आनि लेलनि। भगवान् श्री रामजी शिवलिंग केर स्थापना कयकेँ विधिपूर्वक हुनकर पूजन कयलनि। पुनः भगवान बजलाह –
“शिवजी समान हमरा दोसर कियो प्रिय नहि छथि। जे शिव सँ द्रोह रखैत अछि आ तखन हमर भक्त कहाइछ, ओ मनुष्य सपनहुँ मे हमरा नहि पबैछ। शंकरजी सँ विमुख भ’ (विरोध कयकेँ) जे हमर भक्ति चाहैछ, ओ नरकगामी, मूर्ख आ अल्पबुद्धि थिक। जिनका शंकरजी प्रिय छथिन, मुदा जे हमर द्रोही छथि आ जे शिवजी के द्रोही छथि आ हमर दास (बनय चाहैत) छथि, ओ मनुष्य कल्पभरि घोर नरक मे निवास करैत छथि।”
“जे मनुष्य हमर स्थापित कयल एहि रामेश्वरजीक दर्शन करता, ओ शरीर छोड़िकय हमर लोक केँ जेता। आर, जे गंगाजल आनिकय हिनका पर चढ़ेता, ओ मनुष्य सायुज्य मुक्ति पेता, अर्थात् हमरा संग एक भ’ जेता। जे छल छोड़िकय आर निष्काम भाव सँ श्री रामेश्वरजीक सेवा करता, हुनका शंकरजी हमर भक्ति देथिन आर जे हमर बनायल एहि सेतु (पुल) केर दर्शन करत, ओ बिना परिश्रमहि संसाररूपी समुद्र सँ तरि जायत।”
६. श्री रामजीक वचन सभक मोन केँ नीक लगलनि। तदनन्तर ओ श्रेष्ठ मुनि लोकनि अपन-अपन आश्रम लेल वापस भेलाह। शिवजी कहैत छथि – “हे पार्वती! श्री रघुनाथजीक यैह रीति छन्हि जे ओ शरणागत पर सदा प्रीति करैत छथि। चतुर नल आर नील सेतु बनौलनि। श्री रामजीक कृपा सँ हुनक ई उज्ज्वल यश सर्वत्र पसैर गेल। जे पत्थर अपने डुबबैत छी आ दोसरो केँ डुबा दैत अछि, वैह जहाज समान स्वयं तरयवला आ दोसर केँ पार लय जायवला भ’ गेल। ई नहि त समुद्रक महिमा वर्णन भेल अछि, नहिये पत्थर सभक गुण थिक आ न बानरहि केर कोनो करामात थिक। श्री रघुवीर केर प्रताप सँ पत्थर सेहो समुद्र पर तरि गेल। एहेन श्री रामजी केँ छोड़िकय जे कोनो दोसर स्वामी केँ भजैत अछि ओ निश्चय टा मन्दबुद्धि थिक।”
७. नल-नील सेतु बान्हि ओकरा खूब मजबूत बनेलाह। देखला पर ओ कृपानिधान श्री रामजीक मोन केँ बड नीक लगलनि। सेना सब चलल, जेकर कोनो वर्णन नहि भ’ सकैछ। योद्धा बानर सभक समुदाय गरजि रहल अछि। कृपालु श्री रघुनाथजी सेतुबन्धक तट पर चढ़िकय समुद्रक विस्तार देखय लगलाह। करुणाकन्द (करुणाक मूल) प्रभु केर दर्शन लेल सब जलचरक समूह प्रकट भ’ गेल। ओ सब जल के उपर सतह पर आबि गेल। अनेकों प्रकारक मगर, घड़ियाल, मच्छ आ सर्प आदि छल जेकर सौ-सौ योजनक बड विशाल शरीर सब छलैक। किछु एहनो जन्तु छल जे ओकरा सब केँ खा जाय! केकरो-केकरो डर सँ सेहो सब डरा रहल छल। ओ सब जलचर जीव आपसी वैर-विरोध बिसरिकय प्रभुक दर्शन कय रहल छल, हंटेलो सँ नहि हंटैत छल। सभक मोन खूब हर्षित छलैक। सब सुखी भ’ गेल। ओकरा सभक शरीरक ओट के कारण जल नहि देखाय पड़ैछ। ओ सब भगवान् केर रूप देखिकय आनंद ओ प्रेम मे मग्न भ’ गेल। प्रभु श्री रामचंद्रजीक आज्ञा पाबि सेना चलल। बानर सेना केर विपुलता (अत्यधिक संख्या) केँ के कहि सकैत अछि?
हरिः हरः!!