स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
लंकाकाण्डः षष्ठ सोपान- मंगलाचरण
श्लोक :
रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं
योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्।
मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं
वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम्॥१॥
कामदेव केर शत्रु शिवजीक सेव्य, भव (जन्म-मृत्यु) केर भय केँ हरय वला, काल रूपी मतवाला हाथीक लेल सिंह केर समान, योगी सभक स्वामी (योगीश्वर), ज्ञान द्वारा जानय योग्य, गुण सभक निधि, अजेय, निर्गुण, निर्विकार, माया सँ परे, देवता लोकनिक स्वामी, दुष्ट लोकनि केर वध मे तत्पर, ब्राह्मणवृन्द केर एकमात्र देवता (रक्षक), जल वला मेघक समान सुन्दर श्याम, कमल जेहेन नेत्र वला, पृथ्वीपति (राजा) केर रूप मे परमदेव श्री रामजीक हम वन्दना करैत छी॥१॥
शंखेन्द्वाभमतीवसुन्दरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं
कालव्यालकरालभूषणधरं गंगाशशांकप्रियम्।
काशीशं कलिकल्मषौघशमनं कल्याणकल्पद्रुमं
नौमीड्यं गिरिजापतिं गुणनिधिं कन्दर्पहं शंकरम्॥२॥
शंख आर चंद्रमा जेहेन कांति केर अत्यन्त सुन्दर शरीर वला, व्याघ्रचर्म केर वस्त्र वला, काल केर समान (अथवा कारी रंग के) भयानक सर्प सभक भूषण धारण करयवला, गंगा आर चन्द्रमाक प्रेमी, काशीपति, कलियुग केर पाप समूह केँ नाश करयवला, कल्याण केर कल्पवृक्ष, गुण सभक निधान आ कामदेव केँ भस्म करयवला, पार्वती पति वन्दनीय श्री शंकरजी केँ हम नमस्कार करैत छी॥२॥
यो ददाति सतां शम्भुः कैवल्यमपि दुर्लभम्।
खलानां दण्डकृद्योऽसौ शंकरः शं तनोतु मे॥३॥
जे सत् पुरुष सभक अत्यन्त दुर्लभ कैवल्यमुक्ति तक दय दैत छथि आर जे दुष्ट सब केँ दण्ड दयवला अछि, ओ कल्याणकारी श्री शम्भु हमर कल्याण केर विस्तार करथि॥३॥
दोहा :
लव निमेष परमानु जुग बरष कलप सर चंड।
भजसि न मन तेहि राम को कालु जासु कोदंड॥
लव, निमेष, परमाणु, वर्ष, युग आ कल्प जिनकर प्रचण्ड बाण अछि आर काल जिनकर धनुष अछि, हे मन! तूँ ओहि श्री रामजी केँ कियैक नहि भजैत छँ?
हरिः हरः!!