स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
समुद्र पर श्री रामजीक क्रोध तथा समुद्रक विनती, श्री राम गुणगान केर महिमा
१. एम्हर तीन दिन बित गेल, लेकिन जड़ समुद्र विनय नहि मानलक। तखन श्री रामजी क्रोध सँ बजलाह – बिना भय के प्रीति नहि होइछ! हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाउ, हम अग्निबाण सँ समुद्र केँ सोखिये ली! मूर्ख सँ विनय, कुटिल संग प्रीति, स्वाभाविके कंजूस सँ सुन्दर नीति (उदारताक उपदेश), ममता मे फँसल लोक सँ ज्ञान केर कथा, अत्यन्त लोभी सँ वैराग्यक वर्णन, क्रोधी सँ शम (शान्ति) केर बात आर कामी सँ भगवान् केर कथा, एकर ओहने फल होइत अछि जेना ऊसर मे बिया बाउग करय सँ होइछ। अर्थात् ऊसर मे बिया बाउग करय जेकाँ ई सबटा व्यर्थ जाइत अछि।
२. एतबा कहिकय श्री रघुनाथजी धनुष चढ़ौलनि। ई मत लक्ष्मणजीक मोन केँ खूब नीक लगलनि। प्रभु भयानक (अग्नि) बाण संधान कयलनि जाहि सँ समुद्रक हृदय मे अग्निक ज्वाला धधकि उठल। मगर, साँप आ मछरी सभक समूह व्याकुल भ’ गेल। जखन समुद्र जीव सब केँ जरैत जनलक, तखन सोनाक थारी मे अनेकों मणि (रत्न) भरिकय अभिमान छोड़िकय ओ ब्राह्मणक रूप मे आयल।
३. काकभुशुण्डिजी कहैत छथि – हे गरुड़जी! सुनल जाउ! चाहे कियो करोड़ों उपाय कयकेँ सिंचय, मुदा केरा त कटले पर फरैत अछि। नीच विनय सँ नहि मनैत अछि, ओ डँटले पर टा झुकैत अछि, रास्ता पर अबैत अछि। समुद्र भयभीत भ’ कय प्रभुक चरण पकड़िकय कहलक –
हे नाथ! हमर सब अवगुण (दोष) क्षमा करब। हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी – एकरा सभक करनी स्वभावहि सँ जड़ छैक। अपनहि केर प्रेरणा सँ माया एकरा सृष्टिक लेल उत्पन्न कयलक, सब ग्रंथ मे यैह गायल गेल अछि। जेकरा वास्ते स्वामी (अपनेक) जेहेन आज्ञा अछि, से ताहि प्रकारे रहय मे सुख पबैत अछि। प्रभु नीक कयल जे हमरा शिक्षा (दंड) देल, मुदा मर्यादा (जीव केर स्वभाव) सेहो अपनहि केर बनायल अछि। ढोल, गँवार, शूद्र, पशु आर स्त्री – ई सब शिक्षाक अधिकारी अछि। प्रभुक प्रताप सँ हम सुखा जायब आर सेना पार उतरि जायत, एहि मे हमर बड़ाई नहि अछि, हमर मर्यादा नहि रहत। तथापि प्रभुक आज्ञा अपेल अछि, अपनेक आज्ञाक उल्लंघन नहि भ’ सकैत अछि एना वेद गबैत अछि। आब अहाँ केँ जे नीक लागय, हम तुरन्त ओहिना करी।
४. समुद्रक अत्यन्त विनीत वचन सुनिकय कृपालु श्री रामजी मुस्कुराकय कहलखिन – हे तात! जाहि सँ बानरक सेना पार उतरि जाय, से उपाय बताउ। समुद्र ताहि पर जवाब देलखिन –
हे नाथ! नील आर नल दुइ बानर भाइ छथि। ओ बच्चे मे ऋषि सँ आशीर्वाद पेने छथि। हुनक स्पर्श कय लेला सँ भारी-भारी पहाड़ सेहो अपनेक प्रताप सँ समुद्र मे नहि डूबत, पानिक उपरे मे रहत। हमहुँ प्रभुक प्रभुता केँ हृदय मे धारण कय अपन बल अनुसार (जतय तक हमरा सँ बनि पड़त) सहायता करब। हे नाथ! एहि तरहें समुद्र मे बान्ह बनाउ, जाहि सँ तीनू लोक मे अपनेक सुन्दर यश गायल जायत। एहि बाण सँ हमर उत्तर तट पर रहयवला पाप केर राशि दुष्ट मनुष्य सभक वध करू।
५. कृपालु और रणधीर श्री रामजी समुद्रक मोन केर पीड़ा सुनिकय ओकरा तुरन्त समाधान कय देलनि, अपन बाण सँ ओहि दुष्ट सभक वध कय देलनि। श्री रामजीक भारी बल और पौरुष देखिकय समुद्र हर्षित आ सुखी भ’ गेल। ओ ताहि दुष्ट सभक सबटा चरित्र प्रभु केँ कहि सुनौलक। फेर चरणक वन्दना कयकेँ समुद्र चलि गेल।
छंद :
निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ।
यह चरित कलि मल हर जथामति दास तुलसी गायऊ॥
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना।
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना॥
समुद्र अपन घर चलि गेल। श्री रघुनाथजी केँ ई मत (ओकर सलाह) नीक लगलनि।
ई चरित्र कलियुग केर पाप सब केँ हरयवला छी, एकरा तुलसीदास अपन बुद्धि अनुसार गओलनि अछि। श्री रघुनाथजीक गुण समूह सुखक धाम, सन्देह सब नाश करयवला आर विषाद केर दमन करयवला अछि। अरे मूर्ख मन! तूँ संसारक सबटा आशा-भरोसा त्यागिकय निरन्तर ई गा आ सुन।
दोहा :
सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान॥६०॥
श्री रघुनाथजीक गुणगान संपूर्ण सुन्दर मंगल सब दयवला थिक। जे एकरा आदर सहित सुनत, ओ बिना कोनो जहाजहि (आन साधन) एहि भवसागर केँ तरि जायत।
मासपारायण, चौबीसम् विश्राम
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पंचमः सोपानः समाप्तः।
कलियुग केर समस्त पाप सब केँ नाश करयवला श्री रामचरित मानस केर ई पाँचम सोपान समाप्त भेल।
(सुंदरकाण्ड समाप्त)