स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
समुद्रक एहि पार आयब, सभक लौटब, मधुवन प्रवेश, सुग्रीव मिलन, श्री राम-हनुमान् संवाद
१. सीताजी सँ चूड़ामणि निशानी लैत हनुमान्जी वापस समुद्रक ओहि पार जतय संगी सब केँ छोड़ि आयल रहथि ताहि ठाम लेल चलि पड़लाह। चलैत समय ओ महाध्वनि सँ गर्जना कयलनि जे सुनि राक्षस सभक स्त्री लोकनिक गर्भ तक खसि पड़लैक।
२. समुद्र नाँघिकय ओ एहि पार अयलाह आ अपन संगी-साथी बानर सब केँ किलकिला शब्द (हर्षध्वनि) सुनौलनि। हनुमान्जी केँ देखिते सब हर्षित भ’ गेल आ तखन बानर सब अपन नव जन्म भेल बुझलक। हनुमान्जीक मुख प्रसन्न छन्हि आर शरीर मे तेज विराजमान छन्हि, एहि सँ ओ सब बुझि लेलनि जे ई श्री रामचंद्रजीक काज कय आयल छथि। सब हनुमान्जी सँ भेटलथि आ खूब सुखी भेलथि, जेना तड़पैत माछ केँ जल भेटि गेल होइ किछु तहिना।
३. सब हर्षित भ’ कय नव-नव इतिहास (वृत्तांत) पुछैत-कहैत श्री रघुनाथजी लग जाय वास्ते विदाह भेलाह। फेर सब कियो मधुवन के भीतर अयलाह आ अंगदक सम्मति सँ सब कियो मधुर फल (या मधु आ फल) खयलाह। जखन रखबार सब रोकय लागलनि त मुक्का सँ मारिकय ओकरा सब केँ भगा देलखिन्ह। ओ सब जाकय हल्ला करय लागल जे युवराज अंगद वन उजाड़ि रहल छथि। ई सुनिकय सुग्रीव खूब हर्षित भेलाह जे जरूर बानर सब प्रभुक काज कय आयल अछि। जँ सीताजीक खबरि नहि पेने रहितय त कि ओ मधुवनक फल खा सकैत छल?
४. एहि तरहें राजा सुग्रीव मोन मे विचार कइये रहल छलथि कि ता धरि समाज सहित सब बानर ओतय आबि गेल। सब कियो आबिकय सुग्रीवक चरण मे सिर नमौलनि। कपिराज सुग्रीव सब सँ बहुत प्रेम सहित भेटलथि। सब सँ कुशल-क्षेम पुछलथि। ताहि पर बानर सब उत्तर देलखिन – “अपनेक चरणक दर्शन कय सब कुशल अछि। श्री रामजीक कृपा सँ विशेष कार्य मे सफलता भेटल। हे नाथ! हनुमान् सब काज कयलनि आ सब बानरक प्राण बचा लेलनि।”
५. ई सुनिकय सुग्रीवजी हनुमान्जी सँ फेरो भेटलथि आ सब बानर समेत श्री रघुनाथजी लग चलि देलाह। श्री रामजी जखन बानर समाज केँ काज कयकेँ अबैत देखलाह त हुनको मोन मे विशेष हर्ष भेलनि। दुनू भाइ स्फटिक शिला पर बैसल रहथि। सब बानर आबिकय हुनकर चरण पर खसि पड़ल। दयाक राशि श्री रघुनाथजी सबसँ प्रेम सहित गला लागिकय भेटलथि आ कुशल पुछलथि।
६. बानर सब कहलकनि – “हे नाथ! अपनेक चरणकमल केर दर्शन पेला सँ आब सबटा कुशले-कुशल अछि।” जाम्बवान्जी कहलखिन – “हे रघुनाथजी! सुनू। हे नाथ! जेकरा पर अहाँ दया करैत छी, ओकरा सदैव कल्याण आ निरन्तर कुशल छैक। देवता, मनुष्य आर मुनि सब ओहि पर प्रसन्न रहैत अछि। वैह विजयी अछि, वैह विनयी अछि आर वैह गुण सभक समुद्र बनि जाइत अछि। ओकरे सुन्दर यश तीनू लोक मे प्रकाशित होइत छैक। प्रभु केर कृपा सँ सब काज भेल। आइ हमरा सभक जन्म सफल भ’ गेल। हे नाथ! पवनपुत्र हनुमान् जे काज कयलनि, ओकर हजारों मुंह सँ वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि।”
७. फेर जाम्बवान् हनुमान्जीक सुन्दर चरित्र (कार्य) श्री रघुनाथजी केँ सुनौलनि। ओ चरित्र सब सुनला पर कृपानिधि श्री रामचन्द्रजीक मोन केँ बड नीक लगलन्हि। ओ हर्षित होइत हनुमान्जी केँ फेर हृदय सँ लगा लेलनि आ कहलनि – “हे तात! कहू, सीता कोन तरहें रहैत अपन प्राणक रक्षा करैत छथि?”
८. हनुमान्जी कहलखिन – “अहाँक नाम राति-दिन पहरा दयवला छन्हि, अहाँक ध्याने केबाड़ छन्हि। नेत्र केँ अपनहि चरण मे लगौने रहैत छथि, यैह ताला लागल छन्हि, फेर कहू प्राण जाय त कोन मार्ग सँ? अबैत समय ओ हमरा चूड़ामणि उतारिकय निशानी लेल देलीह।”
९. श्री रघुनाथजी ओ चूड़ामणि लयकय हृदय सँ लगा लेलनि। हनुमान्जी फेर कहलखिन –
“हे नाथ! दुनू आँखि मे नोर भरिकय जानकीजी हमरा सँ किछु वचन कहलीह – छोट भाइ समेत प्रभुक चरण पकड़ब आ कहब जे अपने दीनबंधु छी, शरणागतक दुःख केँ हरयवला छी आ हम मन, वचन ओ कर्म सँ अहाँक चरणक अनुरागिणी छी। फेर, हे स्वामी! अहाँ हमरा कोन अपराध सँ त्यागि देलहुँ?
हाँ! एकटा दोष हम अपन अवश्य मानैत छी जे अहाँक वियोग होइते हमर प्राण नहि चलि गेल, मुदा हे नाथ! ई त आँखिक अपराध थिक जे प्राण केँ निकलय मे हठपूर्वक बाधा दैत अछि।
विरह अग्नि थिक, शरीर रुइया थिक आर साँस पवन थिक, एहि तरहें अग्नि आर पवन केर संयोग भेला सँ ई शरीर क्षणमात्र मे जरि सकैत अछि, मुदा नेत्र अपन हित के लेल प्रभुक स्वरूप देखिकय सुखी हेबाक लेल नोरक बरखा करैत अछि, जाहि सँ विरहक आगि सँ पर्यन्त देह जरि नहि पबैत अछि।
सीताजीक विपत्ति बहुत भारी छन्हि। हे दीनदयालु! ओ सब बिना कहने नीक अछि, कहला सँ अहाँ केँ आर बेसी क्लेश होयत। हे करुणानिधान! हुनकर एक-एक पल कल्प जेकाँ बितैत छन्हि। तेँ हे प्रभु! तुरन्त चलू आ अपन भुजाक बल सँ दुष्ट सभक दल केँ जितिकय सीताजी केँ लय आनू।”
१०. सीताजीक दुःख सुनिकय सुख के धाम प्रभुक कमलनेत्र मे जल भरि गेलनि आ ओ बजलाह – “मन, वचन आ शरीर सँ जिनका हमरहि गति छन्हि (हमरहि टाक आश्रय छन्हि), हुनका कि सपनहुँ मे कहियो विपत्ति आबि सकैत छन्हि?”
११. हनुमान्जी कहलखिन – “हे प्रभु! विपत्ति त ओतहिये टा अछि जतय अपनेक भजन-स्मरण नहि अछि। हे प्रभो! राक्षस सभक बाते कतेक अछि? अपने शत्रु केँ जितिकय जानकीजी केँ लय आयब।”
१२. भगवान् कहय लगलाह – “हे हनुमान्! सुनू, अहाँ समान हमर उपकारी देवता, मनुष्य अथवा मुनि कोनो शरीरधारी नहि अछि। हम अहाँक प्रत्युपकार (बदला मे उपकार) त कि करू, हमर मनो अहाँक सामना नहि कय सकैत अछि। हे पुत्र! सुनू, हम मोन मे खूब विचारिकय देखि लेलहुँ जे हम अहाँ सँ उऋण नहि भ’ सकैत छी।”
१३. देवता सभक रक्षक प्रभु बेर-बेर हनुमान्जी केँ देखि रहल छथि। नेत्र मे प्रेमाश्रुक जल भरल छन्हि आ शरीर अत्यन्त पुलकित छन्हि। प्रभुक वचन सुनिकय आर हुनकर प्रसन्न मुख तथा पुलकित अंग केँ देखिकय हनुमान्जी हर्षित भ’ गेलाह आ प्रेम मे विकल होइत बजलाह ‘हे भगवन्! हमर रक्षा करू, रक्षा करू’ कहिते श्री रामजीक चरण पर खसि पड़लाह।
१४. प्रभु हुनका बेर-बेर उठबय चाहैत छथि, लेकिन प्रेम मे डूबल हनुमान्जी केँ चरण सँ उठेनाय हुनका नीक नहि लगैत छन्हि।
१५. प्रभुक करकमल हनुमान्जीक माथ पर अछि। एहि स्थितिक स्मरण कयकेँ शिवजी प्रेममग्न भ’ गेलथि। पुनः अपन मोन केँ सावधान करैत शंकरजी अत्यन्त सुन्दर कथा कहय लगलाह – “हनुमान्जी केँ उठाकय प्रभु हृदय सँ लगा लेलनि आ हाथ पकड़िकय अपना लग मे बैसा लेलनि। हे हनुमान्! कहू त, रावण द्वारा सुरक्षित लंका आ ओकर बड़का बाँका किला सबके अहाँ कोना जरा देलियैक? हनुमान्जी प्रभु केँ प्रसन्न देखलनि त स्वयं अभिमानरहित वचन बजलाह – बन्दर सभक यैह त बड़का पुरुषार्थ होइछ जे ओ एक डार्हि सँ दोसर डार्हि पर फाँगि जाइत अछि। हम जे समुद्र नाँघिकय सोनाक नगर जरेलहुँ आ राक्षसगण सब केँ मारिकय अशोक वन केँ उजाड़ि देलहुँ ‘सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई॥’ – से सबटा त हे श्री रघुनाथजी, अपनहि टाक प्रताप छल। हे नाथ, एहि मे हमर प्रभुता किछुओ नहि छल। हे प्रभु! जेकरा पर अपने प्रसन्न होइ, ओकरा लेल किछुओ कठिन नहि छैक। अपनहि केर प्रभाव सँ रुइया जे स्वयं बहुत जल्दी जरयवला वस्तु थिक से बड़वानल (बड़ा भारी आगि) केँ सेहो जरा सकैत अछि। (अर्थात् असंभव सेहो संभव भ’ सकैत अछि।)
नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥
हे नाथ! हमरा अत्यन्त सुख दयवला अपन निश्चल भक्ति कृपा कयकेँ दिअ। हनुमान्जीक अत्यन्त सरल वाणी सुनिकय, हे भवानी! प्रभु श्री रामचन्द्रजी ‘एवमस्तु’ (एहिना हुए) कहलखिन्ह। हे उमा! जे श्री रामजीक स्वभाव जानि लेलक, ओकरा भजन छोड़िकय दोसर बाते नहि सोहाइत छैक। ई स्वामी-सेवक संवाद जेकर हृदय मे आबि गेल, वैह श्री रघुनाथजीक चरणक भक्ति पाबि गेल।”
१६. प्रभुक वचन सुनिकय बानर सब कहय लागल – “कृपालु आनंदकंद श्री रामजी की जय हो, जय हो, जय हो!” तखन श्री रघुनाथजी कपिराज सुग्रीव केँ बजौलनि आ कहलनि – “चलबाक तैयारी करू। आब विलंबक कोनो कारण नहि। बानर सब केँ तुरन्त आज्ञा दियौक।” भगवान् केर ई लीला (रावणवध केर तैयारी) देखिकय, बहुते रास फूल बरसाकय आर हर्षित भ’ कय देवता आकाश सँ अपन-अपन लोक केँ चलि गेलाह।
हरिः हरः!!