स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
श्री सीता-त्रिजटा संवाद
१. त्रिजटा द्वारा देखल गेल सपनाक वृत्तान्त सुनि सीताजीक चरण लागि सब राक्षसी एम्हर-ओम्हर चलि गेल। सीताजी मोन मे विचार करय लगलीह जे एक मास बिति गेलाक बाद नीच राक्षस रावण हमरा मारत। से सोचि सीताजी हाथ जोड़िकय त्रिजटा सँ कहली – हे माता! तूँ हमर विपत्ति के संगिनी छँ। जल्दी कोनो एहेन उपाय करे जाहि सँ हम शरीर छोड़ि सकी। विरह असह्य भ’ गेल अछि, आब ई सहल नहि जाइत अछि। काठ लाबिकय चिता बनाकय सजा दे। हे माता! फेर ओहि मे आगि लगा दे। हे सयानी! तूँ हमर प्रीति केँ सत्य कय दे। रावणक शूल समान दुःख दयवाली वाणी कान सँ के सुनय?
२. सीताजीक वचन सुनिकय त्रिजटा हुनकर चरण पकड़िकय बुझबय लागल आ प्रभुक प्रताप, बल ओ सुयश सुनबय लागल। ओ कहलकनि – हे सुकुमारी! सुनू! रातिक बेर आगि नहि भेटैत छैक। एना कहिकय ओ अपन घर लेल चलि गेल।
३. सीताजी मनहि मन कहय लगलीह – कि करू! विधाते विपरी भ’ गेला अछि। नहि आगि भेटत, नहि पीड़ा मेटायत। आकाश मे आगि (अंगाररूपी तारा) प्रकट देखाय दय रहल अछि, मुदा पृथ्वी पर एकहु टा तारा नहि अबैत अछि। चन्द्रमा अग्निमय अछि, लेकिन ओहो मानू हमरा हतभागिनी जानिकय आगि नहि बरसाबैत अछि। हे अशोक वृक्ष! हमर विनती सुनह। हमर शोक हरि लय आ अपन ‘अशोक’ नाम सत्य करह। तोहर नव-नव कोमल पत्ता अग्नि समान अछि। अग्नि दय, विरह रोग केँ सीमा नहि नंघाबह।
४. सीताजी केँ विरह सँ परम व्याकुल देखि ओ क्षण हनुमान्जी केँ कल्प समान बितलनि।
हरिः हरः!!