कष्ट
ई ‘कष्ट’ शब्द बजितो या सुनितो, अथवा सोचितो मोन केँ भयभीत करैत अछि, हृदयक धड़कन बढ़ा दैत अछि आ पूरे सिस्टम केँ एलर्ट पर दय दैत अछि। कष्ट शरीर मे सेहो होइत छैक आ मोन-मस्तिष्क मे सेहो। सामान्य सँ अधिक शारीरिक तापक्रम केँ बुखार कहल जाइछ, आ बुखार मे मोन बौएनाय, माथ औनेनाय, शरीर थरथरेनाय, देह सँ धाह फेकनाय, कफ आ खाँसी, साँस मे तकलीफ… विभिन्न बाधा उत्पन्न भ’ गेल करैछ। यानि शरीर मे कोनो रोग होयत त कष्ट हेब्बे करत। तहिना, आजू-बाजू केकरो असामयिक मृत्युक खबरि सुनब त मानसिक कष्ट के अनुभूति करब। सामान्यतः जे नीति, नियम आ नीयत केँ मानव उचित आ समुचित मानैत अछि, ताहि मे कनिकबो कमी-बेसी भेला पर मन-मस्तिष्क पर प्रभाव पड़िते टा छैक। एहि प्रभाव मे एकटा बहुत महत्वपूर्ण होइत छैक ‘कष्ट’।
हुनकर विवाह भेलनि। बड नीक सँ गृहस्थी सजलनि। अचानक कि भेलनि नहि भेलनि, घर मे कलह शुरू आ कनी दिन बाद एक एम्हर दोसर ओम्हर। बच्चा सब पर पड़ल विपरीत असर। आब?
जे मानव छी, मानवीय संवेदना जिनका-जिनका मे अछि ओ स्वाभाविके ‘कष्ट’ के अनुभव करब। भले अपन घर मे ई ‘कष्ट’ नहि आयल, लेकिन मानव रूप मे पड़ोसियो के घर के कष्ट अहाँ केँ जरूरे कष्ट देत।
कतेक आदमी ‘कष्ट’ सँ बचबाक लेल अपन ‘मन-मस्तिष्क’ केँ डायवर्ट (दिशा परिवर्तन) कयल करैत अछि। शरीरक कष्ट सेहो जखन असह्य भ’ जाइत छैक त यैह डायवर्ट करबाक केमिकल-ड्रग्स पौलिसी अपनायल जाइत छैक। शरीर मे तेहेन सुइया या गोटी प्रवेश करा देल जाइत छैक जे ओहि सँ मोनक दिशा दोसर दिश चलि जाइत छैक, जा धरि दबाइ के असर रहल, कष्ट कम रहल। कैन्सर जेहेन रोग मे बेसी लोक केँ यैह नीति पर कष्ट व्यवस्थापन करैत देखैत छी। बाद मे ओ ड्रग्स के असर पर्यन्त केँ कैन्सरक कष्ट समाप्त कय रोगी केँ तड़पा-तड़पा कय मारैत छैक। छटपटाहट आ झुंझलाहट आदि कतेको तरहक मनोभाव सँ संघर्ष करैत कैन्सर रोगी केँ मरैत देखल अछि। लोक प्रार्थना करय लगैत अछि जे हे भगवान् आब हिनका/एकरा ल’ जइयौ।
बसल गृहस्थी मे जँ कोनो रोग प्रवेश कय गेल त ओ घर मे उरी-बिरी लागि जाइत छैक। आर, एकर कष्ट वैह जनैत छैक जे पीड़ित होइत छैक। पीड़ित केर कष्टक अनुभव स्वयं पीड़ा नहि भोगनिहार नहि बुझि पबैत छैक। भले कतबो अपना केँ ज्ञानी आ प्रधानी कहय लोक, लेकिन पीड़ाक अनुभूति बिना बुझने दोसरक कष्ट केँ कम आँकल करैत छैक।
हमर मिथिला समाज मे एहि तरहक कष्ट मे उल्टा पैरे चलबाक अजीब रूल हम बच्चे सँ देखैत आबि रहल छी। फल्लाँ आदमी अपन घरवाली केँ गला दबाकय मारि देलकैक…. तामस पर। बाद मे होश एलय, मरल घरवाली केँ तुलसी चौरा लग निकालि देलकय… पूरा गाम शोर भ’ गेलय… पुलिस अबितय ताहि सँ पहिनहि पूरा गाम के लोक मिलिकय ओकरा गाछी मे डाहि देलकय आ ११म् दिन एकादशा, १२म् दिन द्वादशा मे खूब बड़का भोज खा कय ओहि मृतात्माक भटकैत आत्मो केँ डकारि लेलकय। बाप रे! एहेन निर्लज्ज समाज? आब कनी कम भेलय हँ शायद।
फल्लाँ डेली पिबिकय घर आबय छय, घरवाली धियापुता केँ कि खुएतैक से पाय ओकरा सँ मंगलक कि धेले चटकन ओकरा गाल पर, धियापुता बीच मे आयल माय के बचबय लेल त ओकरो लाते-हाथे मारलक आ उठाकय पटकि देलक। ओहो बच्चा सब चिचियाकय भागल ओहि नरपिशाच लग सऽ। परिवार मे चर्चा भेलय त घरेवाली पर दस गोटे दस तरहक बात-कथा कहिकय ओहि नरपिशाचक पिशाचगिरी पर पर्दा दय देलकैक। गोटेक-आधेक केँ कष्ट भेलय त ओ कतहु असगर मे कानि लेत, नोर पोछि लेत आ पोन झाड़ैत फेर अपन मूरी लटकेने काज मे लागि जायत।
एहेन-एहेन कतेको रास बात हमरा लोकनिक समाज मे होइत अछि।
आब जखन ई मोबाइल युग आ शहरीकरण के दौड़ आबि गेल छैक, देहो बेचिकय टका आराम सँ कमायल जा सकैत छैक लोक बुझि गेलय… त फेर कि छय… बाजार मे बिकाउ आ माल कमाउ। लेकिन समाज मे बड़का भोज कय केँ ई देखाउ जे हमर कमाय बाजारू वृत्ति सँ नहि, अपितु बड़ा कठिन श्रम सँ कमायल पैसा अछि। लोक जे चिन्हतो-बुझितो छैक जे ई देह व्यापार मे फल्लाँ शहर मे अछि, ओहो औचित्य पर फिल्मी डायलाग दैत नजरि पड़ि जायत – देह व्यापार कि बिना दैहिक परिश्रमहि के होइत छैक हउ? सभक श्रम के सम्मान दहक। चलह, भोज खाह पहिने!
लेख लम्बा भ’ रहल अछि… पाठक बोर भ’ रहल छथि। छोट मे लास्ट करय छी। मिथ्या आ आडम्बर वला समाज छी से मानि लिअ आ दोसरक कष्ट सँ अपना केँ कथी लेल कष्ट देब… जहिया अपना पर पड़त तहिया भोगि लेब से मोन मनाकय सब कियो सुइत रहू, या उत्सव मनाउ। ई कहनाय बन्द करू जे सुसभ्य-सुसंस्कृत मानव छी आ मानवीयता लेल जिबैत छी। एक तरफ कियो कष्ट मे अछि, दोसर तरफ अहाँ ‘हैप्पी बर्थडे टु यू’ कहि-कहिकय दुष्चरित्र पर पर्दा झाँपल करू।
हरिः हरः!!