रामचरितमानस मोतीः गुफा मे तपस्विनी सँ भेंट उपरान्त बानर सभक समु्द्रक कछेर पर पहुँचब

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

गुफा मे तपस्विनीक दर्शन, वानर सभक समुद्र तट पर आयब, सम्पाती सँ भेंट आर बातचीत

१. ताकैत-ताकैत बानर सब केँ बड जोर सँ प्यास लागि गेलैक। ओ सब बहुते व्याकुल भ’ गेल। कतहु जल नहि भेटि रहल छलैक। घनगर जंगल मे सब कियो रस्तो बिसरि गेल छल। हनुमान्‌जी मोन मे अनुमान कयलनि जे जल पीने बिना सब कियो मरि जायत। त ओ पहाड़क एकटा चोटी पर चढ़ि चारू दिश नजरि देलनि। पृथ्वीक अन्दर एकटा गुफा मे हुनका किछु हलचल बुझाय पड़लन्हि। ताहि उपर चकवा, बगुला आ हंस सब उड़ि रहल छल आ बहुतो रास पक्षी सब ओहि मे प्रवेश कय रहल छल।

२. पवन कुमार हनुमान्‌जी चोटी पर सँ उतरि अयलाह। सब केँ लयकय ओ गुफा देखेलखिन। सब बानर हनुमान्‌जी केँ आगू कय गुफा मे प्रवेश कयलनि। अन्दर गेलापर ओ सब एकटा उत्तम उपवन (बगीचा) आ पोखरि देखलथि। ताहि मे बहुते कमल फूल फुलायल छल। ओहिठाम एकटा सुन्दर मन्दिरो सेहो छलैक। मन्दिर मे एक गोट तपोमूर्ति स्त्री बैसल छलीह। दूरहि सँ सब कियो हुनका सिर नमौलनि। पुछला पर अपन सब वृत्तांत कहलखिन्ह। तखन ओ तपस्विनी कहलखिन – अहाँ सब जलपान करू आ भाँति-भाँति केर रस सँ भरल सुन्दर फल सब खाय जाउ।

३. आज्ञा पाबि सब कियो स्नान कयलनि। मीठ-मीठ फल सब खेलनि। फेर सब हुनकहि लग चलि अयलाह। तहन ओ अपन सबटा कथा कहि सुनेलीह – “हम आब ओतय जायब जतय श्री रघुनाथजी छथि। अहाँ सब आँखि मुंदि लिय’ आ गुफा छोड़िकय बाहर जाउ। अहाँ सब सीताजी केँ पाबि जायब, निराश नहि होउ।”

४. आँखि मुंदिकय सब बाहर अयलाह। जखन आँखि खोललनि त सब वीर बानर कि देखैत छथि जे ओ सब एकटा समुद्रक किनार पर ठाढ़ छथि। आर, ओ तपस्विनी स्वयं ओहि ठाम चलि गेलीह जतय श्री रघुनाथजी रहथि। ओ जाकय प्रभुक चरणकमल मे सिर नमेलीह आ बहुत प्रकार सँ विनती सब कयलीह। प्रभु हुनका अपन अनपायिनी (अचल) भक्ति देलनि। प्रभुक आज्ञा सिर पर धारण कय आ श्री रामजीक युगल चरण केँ, जेकर ब्रह्मा आ महेश सेहो वन्दना करैत छथि, हृदय मे धारण कय ओ (स्वयंप्रभा) बदरिकाश्रम लेल चलि गेलीह।

५. एम्हर वानरगण मोन मे विचार कय रहल छथि जे अवधि त बिति गेल, मुदा काजो किछु नहि भेल – सब मिलिकय आपस मे बात करय लगलाह जे हे भाइ! आब त सीताजीक खबरि लेने बिना लौटलो पर हम सब कि करब! अंगद नेत्र मे नोर भरिकय कहय लगलाह जे दुनू प्रकार सँ हमरा सभक मृत्यु तय अछि। एतय सीताजीक कोनो सुधि नहि भेटल आ ओतय गेलापर वानरराज सुग्रीव मारि देता। ओ त पिताक वध भेले पर हमरा मारि दितथि। श्री रामजी मात्र हमर रक्षा कयलनि, एहि मे सुग्रीव केर कोनो एहसान नहि अछि।

६. अंगद बेर-बेर सब सँ कहि रहला अछि जे आब मरनाय निश्चित अछि। एहि मे कनिकबो सन्देह नहि अछि। बानर वीर अंगद केर वचन सुनैत छथि, मुदा किछु बाजि नहि पबैत छथि। हुनका सभक नेत्र सँ नोर बहि रहल अछि। एक क्षण लेल सब कियो सोच मे मग्न भ’ गेलाह अछि। फेर सब एना वचन बाजय लगलाह – “हे सुयोग्य युवराज! हम सब सीताजीक खोज लेने बिना नहि लौटब।”

७. एना कहिकय लवणसागर केर तटपर जाय सब वानर कुश बिछाकय बैसि रहलाह। जाम्बवान्‌ अंगद केँ दुःखी देखि विशेष उपदेशक कथा सब कहय लगलाह। ओ बजलाह – “हे तात! श्री रामजी केँ मनुष्य नहि बुझू, ओ निर्गुण ब्रह्म, अजेय आर अजन्मा छथि। हम सब सेवक अत्यन्त बड़भागी छी, जे निरन्तर सगुण ब्रह्म श्री रामजी मे प्रीति रखैत छी। देवता, पृथ्वी, गो आर ब्राह्मण केर वास्ते प्रभु अपन इच्छा सँ (कोनो कर्मबंधन सँ नहि) अवतार लैत छथि। ओतय सगुणोपासक (भक्तगण सालोक्य, सामीप्य, सारुप्य, सार्ष्टि और सायुज्य) सब प्रकारक मोक्ष केँ त्यागिकय हुनकर सेवा मे संग रहैत अछि।”

८. एहि तरहें जाम्बवान्‌ बहुत प्रकार सँ कथा सब कहि रहला अछि। हुनकर बात पर्वत केर कन्दरा मे सम्पाती सुनलाह। बाहर निकलिकय ओ बहुते रास बानर सब केँ देखलनि। ताहि पर ओ बजलाह – “जगदीश्वर हमरा घरहि बैसल बहुते रास आहार पठा देलनि अछि। आइ एकरा सब केँ खा जायब। बहुत दिन बिति गेल, भोजन बिना मरि रहल छलहुँ। पेट भरिकय भोजनहुँ नहि भेटैत अछि। आइ विधाता एक्के बेर मे एतेक रास भोजन पठा देलनि।”

९. गिध केर वचन कान सँ सुनिते सब डरा गेलाह जे आब सचमुच मे मरन भ’ गेल, से हम सब बुझि गेलहुँ। फेर ओ गिध सम्पाती केँ देखिकय सब बानर उठिकय ठाढ़ भ’ गेलाह। जाम्बवान् केर मोन मे विशेष सोच भेलनि। अंगद मोन मे विचारि कय कहलखिन – “अहा! जटायुक समान धन्य कियो नहि अछि। श्री रामजीक कार्य लेल ओ शरीर छोड़िकय परम बड़भागी भगवान्‌ केर परमधाम केँ चलि गेलाह।”

१०. हर्ष आर शोक सँ युक्त वाणी (समाचार) सुनिकय ओ पक्षी (सम्पाती) बानर सभक लग चलि अयलाह। बानर सब डरा गेल। हुनका सब केँ अभय कयकेँ (अभय वचन दयकेँ) ओ लग आबिकय जटायुक वृत्तांत पुछलनि। तखन ओ सब सबटा कथा हुनका कहि सुनेलखिन। भाइ जटायुक करनी सुनिकय सम्पाती बहुते प्रकार सँ श्री रघुनाथजीक महिमाक वर्णन करय लगलाह। ओ कहलखिन – “हमरा समुद्रक किनार पर लय चलू, हम जटायु केँ तिलांजलि दय दिअनि। एहि सेवाक बदला मे हम अहाँ लोकनिक वचन सँ सहायता करब, सीताजी कतय छथि से बता देब, जिनका अहाँ सब ताकि रहल छियनि से भेटि जेती।”

११. समुद्रक तीर पर छोट भाइ जटायुक क्रिया (श्राद्ध आदि) कयकेँ सम्पाती अपन कथा कहय लागल – “हे वीर बानर लोकनि! सुनू, हम दुनू भाइ उठैत जबानी मे एक बेर आकाश मे उड़िकय सूर्य लग चलि गेलहुँ। सूर्यक तेज जखन सहन नहि भेलैक त जटायु घुरि गेल, हम अभिमानी सूर्यक नजदीक चलि गेलहुँ। हमर पाँखि मे भारी जलन होबय लागल। घोर चित्कार करैत हम भूमि पर खसलहुँ। ओतय चन्द्रमा नाम केर एक मुनि छलाह। हमरा देखिकय हुनका बड दया लगलनि। ओ बहुते प्रकार सँ हमरा ज्ञान देलनि आ हमर देहजनित (देह सम्बन्धी) अभिमान केँ सेहो छोड़ा देलनि। ओ कहलनि – त्रेतायुग मे साक्षात्‌ परब्रह्म मनुष्य शरीर धारण करता। हुनक स्त्री केँ राक्षस सभक राजा हरण कय लेत। तिनकर खोज मे प्रभु दूत पठौता। तिनका सँ भेटला पर तूँ पवित्र भ’ जेमें। आर तोहर पंख फेर सँ उगि जेतौक, चिन्ता नहि करे। हुनका सब केँ तूँ सीताजी केँ देखा दिअहुन। मुनिक ओ वाणी आइ सत्य भेल। आब हमर वचन सुनिकय अहाँ सब प्रभुक काज करू। त्रिकूट पर्वत पर लंका बसल अछि। ओतय स्वभावहि सँ निडर रावण रहैत अछि। ओतय अशोक नाम केर उपवन (बगीचा) अछि, जतय सीताजी रहैत छथि। एहि समय मे सेहो ओ सोच मे डूबल बैसल छथि।”

हरिः हरः!!