मैथिली उपन्यास ‘हम आबि रहल छी’ पर आधारित धारावाहिक लेख
– रबीन्द्र नारायण मिश्र
हम आबि रहल छी – भाग एगारह आ बारह
११.
गंगा कतेको सालक बाद माए-बाबूक संगे अपन गाम पहुँचल । गामक संपूर्ण परिदृश्य बदलि गेल रहैक । सभसँ आश्चर्य ओकरा ई देखि कए लगलैक जे मालिकक कोठा ढनमना कए खसि रहल छल । ओहिमे केओ नहि रहैत छल । कहाँदनि मालिक अपने अपन नातिनक ओहिठाम दिल्लीएमे रहैत छथि। मालकिन किछुसाल पूर्व हृदयाघातसँ गामेमे स्वर्गबासी भए गेलखिन । हुनकरसभक एकमात्र पुत्र एकदिन भोरे आमक गाछसँ लटकल भेटलखिन । हुनकर बेटी सेहो सासुरेमे हैजाक शिकार भए गेलखीन । हुनकर बेटीक एकमात्र संतान हुनकर नातिन छथिन । ओकरे संगे मालिको रहि अपन गुजर करैत छथि । गामक सभटा जमीन बिका गेलनि । गामक घर सेहो खसि रहल अछि। केओ देखनाहर नहि । ई थिक समय। किछु सालपूर्व मालिकक घमंड आकाश लागल छल । आब ओ अपनो रक्षा करबामे असमर्थ छथि।
ई जानि जे मालिक अपन नातिन संगे दिल्लीमे रहैत छथि, ओकरा बहुत जिज्ञासा भेलैक । एकदिन सहटि कए गंगा मालिकक घर लग गेल । ओतए हुनकर दिआदसभसँ हुनकर दिल्लीक पता लेलक । ओ मोने-मोन सोचलक-
“दिल्ली वापस गेलाक बाद एकदिन जरूर मालिकसँ भेंट करबनि । आखिर छथि तँ अपने समाजक । देखबैक जे दिल्लीमे कतए आ कोन हालतिमे छथि ।”
गाम अएलाक बाद गंगाक माए आ बाबू बहुत प्रसन्न भेल रहथि । एक सप्ताह दिन-राति मेहनति कए गंगा अपन पुरना घरकेँ ठीक केलक । ओकर पैतृक खेतसभ मालिकक परिवार जबरदस्ती कब्जा कए लेने छल । मालिकक गामसँ हटि गेलाक बाद ओहि खेतसभपर जे-से तीमन-तरकारी उपजबैत छल । गंगा सौंसे गामकेँ जमा कए देलक । पंचैती भेल । पंचसभ गंगाक पक्षमे निर्णय देलथि । “गंगाक जमीन जरूर वापस हेबाक चाही।” – सरपंच बजलाह । स्वार्थे लोक आन्हर भए जाइत अछि । सएह हाल हुनका लोकनिक छल जे गंगाक जमीनक नाजायज कब्जा कए लेने छलाह । मुदा जखन सौंसे गाम एक भए गेल तँ केओ की कए लैत? गंगाकेँ अपन जमीनसभ वापस भेटलैक । ओकर घर सेहो फेरसँ ठाढ़ भए गेलैक । एहि शुभ समाचारकेँ ओ हमरा फोन कए कहलक आ आग्रहो केलक जे एकबेर किछुओ दिनक हेतु हम ओकरा ओहिठाम अवश्य आबी । हम किछु स्पष्ट आश्वासन नहि दए सकलिऐक कारण हमरा तँ अपने लफरा लागल छल । अनकासँ तँ लड़ि सकैत छी । मुदा जखन अपने बेटा दुश्मन भए जाए तँ के रक्षा करत? सएह हाल हमर भए गेल छल। हम किछु-किछु बात गंगाकेँ कहलिऐक । ओकर उत्सुकता बढ़िते गेलैक । ओ कहलक-
“हम अहाँक परिस्थितिसँ बहुत चिंतित छी । फोनपर कतेक गप्प करब । दिल्लीसँ दीपेंदुक फोन आएल छल । ओ अहाँक बारेमे पुछैत छलाह । एना अचानक चलि अएबाक कारण ओ सभ बहुत चिंतित छथि । कहाँदनि अहाँकेँ अचानक चलि गेलाक बाद दुपहर रातिमे शंकरक निन्न टुटल रहैक । ओ अहाँकेँ नहि देखि बहुत परेसान भए गेल रहए । ऊपरसँ केबारो खुजले रहैक। ओ सभ बहुत चिंतामे पड़ि गेलाह । रातिभरि अहाँकेँ तकैत रहलथि ।”
“तूँ कहिओ हमरा गाम आबह । हमरा लोकनि भरिपोख गप्प करब । कनी हमर मोनो बदलत । एहिठाम तँ दिन-राति धमाचौकरी मचल रहैत अछि ।”
“हम तँ आबहि बला छी । दू-तीन दिनमे दीपेंदु सेहो एमहर आबए बला छथि । हुनके संगे आएब ।”
“मुदा ओ की करए आबि रहल अछि?”
“से तँ ओकरा अएलाक बादे बुझाएत । मुदा एतबा कहलक जे हमसभ बूढ़ासँ भेंट करए चाहैत छी ।”
“हमसभ के?”
“आब से की कहू? जखन ओ अओताह तखने पता लागत?”
ठीक तीनदिनक बाद दीपेंदु गंगाक ओहिठाम पहुँचल । ओहि समय भोर भए रहल छलैक । दरभंगा टीसनपर चारि बजे भोरे ट्रेन पहुँचल रहैक । ट्रेनक समय तँ रहैक दसे बजे । मुदा ओ छओ घंटा देरीसँ पहुँचल । कहाँदनि समस्तीपुर गुमती लग ट्रेन एकटा कारसँ टकरा गेलैक । कार चूर -चूर भए गेलैक। ओहिमे सबार यात्रीसभ सेहो ओतहि मरि गेल । एही चक्करमे ट्रेन देरीसँ पहुँचल रहए । दरभंगा बस स्टैंडसँ बस पकड़ि कए ओ हमर गाम आएल। रस्तामे कए बेर फोन केलक । हमरा उम्मीद रहए जे शंकरो आबथि। मुदा ओ नहि रहथि । दिल्लीमे किछु जरूरी काजसभमे लागि गेल रहथि । दीपेंदु ओहिठाम पहिलबेर आएल रहथि । ओ ओहि ठामक सुख-शांति देखि बहुत प्रभावित रहथि।
१२
कारमे सबार यात्रीसभक लहास सड़कक कातमे पड़ल छल । ओकर सभहक मुँह-कान थकुचा गेल रहैक। चारूकात लोकसभक करमान लागि गेल छल । ओहीमेसँ ककरो सड़कपर पड़ल मोबाइल फोन देखेलैक । मोबाइल फोनमे गंगाक नंबर भेटलैक । ओ गंगाकेँ फोन करैत अछि –
“ऐँ! दीपा किएक फोन कए रहल छथि?” – गंगा फोन उठबैत अछि । फोनमे कोनो अज्ञात पुरुखक अबाज सुनि ओ अचंभित अछि ।
“के बजैत छी?”
“हम समस्तीपुर गुमतीसँ लाइनमैन बजैत छी ।”
“की बात?”
“एहिठाम बड़का दुर्घटना भए गेल छैक । दूटा लहास पड़ल छैक । ओकरेसभक मोबाइलसँ फोन कए रहल छी ।”
“मुदा ई नंबर तँ दीपाक छनि ।”
“एकर माने अपने हुनका जनैत छिअनि ।”
“अवश्य जनैत छिअनि । हुनका संगे आओर के के छथि?”
“से हमसभ की जाने गेलिऐक?”
“दीपाक संगे एकटा डायरी सदिखन रहैत छैक । ओ सभटा जरुरी बात ओहिमे लिखैत छथि । ओहि डायरीकेँ ताकू । ओहिसँ सभटा जानकारी भेटत ।”
गंगासँ बात केलाक बाद ओसभ डायरी तकबामे लागि गेल। सड़कसँ दू लग्गा हटि कए एकटा खधिआमे डायरी भेटलैक। बगलमे ओकर गर्दनिक सोनाक चेन आ गुल्लक सेहो भेटलैक । डायरीक अंतिम पन्ना उनटल गेल। ओहिमे लिखल छल –
“आइ साँझमे हम संगी संगे बाबाधाम जाएब। मौका भेटत तँ वापसीमे अपन पैतृक गाम सेहो जाएब । हमर नाना आबए जोकर नहि छथि । तेँ ओ दिल्ली डेरेपर रहताह।”
दीपाक संगे आओर केओ छल कि नहि से नहि फरिछा रहल छल । हम दीपेंदुकेँ एहि फोनक बारेमे कहैत छी । ओ एहि समाचारकेँ सुनि बहुत दुखी भए जाइत अछि । हम ओकरा शांत करबाक प्रयास करैत छी ।
जखन ओ अज्ञात फोन आएल तँ गंगा आ दीपेंदु हमर घरक सामने पहुँचि गेल रहथि । मोबाइलपर गप्प करितहि गंगा दीपेंदुक संगे हमरा ओहिठाम पहुँचलाह । हम ओसारापर पटिआ ओछा कए बैसल रही । ओकील सेहो ओतहि रहथि । हमसभ रातुक घटनाक प्रसंगे आपसमे चर्चा करैत रही ।
“अहाँ अपन जगहपर कायम रहू । ककर मजाल छैक जे अहाँकेँ एहिठामसँ हटा देत । हमर ओकालत कहिआ काज आओत।”
“जखन बेटे हमर दुश्मन भए गेल अछि तखन हम कतेक काल बाँचब ।”
“इएह ने गड़बड़ अछि । जखन बेटा अपन कर्तव्य नहि बूझि रहल अछि तखन ओकर मोहमे पड़ल रहब कतहुसँ उचित नहि अछि । अहाँ अपन चिंता करू । के जानैत अछि जे जीवन कतेक दिन चलत?”
“आब हम जीबिए कए की करब? पत्नी चलिए गेलीह । बेटा बेकाबू भए गेल । तखन हम असगर ककरा बले आ किएक जिअब? ”
“फेर ओएह बात । जिअब आ मरब अपना हाथमे नहि छैक । जहिआ मरबाक होएत मरि जाएब । ई मृत्युभुवन थिक। एतए केओ अमर नहि भेल । जे आएल से गेल । तेँ ओहि प्रश्नपर सोचनाइ व्यर्थ थिक ।”
“तँ तूँ की कहैत छह?”
“हम तँ इएह कहब जे अपन चीज-वस्तुकेँ बचा कए राखू। जाबे जिअब इज्जतिसँ जिअब, ककरो लग हाथ नहि पसारए पड़त। मरि जाएब तकरा बाद जे हेबाक हेतैक से हेतैक।”
“चीज-वस्तु तँ बँचले अछि । अनेरे के मुखिआ ताल ठोकि रहल अछि । कहि नहि ओकरा शंकरक संगे की बात भेलैक? शंकर की सभ कए गेल अछि से नहि कहि?
“अहाँ ताहिसभक चिंता छोड़ू । अपन मोनकेँ मजगूत करू। अपन हाथ नहि काटू । केओ आओर किछु नहि बिगाड़ि सकत।”
“हम आब कोनो जबान छी । नित्यप्रति शरीर कमजोरे होइत जा रहल अछि । स्मृति कमजोर भेल जा रहल अछि । रहि-रहि कए ओ मोन पड़ैत रहैत छथि । गंगोत्रीमे हुनकर लुप्त भए गेलासँ हमर सभ शक्ति जेना गंगेमे बहि गेल । देह आ मोन कखनहु एक संगे नहि रहैत अछि । हम तँ बस ठाढ़ छी सएह टा।”
“कोनो अहींटा बूढ़ नहि भेलहुँ अछि । सभकेँ एहि रस्तासँ जेबाक होइत छैक । तखन केओ ओकरा हँसि कए बिता लैत अछि, केओ कनिते-कनिते चलि जाइत अछि ।”
“कहनाइ आसान छैक । गुंड़क मारि धोकरे जनैत अछि। स्त्री मरि गेलीह । बेटा बेगाना भए गेल । पुतहुकेँ हमरासँ कोनो मतलब नहि रहैत छनि । बेटीकेँ फुरसतिए नहि छनि । तखन ककरा बले रहू । तूँही कहह?”
“अपना बले, भगवानक बले । आओर ककरा बले रहब?”
हम आ ओकील आपसमे गप्प करिते छलहुँ की दीपेंदुक संगे गंगा हड़बड़ाएल हमरा लग पहुँचल । ओकरासभकेँ अबैत देखि ओकील चलि जाइत छथि । गंगा आ दीपेंदु हमरा प्रणाम करैत छथि ।
“की बात छैक? एना किएक परेसान छह?” – हम पुछैत छी।
“दुर्घटना…”
“की बजलह?”
“दुर्घटना.”
“साफ-साफ किएक नहि बजैत छह जे की भेलैक । एना चिचिएलासँ तँ किछु नहि फरिछा रहल अछि ।”
ताबते समस्तीपुर गुमतीसँ लाइनमैनक फेर फोन अबैत अछि।
“दोसर लहासक सेहो पहिचान भए गेलैक अछि । ओ ओही कारक वाहनचालक छल ।
“मुदा हमरा ई सभ कहलासँ की होएत?”
“अहाँ हुनकर परिवारकेँ सूचना दए दिअनु । एतबा तँ अहाँ कइए सकैत छी ।”
“मुदा दीपाक परिवारक ऐहि गाममे केओ नहि रहैत छथि। सुनैत छी हुनकर नाना सेहो हुनके संगे दिल्लीएमे छथि।”
तकर बाद फोन कटि जाइत अछि ।
“ककर फोन छल?” – हम पुछैत छिअनि ।
“समस्तीपुर गुमतीसँ लाइनमैनक ।”
“ई की भेलैक?”
“समस्तीपुर गुमती लग ट्रेन आ कारक टक्कर भए गेलैक जाहिमे कारमे सवार दुनूगोटे ठामहि मरि गेल । ओहिमे हमर गामक मालिकक नातिन दीपा सेहो छलि।”
“दीपा जे दिल्लीमे अस्पतालमे भेटल रहथि।”
“हँ, ओएह।” – दीपेंदु बजैत छथि ।
दुर्घटनामे दीपाक देहांतक समाचार सुनि दीपेंदुक हालति बहुत खराप भए गेलैक । ओ तँ आएल छल हमरासँ गप्प करबाक हेतु । मुदा भए गेलैक दोसरे बात । आब तँ ओकरा मुँहसँ बकारे नहि फुटि रहल छलैक। हम लाख गप्प करबाक प्रयास केलहुँ मुदा ओ जे गुम्मी धेलक से धेने रहि गेल । दीपेंदु ओहिना अबाक हमरा सामने पटिआपर बैसल रहल । बामा कात गंगा सेहो चुपचाप बैसल छल । आखिर हमही ओकरसभक मौन तोड़ैत कहलिऐक –
“तूँसभ एना कतेक काल रहबह । भोजनक समय भए गेल छैक । सभगोटे भोजन कए लएह । तकरबाद शांत मोनसँ विचारि कए काज करिअह ।” दीपेंदु किन्नहु भोजन करबाक हेतु तैयार नहि भेल । बहुत मोसकिलसँ चाहटा पिलक, ओहो कनीके। हम आ गंगा संगे भोजन करैत छी ।
“अहाँ एमहर कोना अएलहुँ?” – हम दीपेंदुकेँ पुछलिअनि।
“हमर पूर्वज कलकत्तासँ दरभंगाक बंगलागढ़मे बसि गेल रहथि । ओ सभ नामी विद्वान छलाह । हुनकर भविष्यवाणी कखनो गलत नहि होइत छल । दरभंगा महराज हुनका बहुत मान-दान केलखिन । जमीन देलखिन, घर बना देलखिन । तहिआसँ हमसभ दरभंगेक बासी भए गेलहुँ । हमसभ अखनहु घरमे बंगालीएमे बजैत छी । मैथिली सेहो धुरझार बाजि लैत छी । जखन जेहन लोक भेटल तेहने भाषा बाजि लैत छी ।”
“शंकरसँ कोना भेंट भेल?”
दिल्लीमे हम, शंकर, दीपा आ शंकरक पत्नी निशा संगे-संगे पढ़ैत रही । ओतहि परिचय भेल ।
“आ गंगासँ केना परिचय भेल?”
“से तँ गंगे कहत ।”
गंगा हमर आवास देखि बहुत प्रसन्न भेल। कहलक –
“बहुत नीक बास अछि । एहन सुभ्यस्त जगह छोड़ि कए केओ किएक दिल्लीमे कोनो कोनामे पड़ल रहत?”
“से बात शंकर बुझथि तखन ने? हुनका तँ जिद लागल छनि जे हम सभ किछु बेचि कए हुनका संगे दिल्ली रही। मुदा दिल्लीक हालति तँ हम देखबे केलहुँ अछि । जँ तूँ नहि भेटल रहितह तँ पता नहि हम अखन कोन हालतिमे आ कतए रहितहुँ, जीबितो रहितहुँ की नहि?”
“हम अपनेकेँ सभटा बात कहब । अखन हिनका कनी धरफरी छनि । हिनका बिदा कए दैत छिअनि । फेर जल्दीए आएब। तखन आगूक गप्प-सप्प हेतैक ।” – गंगा बाजल ।
“हम तँ सोचने रही जे अहाँ संगे रहब आ गामक आनंद लेब । मुदा हमरा अखन तुरंत वापस होएब जरूरी अछि। हम शंकरकेँ अपनेक समाचार सूचित कए देबनि ।” – दीपेंदु बाजल। ओ जाइत-जाइत एकटा लिफाफा हमरा हाथमे पकड़ा दैत छथि।”
“ई की अछि?”
“शंकरक चिट्ठी छनि । कहने रहथि जे दरभंगा जेबे करबह तँ हमर गामो चलि जइअह आ ई चिठ्ठी हमरा बाबूकेँ दए दिअहुन।”
गंगा आ दीपेंदु बिदा होइत छथि । जाइत-जाइत गंगा कहैत अछि-
“कोनो बातक चिंता नहि करब । हम अखन गामे छी । कखनो कोनो बातक दिक्कति होअए तँ फोन कए देब।”
गंगा आ दीपेंदु हमरा प्रणाम कए बिदा भए जाइत अछि।
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