रामचरितमानस मोतीः किष्किन्धाकाण्ड मंगलाचरण

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

मंगलाचरण

श्लोक :
कुन्देन्दीवरसुन्दरावतिबलौ विज्ञानधामावुभौ
शोभाढ्यौ वरधन्विनौ श्रुतिनुतौ गोविप्रवृन्दप्रियौ।
मायामानुषरूपिणौ रघुवरौ सद्धर्मवर्मौ हितौ
सीतान्वेषणतत्परौ पथिगतौ भक्तिप्रदौ तौ हि नः ॥१॥
कुन्दपुष्प आर नीलकमल समान सुन्दर गौर एवं श्यामवर्ण, अत्यन्त बलवान्‌, विज्ञान केर धाम, शोभा संपन्न, श्रेष्ठ धनुर्धर, वेद द्वारा वन्दित, गौ एवं ब्राह्मण लोकनिक समूह केर प्रिय (अथवा प्रेमी), माया सँ मनुष्य रूप धारण कएने, श्रेष्ठ धर्म लेल कवचस्वरूप, सभक हितकारी, श्री सीताजीक खोज मे लागल, पथिक रूप रघुकुल केर श्रेष्ठ श्री रामजी और श्री लक्ष्मणजी दुनू भाइ निश्चय टा हमरा सभक लेल भक्तिप्रद होइथ ॥१॥
ब्रह्माम्भोधिसमुद्भवं कलिमलप्रध्वंसनं चाव्ययं
श्रीमच्छम्भुमुखेन्दुसुन्दरवरे संशोभितं सर्वदा।
संसारामयभेषजं सुखकरं श्रीजानकीजीवनं
धन्यास्ते कृतिनः पिबन्ति सततं श्रीरामनामामृतम्‌॥२॥
ओ सुकृती (पुण्यात्मा पुरुष) धन्य छथि जे वेद रूपी समुद्र (केर मंथन) सँ उत्पन्न भेल कलियुग केर मैल केँ सर्वथा नष्ट कय दयवला, अविनाशी, भगवान श्री शंभु केर सुन्दर एवं श्रेष्ठ मुखरूपी चंद्रमा मे सदा शोभायमान, जन्म-मरणरूपी रोग केर औषधि, सबकेँ सुख दयवला आर श्री जानकीजीक जीवनस्वरूप श्री रामनामरूपी अमृत केर निरंतर पान करैत रहैत छथि॥२॥
सोरठा :
मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खान अघ हानि कर।
जहँ बस संभु भवानि सो कासी सेइअ कस न ॥
जतय श्री शिव-पार्वती बसैत छथि, ओहि काशी केँ मुक्ति केर जन्मभूमि, ज्ञान केर खान आर पाप सब केँ नाश करयवला जानिकय ओकर सेवन कियैन नहि कयल जाय?
जरत सकल सुर बृंद बिषम गरल जेहिं पान किय।
तेहि न भजसि मन मंद को कृपाल संकर सरिस॥
जाहि भीषण हलाहल विष सँ सब देवतागण जरि रहल छलथि तेकरा जे पान कय लेलनि, रे मन्द मन! तूँ ओहि शंकरजी केँ कियैक नहि भजैत छँ? हुनका समान कृपालु दोसर के अछि?
हरिः हरः!!