रामचरितमानस मोतीः श्री रामजीक विलाप, जटायुक प्रसंग, कबन्ध उद्धार

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

श्री रामजीक विलाप, जटायुक प्रसंग, कबन्ध उद्धार

१. जाहि तरहें कपटमृग संग श्री रामजी दौड़ि पड़लथि, वैह छविक हृदय मे राखिकय ओ हरिनाम (रामनाम) रटैत रहैत छथि। एम्हर श्री रघुनाथजी छोट भाइ लक्ष्मणजी केँ अबैत देखिकय बाह्य रूप मे बहुत चिन्ता कयलनि आ कहलनि – “हे भाइ! तूँ जानकी केँ अकेले छोड़ि देल्हुन आर हमर आज्ञाक उल्लंघन कय एतय चलि अयलें? राक्षस सभक झुंड वन मे घुमैत रहैत अछि। हमर मोन मे शंका भ’ रहल अछि जे सीता आश्रम मे नहि छथि।”

२. छोट भाइ लक्ष्मणजी श्री रामजीक चरणकमल केँ पकड़िकय हाथ जोड़िकय कहलखिन – “हे नाथ! एहि मे हमर कोनो दोष नहि अछि।” सीताजीक दुराग्रहक बात कहलखिन। फेर लक्ष्मणजी सहित प्रभु श्री रामजी ओतय गेलाह जतय गोदावरीक तट पर हुनकर आश्रम रहन्हि। आश्रम जानकीजी सँ रहित देखि श्री रामजी साधारण मनुष्य जेकाँ व्याकुल आ दुःखी भ’ गेलाह। ओ विलाप करय लगलाह – “हा गुणक खान जानकी! हा रूप, शील, व्रत ओ नियम मे पवित्र सीते!” लक्ष्मणजी हुनका बहुतो प्रकार सँ बुझबैत छथि, फेर श्री रामजी लता आ वृक्ष सभक पंक्ति सँ पुछय लगलाह –

“हे पक्षी लोकनि! हे पशु लोकनि! हे भौंराक पंक्ति सब! तूँ सब कतहु मृगनयनी सीता केँ देखलह हँ?”

“खंजन, तोता, कबूतर, हिरन, मछरी, भौंराक समूह, प्रवीण कोयल, कुन्दकली, अनार, बिजली, कमल, शरद् के चंद्रमा आर नागिनी, अरुण केर पाश, कामदेव केर धनुष, हंस, गज और सिंह – ई सब आइ अपन प्रशंसा सुनि रहल अछि। बेल, सुवर्ण आर केरा हर्षित भ’ रहल अछि। एकरा सभक मोन मे कनिकबो शंका आ संकोच नहि छैक।”

“हे जानकी! सुनू, अहाँ बिना ई सब आइ एना हर्षित अछि मानू राज पाबि गेल हो! (अर्थात्‌ अहाँक अंगक सोझाँ ई सब तुच्छ, अपमानित आ लज्जित छल। आइ अहाँ केँ नहि देखिकय ई सब अपन शोभाक अभिमान मे फुइल रहल अछि।) अहाँ सँ ई स्पर्धा केना सहल जाइत अछि? हे प्रिये! अहाँ शीघ्रहि प्रकट कियैक नहि होइत छी?”

३. एहि तरहें अनन्त ब्रह्माण्ड केँ अथवा महामहिमामयी स्वरूपाशक्ति श्री सीताजी केँ स्वामी श्री रामजी ताकि-ताकि कय विलाप करैत छथि। मानू कोनो महाविरही आ अत्यन्त कामी पुरुष होइथ! पूर्णकाम, आनन्दक राशि, अजन्मा आर अविनाशी श्री रामजी मनुष्य जेहेन चरित्र कय रहला अछि।

४. आगू गेलापर हुनका गृध्रपति जटायु घायल अवस्था मे पड़ल देखेलाह। हुनका सँ सब हाल आ रावण द्वारा सीताक हरण करबाक बात ओ सुनलनि। जटायु श्री रामजीक चरणक स्मरण कय रहल छलथि, जाहि मे ध्वजा, कुलिश आदिक रेखा (चिह्न) सब अंकित अछि।

५. कृपा सागर श्री रघुवीर अपन करकमल सँ हुनकर सिर केँ स्पर्श कयलनि, अपन करकमल हुनकर माथ पर फेरि देलनि। शोभाधाम श्री रामजीक परम सुन्दर मुख देखि जटायुक सबटा पीड़ा खत्म भ’ गेलनि। श्री रामचन्द्रजी कहलखिन – “हे तात! शारीर (शरीरक गुण) बनेने रहू।” तखन ओ विहुँसिते अपन मुँह सँ ई बात कहलखिन – “मरैत समय जिनकर नाम मुख मे आबि गेला सँ अधम (महान्‌ पापी) पर्यन्त मुक्त भ’ जाइत अछि, एना वेद गबैत अछि – सैह अपने हमर नेत्रक विषय बनि सोझाँ मे ठाढ़ छी। हे नाथ! आब हम कोन कमी लेल देह केँ राखी?”

६. नेत्र मे जल भरिकय श्री रघुनाथजी कहय लगलाह – “हे तात! अपन अपन श्रेष्ठ कर्म सँ (दुर्लभ) गति प्राप्त कयलहुँ अछि। जिनकर मोन मे दोसरक हित बसैत अछि, परोपकारे समायल रहैत अछि, हुनका लेल जगत् मे कोनो गति दुर्लभ नहि अछि। हे तात! शरीर छोड़िकय अहाँ हमर परम धाम मे जाउ। हम अहाँ केँ कि दी? अहाँ त पूर्णकाम छी, सब किछु पाबि चुकल छी। हे तात! सीता हरण केर बात अहाँ जाकय पिताजी सँ नहि कहबनि। यदि हम राम छी त दशमुख रावण कुटुम्ब सहित ओतय आबिकय अपनहि कहत।”

७. जटायु गिधक देह त्यागिकय हरिक रूप धारण कयलनि आर बहुतो रास अनुपम (दिव्य) आभूषण आर दिव्य पीताम्बर सब पहिरि लेलनि। श्याम शरीर छन्हि, विशाल चारि भुजा छन्हि आर नेत्र मे प्रेम तथा आनंदक नोरक जल भरने ओ स्तुति कय रहल छथि –

छंद :
जय राम रूप अनूप निर्गुन सगुन गुन प्रेरक सही।
दससीस बाहु प्रचंड खंडन चंड सर मंडन मही॥
पाथोद गात सरोज मुख राजीव आयत लोचनं।
नित नौमि रामु कृपाल बाहु बिसाल भव भय मोचनं॥१॥

हे रामजी! अपनेक जय हो। अपनेक रूप अनुपम अछि। अपने निर्गुण थिकहुँ। सगुण थिकहुँ। आर सत्यहि सब गुण केर ओ माया केर प्रेरक सेहो थिकहुँ। दस सिरवाला रावण केर प्रचण्ड भुजा सब केँ खंड-खंड करबाक लेल प्रचण्ड बाण धारण करयवला, पृथ्वी केँ सुशोभित करयवला, जलयुक्त मेघ केर समान श्याम शरीरवला, कमल केर समान मुख आर लाल कमल केर समान विशाल नेत्रवला, विशाल भुजावला आर भव-भय सँ छोड़बयवला कृपालु श्री रामजी केँ हम नित्य नमस्कार करैत छी।

बलमप्रमेयमनादिमजमब्यक्तमेकमगोचरं।
गोबिंद गोपर द्वंद्वहर बिग्यानघन धरनीधरं॥
जे राम मंत्र जपंत संत अनंत जन मन रंजनं।
नित नौमि राम अकाम प्रिय कामादि खल दल गंजनं॥२॥

अपने अपरिमित बलवाला छी, अनादि, अजन्मा, अव्यक्त (निराकार), एक अगोचर (अलक्ष्य), गोविंद (वेद वाक्य सब द्वारा जानय योग्य), इंद्रिय सब सँ अतीत, जन्म-मरण, सुख-दुःख, हर्ष-शोकादि द्वंद्व सब केँ हरयवला, विज्ञान केर घनमूर्ति आर पृथ्वीक आधार छी तथा जे सन्त राम मंत्र केँ जपैत छथि, ताहि अनन्त सेवक लोकनि केर मोन केँ आनन्द दयवला छी। ओहि निष्कामप्रिय निष्कामजन सभक प्रेमी अथवा हुनका प्रिय तथा काम आदि दुष्ट दुष्ट वृत्ति सभक दल केर दलन करयवला श्री रामजी केँ हम नित्य नमस्कार करैत छी।

जेहि श्रुति निरंजन ब्रह्म ब्यापक बिरज अज कहि गावहीं।
करि ध्यान ग्यान बिराग जोग अनेक मुनि जेहि पावहीं॥
सो प्रगट करुना कंद सोभा बृंद अग जग मोहई।
मम हृदय पंकज भृंग अंग अनंग बहु छबि सोहई॥३॥

जिनका श्रुति सब निरंजन (माया सँ परे), ब्रह्म, व्यापक, निर्विकार आर जन्मरहित कहिकय गान करैत छथि; मुनि जिनक ध्यान, ज्ञान, वैराग्य आर योग आदि अनेक साधन कयकेँ पबैत छथि; वैह करुणाकन्द, शोभाक समूह (स्वयं श्री भगवान्‌) प्रकट भ’ कय जड़-चेतन समस्त जगत्‌ केँ मोहित कय रहल छथि। हमर हृदय कमल केर भ्रमर रूप हुनक अंग-अंग मे बहुतो रास कामदेव सभक छवि शोभा पाबि रहल अछि।

जो अगम सुगम सुभाव निर्मल असम सम सीतल सदा।
पस्यंति जं जोगी जतन करि करत मन गो बस सदा॥
सो राम रमा निवास संतत दास बस त्रिभुवन धनी।
मम उर बसउ सो समन संसृति जासु कीरति पावनी॥४॥

जे अगम आर सुगम छथि, निर्मल स्वभाव छन्हि, विषम आर सम छथि आर सदैव शीतल (शांत) छथि; मन आ इंद्रिय केर सदा वश मे करैत योगी बहुते साधन कयला पर जिनका देखि पबैत छथि – वैह तीनू लोक केर स्वामी, रमानिवास श्री रामजी निरंतर अपन दास सभक वश मे रहैत छथि। वैह हमर हृदय मे निवास करथि, जिनकर पवित्र कीर्ति आवागमन केँ मेटबयवला अछि।

अखंड भक्ति केर वर माँगिकय गृध्रराज जटायु श्री हरिक परमधाम केँ चलि गेलाह। श्री रामचंद्रजी हुनक दाहकर्म आदि सब क्रिया आदि यथायोग्य अपनहि हात सँ कयलनि।

८. श्री रघुनाथजी अत्यन्त कोमल चित्तवाला, दीनदयालु आर बिना कारणे कृपालु छथि। गिध (पक्षियहु मे) अधम पक्षी आर मांसाहारी छलथि, हुनको ओ वैह दुर्लभ गति देलनि जे योगीजन माँगैत रहैत छथि। शिवजी कहैत छथि – हे पार्वती! सुनू, ओ लोक अभागल अछि जे भगवान्‌ केँ छोड़िकय विषय सब सँ अनुराग करैत अछि।

९. फेर दुनू भाइ सीताजी केँ खोज करैत आगू चललाह। ओहि वन केर सघनता देखल तक नहि जाइत अछि। ओ सघन वन लता ओ वृक्ष सब सँ भरल अछि। ओहि मे बहुतो रास पक्षी, मृग, हाथी आ सिंह सब रहैत अछि। श्री रामजी रस्ता मे अबैत कबंध राक्षस केँ मारि देलनि। ओहो अपन श्रापक सब बात कहलक। ओ कहलकनि – “दुर्वासाजी हमरा श्राप देने रहथि। आब प्रभुक चरण केँ देखले सँ ओ पाप मेटा गेल।” श्री रामजी कहलखिन – “हे गंधर्व! सुनू, हम अहाँ केँ कहैत छी। ब्राह्मणकुल सँ द्रोह करयवला हमरा नहि सोहाइत अछि। मन, वचन आ कर्म सँ कपट छोड़िकय जे भूदेव ब्राह्मण लोकनिक सेवा करैत अछि, हमरा समेत ब्रह्मा, शिव आदि सब देवता ओकर वश मे भ’ जाइत छथिन। श्राप दैत, मारैत या कठोर वचन बजितो ब्राह्मण पूजनीय छथि, एना सन्त कहैत छथि। शील आर गुण सँ हीनो ब्राह्मण पूजनीय होइछ, शूद्र गुण आ ज्ञान मे निपुण गण्य नहि होइछ।”

१०. श्री रामजी अपन धर्म (भागवत धर्म) कहिकय हुनका बुझौलनि। अपन चरण मे प्रेम देखि हुनकर मोन केँ बहुत नीक लगलनि। तदनन्तर श्री रघुनाथजीक चरणकमल मे सिर नमा ओ अपन गति (गंधर्व केर स्वरूप) पाबि आकाश मे चलि गेल।

हरिः हरः!!