स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
सुपनेखाक रावण लग जायब, श्री सीताजीक अग्नि प्रवेश और माया सीता
१. खर-दूषण केर विध्वंस देखि सुपनेखा (शूर्पणखा) जा कय रावण केँ भड़केलक। ओ बहुत क्रोध कयकेँ वचन बाजल –
“तूँ देश आर खजाना केर सुधिये बिसरा देलह।”
करसि पान सोवसि दिनु राती। सुधि नहिं तव सिर पर आराती॥
राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा॥४॥
बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ। श्रम फल पढ़ें किएँ अरु पाएँ॥
संग तें जती कुमंत्र ते राजा। मान ते ग्यान पान तें लाजा॥५॥
“शराब पिबि लैत छह आ दिन-राति पड़ल-पड़ल सुतैत रहैत छह। तोरा खबरे नहि छह जे शत्रु तोहर माथ पर ठाढ़ भ’ गेल छह?”
“नीति बिना राज्य और धर्म बिना धन प्राप्त कयला सँ, भगवान केँ समर्पण कएने बिना उत्तम कर्म कयला सँ आर विवेक उत्पन्न कएने बिना विद्या पढ़ला सँ परिणाम मे सिर्फ परिश्रम टा हाथ लगैत छैक। विषय सभक संग सँ संन्यासी, खराब सलाह सँ राजा, मान सँ ज्ञान, मदिरा पान सँ लज्जा, नम्रताक बिना (नम्र नहि भेला सँ) प्रीति आर मद (अहंकार) सँ गुणवान शीघ्रहि नष्ट भ’ जाइत अछि, एहि तरहक नीति हम सुनने छी।”
“शत्रु, रोग, अग्नि, पाप, स्वामी आर साँप केँ छोट कय केँ नहि बुझबाक चाही।”
– एतेक कहिकय शूर्पणखा अनेकों प्रकार सँ विलाप कयकेँ कानल लागल।
२. रावणक सभाक बीच ओ व्याकुल भ’ कय पड़ल अछि, बहुतो प्रकार सँ कानि-कानिकय बाजि रहल अछि – “अरे दशग्रीव! तोहर जिबिते हमर एहेन दशा होयबाक चाही की?” सुपनेखाक वचन सुनिते सभासद् अकुला उठल। ओ सुपनेखाक डेन धय उठेलक आ बुझेलक। लंकापति रावण कहलक – “अपन बात त कहे, के तोहर नाक-कान काटि लेलकौक?”
३. सुपनेखा बाजल – “अयोध्याक राजा दशरथ केर पुत्र, जे पुरुष सब मे सिंह समान छथि, वन मे शिकार खेलाय लेल आयल छथि। हमरा हुनकर करनी एना बुझि पड़ल अछि जे ओ पृथ्वी केँ राक्षस सँ रहित कय देता। जिनकर भुजाक बल पाबि हे दशमुख! मुनि लोकनि वन मे निर्भय भ’ कय विचरन करय लागल छथि। ओ देखय मे त एकटा बालक छथि, मुदा छथि काल केर समान। ओ परम धीर, श्रेष्ठ धनुर्धर आर अनेकों गुण सब सँ युक्त छथि। दुनू भाइ केर बल आ प्रताप अतुलनीय अछि। ओ दुष्ट सब केँ वध करय मे लागल छथि आर देवता तथा मुनि लोकनि केँ सुख दयवला छथि। ओ शोभाक धाम छथि, ‘राम’ एहेन हुनकर नाम छन्हि। हुनका संग एक तरुणी सुन्दर स्त्री सेहो छन्हि। विधाता ओहि स्त्री केँ एहेन रूप केर राशि बनौलनि अछि जे सौ करोड़ रति (कामदेव केर स्त्री) हुनका पर निछावर छन्हि। हुनकहि छोट भाइ हमर नाक-कान काटि देलनि। हम तोहर बहिन छी, ई सुनिकय ओ हमर हँसी करय लगलाह। हमर आवाज सुनिकय खर-दूषण सहायता करय आयल। लेकिन ओ क्षणहि भरि मे सम्पूर्ण सेना केँ मारि देलनि।”
४. खर-दूषन और त्रिशिराक वध सुनिकय रावणक समस्त अंग मे आगि लागि गेलैक। ओ सुपनेखा केँ बुझाकय अनेकों प्रकार सँ अपन बल केर बखान कयलक, लेकिन मोन मे ओ अत्यन्त चिन्तावश भ’ कय अपन महल मे गेल। ओकरा राति भरि नींद नहि एलैक। ओ मनहि-मन विचार करय लागल –
“देवता, मनुष्य, असुर, नाग आ पक्षी सब मे कियो एहेन नहि जे हमर सेवक तक केँ पाबि सकय। खर-दूषण त हमरे समान बलवान रहय। ओकरा भगवानक अलावे दोसर के मारि सकैत अछि? देवता सब केँ आनन्द देनिहार आ पृथ्वीक भार हरण करनिहार भगवाने जँ अवतार लेलनि अछि, त हम जाय कय हुनका सँ हठपूर्वक वैर करब आर प्रभुक बाण केर आघात सँ प्राण छोड़िकय भवसागर सँ तरि जायब। एहि तामस शरीर सँ भजन त होयत नहि, अतएव मन, वचन आ कर्म सँ यैह दृढ़ निश्चय अछि। आर जँ ओ मनुष्य रूप मे कियो राजकुमार हेता त ओहि दुनू केँ रण मे जीतिकय हुनकर स्त्री केँ हरण कय लेब।”
एना विचारिकय रावण रथ पर चढ़िकय असगरे ओहि ठाम लेल चलल जतय समुद्रक तट पर मारीच रहैत छल।
५. शिवजी कहैत छथि –
“हे पार्वती! एतय श्री रामचन्द्रजी जेहेन युक्ति रचलनि, से सुन्दर कथा सुनूः
लक्ष्मणजी जखन कंद-मूल-फल आनय लेल वन मे गेलाह, तखन असगरे मे कृपा आर सुख के समूह श्री रामचन्द्रजी हँसिकय जानकीजी सँ कहला – हे प्रिये! हे सुन्दर पातिव्रत धर्म केर पालन करयवाली सुशीले! सुनू! हम आब किछु मनोहर मनुष्य लीला करब, ताहि लेल जा धरि हम राक्षस सभक नाश करी, ता धरि अहाँ अग्नि मे निवास करू।
श्री रामजी जहिना ई बात बुझाकय कहलनि, तहिना श्री सीताजी प्रभुक चरण केँ हृदय मे धरैत अग्नि मे समा गेलीह। तदोपरान्त सीताजी अपनहि छायामूर्ति ओतय राखि देलनि, जे हुनके जेकाँ शील-स्वभाव आर रूपवाली तथा ओहने विनम्र छलीह। भगवान एतय जे किछु लीला रचलनि, से रहस्य केँ लक्ष्मणजी सेहो नहि बुझि पेलथि।
स्वार्थ परायण आर नीच रावण ओतय गेल जतय मारीच छल आर ओतय पहुँचि सिर नमौलक। नीच केर झुकब (नम्रता) सेहो अत्यन्त दुःखदायी होइत छैक। जेना अंकुश, धनुष, साँप आर बिलाड़ि केर झुकब! हे भवानी! दुष्टक मीठ वाणी सेहो भय दयवाली होइत छैक, जेना बिना ऋतु केर फूल!”
हरिः हरः!!