स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
सुपनेखा (शूर्पणखा) केर कथा आ खरदूषणादिक वध
१. सुपनेखा (शूर्पणखा) नाम के रावण केर एक बहिन छल जे नागिन समान भयानक आ अत्यन्त दुष्ट हृदय के रहय। एक बेर पंचवटी मे गेल आ दुनू राजकुमार केँ देखिकय कामातुर (विकल) भ’ गेल।
२. काकभुशुण्डिजी कहैत छथि – हे गरुड़जी! शूर्पणखा – जेहेन राक्षसी, धर्मज्ञान शून्य कामान्ध स्त्री मनोहर पुरुष केँ देखिकय, चाहे ओ भाइ, पिता आ कि पुत्र हो, विकल भ’ जाइत अछि आ मन केँ रोकि नहि सकैत अछि। जेना सूर्यकान्तमणि सूर्य केँ देखिकय द्रवित भ’ जाइत अछि, ज्वाला सँ पिघलि जाइत अछि।
३. ओ सुन्दर रूप धयकय प्रभु लग गेल आ खूब हँसिकय हुनका सँ कहलक – नहि त अहाँ समान कियो पुरुष अछि आ न हमरा समान स्त्री। विधाता ई संयोग बड विचारिकय रचलनि अछि। हमरा योग्य पुरुष (वर) जगत्भरि मे कतहु नहि अछि, हम तीनू लोक मे ताकि चुकल छी। यैह चलते एखन धरि कुमारि (अविवाहित) छी। आब अहाँ केँ देखिकय मोन मानि गेल, चित्त ठहरि गेल अछि।
४. सीताजी दिश देखबैत प्रभु श्री रामजी स्वयं विवाहित हेबाक आ चउल करैत लक्ष्मणजी दिश ताकिकय कहलखिन जे ई हमर छोट भाइ कुमार छथि। तखन ओ लक्ष्मणजी लग गेल। लक्ष्मणजी ओकरा राक्षस रावण (शत्रु) केर बहिन बुझि प्रभु दिश ताकिकय कोमल वाणी सँ कहलखिन – “हे सुन्दरी! सुनू, हम त हुनकर दास छी। हम पराधीन छी, तेँ अहाँ केँ हमरा सँ कोनो सुभीता (सुख) नहि होयत। प्रभु समर्थ छथि, कोसलपुर के राजा छथि, ओ जे किछु करथि, हुनका सबटा फबतन्हि। सेवक सुख चाहय, भिखारी सम्मान चाहय, व्यसनी (जेकरा जुआ, शराब आदिक व्यसन हो) धन चाहय आर व्यभिचारी शुभ गति चाहय, लोभी यश चाहय आर अभिमानी चारू फल – अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चाहय, त ई सब प्राणी आकाश केँ दुहिकय दूध लियए चाहैत अछि, यानि असंभव बात केँ संभव करय चाहैत अछि।”
५. ओ घुरिकय फेर श्री रामजी लग आयल, प्रभुजी ओकरा फेर सँ लक्ष्मणजी लग पठा देलखिन्ह। लक्ष्मणजी फेर कहलखिन – “अहाँ केँ वैह वरण करत जे लाजक तृण केँ तोड़िकय त्यागि देत, यानि जे निपट निर्लज्ज होयत।” तखन ओ एकदम खिसिया गेल। क्रोध सँ भरिकय ओ श्री रामजी लग गेल आ अपन भयंकर रूप प्रकट कयलक। सीताजी डरा गेली। हुनका डरायल देखि श्री रघुनाथजी लक्ष्मणजी केँ इशारा कयलखिन्ह। लक्ष्मणजी अत्यन्त फुर्तीक संग ओकर नाक-कान काटि देलनि। आर, एहि तरहें ओकरा मार्फत रावण केँ चुनौती दय देलनि।
६. बिना नाक-कान के ओ आर विकराल भ’ गेल। ओकर शरीर सँ रक्तक धार बहय लगलैक, एना जेना काला पहाड़ सँ गेरूक धार बहि रहल हो। ओ विलाप करैत खर-दूषण लग गेल आ कहलक – हे भाइ! तोरा सभक पौरुष (वीरता) केँ धिक्कार छौक। तोहर बल केँ धिक्कार छौक। ओ सब सुपनेखा सँ सबटा हाल बुझलक आ तुरन्त राक्षस सभक सेना तैयार कय केँ चारू दिश सँ झुंडक झुंड राक्षस सब दौड़ि पड़ल। मानू पंखधारी काजरक पर्वत सभक झुंड छल ओ सब!
७. ओ सब अनेकों तरहक सवारी सब पर चढ़ल आ अनेकों आकार (सूरत) केर लागि रहल अछि। ओ सब अपार संख्या मे अछि आर अनेकों प्रकार के असंख्य भयानक हथियार धारण कएने अछि। ओ सब नाक-कान कटल सुपनेखा केँ आगू कय लेलक। ओकरा सब केँ अनगिनत भयंकर अशकुन सब भ’ रहल छैक, लेकिन मृत्युक वश हेबाक कारण ओ सब किछुओ नहि गनैत अछि। बस गरजैत अछि, ललकारैत अछि आ आकाश मे उड़ैत अछि। सेना देखिकय योद्धा सब खूब हर्षित होइत अछि। कियो कहैत अछि ‘दुनू भाइ केँ जिबिते पकड़ि ले, पकड़िकय मारि दे आर स्त्री केँ छिन ले’। एकरा सभक कारण आकाश सेहो धूरे-धूरा सँ भरि गेल।
८. “राक्षस सभक भयानक सेना आबि गेल अछि। जानकीजी केँ लयकय अहाँ पहाड़क खोह मे चलि जाउ। एकदम सावधान रहब।” – प्रभु श्री रामचन्द्रजीक वचन सुनि लक्ष्मणजी हाथ मे धनुष-बाण लेने श्री सीताजी सहित चलि पड़लाह। शत्रु लोकनिक सेना नजदीक चलि आयल अछि, ई देखिकय श्री रामजी हँसिकय कठिन धनुष केँ चढ़ा लेलनि।
छंद :
कोदंड कठिन चढ़ाइ सिर जट जूट बाँधत सोह क्यों।
मरकत सयल पर लरत दामिनि कोटि सों जुग भुजग ज्यों॥
कटि कसि निषंग बिसाल भुज गहि चाप बिसिख सुधारि कै।
चितवत मनहुँ मृगराज प्रभु गजराज घटा निहारि कै॥
कठिन धनुष चढ़ाकय सिर पर जटाक जू़ड़ा बान्हैत प्रभु केना शोभित भ’ रहल छथि, जेना मरकतमणि (पन्ना) केर पर्वत पर करोड़ों बिजली सँ दुइ गोट साँप लड़ि रहल हो। डाँर्ह मे तरकस कसिकय, विशाल भुजा मे धनुष लय आ बाण समधानिकय प्रभु श्री रामचंद्रजी राक्षस सब दिश ताकि रहला अछि। मानू मतवाला हाथी सभक समूह केँ अबैत देखि सिंह ओकरा दिश ताकि रहल हो।
९. ‘पकड़-पकड़’ चिकरिते राक्षस योद्धा सब बड़ा तेजी सँ दौड़िकय आयल आ श्री रामजी केँ चारूकात सँ घेरि लेलक, जेना बालसूर्य (उदयकालीन सूर्य) केँ असगर देखिकय मन्देह नामक दैत्य घेरि लैत अछि।
१०. सौंदर्य-माधुर्यनिधि प्रभु श्री रामजी केँ देखिकय राक्षस सभक सेना थकित रहि गेल। ओ सब हुनका पर बाण नहि चला सकल। मंत्री केँ बजाकय खर-दूषण कहलक – “ई राजकुमार कोनो मनुष्य सभक भूषण लागि रहल अछि। कतेको नाग, असुर, देवता, मनुष्य आर मुनि सब छथि, ताहि मे नहि जानि कतेको केँ देखलहुँ, जितलहुँ आ मारि देलहुँ। लेकिन हे भाइ लोकनि, सुनह! जनम भरि मे एहेन सुन्दरता कतहु नहि देखलहुँ। हालांकि ई हमरा लोकनिक बहिन (सुपनेखा) केँ कुरूप कय देलक, तैयो ई अनुपम पुरुष बध करबा योग्य नहि अछि। ‘अपन स्त्री जिनका नुकेने छह तिनका हमरा सब केँ तुरन्त सौंपि दह आ तूँ दुनू भाइ जिबिते घर घुरि जाह।’ हमर ई बात तूँ सब ओकरा सुनाबह आ ओकर उत्तर सुनिकय तुरन्त आबह।”
११. दूत सब जाय कय श्री रामचंद्रजी सँ कहलकनि। ओ सुनिते श्री रामचंद्रजी मुस्कुराइत बजलाह – “हम क्षत्रिय छी, वन मे शिकार करैत छी आर तोरा सब जेहेन दुष्ट पशु सब केँ त हम ताकिते रहैत छी। हम बलवान् शत्रु देखिकय नहि डराइत छी। लड़य लेल आबय त एक बेर त हम कालहु सँ लड़ि सकैत छी। ओना हम मनुष्य छी, मुदा दैत्यकुल केँ नाश करयवला आ मुनि सभक रक्षा करयवला छी, हम बालक छी, लेकिन दुष्ट सब केँ दण्ड दयवला छी। जँ बल नहि छह त घर घुरि जाह। संग्राम मे पीठ देखेनिहार केकरो हम नहि मारैत छी। रण मे चढ़ि एलापर कपट-चतुराई करब आर शत्रु पर कृपा करब (दया देखायब) त बड़ा भारी कायरता होइछ।”
१२. दूत सब घुमिकय तुरन्त सब बात कहलक जे सुनिकय खर-दूषणक हृदय एकदम धधैक उठल।
छंद :
उर दहेउ कहेउ कि धरहु धाए बिकट भट रजनीचरा।
सर चाप तोमर सक्ति सूल कृपान परिघ परसु धरा॥
प्रभु कीन्हि धनुष टकोर प्रथम कठोर घोर भयावहा।
भए बधिर ब्याकुल जातुधान न ग्यान तेहि अवसर रहा॥
खर-दूषण केर हृदय धधैक उठल। तखन ओ बाजल – पकड़ एकरा, बन्दी बना। ई सुनिकय भयानक राक्षस योद्धा सब बाण, धनुष, तोमर, शक्ति (साँग), शूल (बरछी), कृपाण (कटार), परिघ आर फरसा धारण कएने दौड़ि पड़ल। प्रभु श्री रामजी पहिने धनुष केँ बड़ा कठोर, घोर आर भयानक टंकार कयलनि, जे सुनि राक्षस सब बहीर आर व्याकुल भ’ गेल। ताहि घड़ी ओकरा सब केँ कनिको होश नहि रहल। फेर ओ सब शत्रु केँ बलवान् बुझिकय सावधान होइत दौड़ल आ श्री रामचन्द्रजी पर बहुतो प्रकारक अस्त्र-शस्त्र बरसाबय लागल।
१३. श्री रघुवीरजी ओकरा सभक हथियार सबकेँ तिल समान (टुकड़ा-टुकड़ा) कयकेँ काटि देलनि। फेर धनुष केँ कान तक खींचिकय अपन तीर छोड़लनि।
छन्द :
तब चले बान कराल। फुंकरत जनु बहु ब्याल॥
कोपेउ समर श्रीराम। चले बिसिख निसित निकाम॥१॥
अवलोकि खरतर तीर। मुरि चले निसिचर बीर॥
भए क्रुद्ध तीनिउ भाइ। जो भागि रन ते जाइ॥२॥
तेहि बधब हम निज पानि। फिरे मरन मन महुँ ठानि॥
आयुध अनेक प्रकार। सनमुख ते करहिं प्रहार॥३॥
रिपु परम कोपे जानि। प्रभु धनुष सर संधानि॥
छाँड़े बिपुल नाराच। लगे कटन बिकट पिसाच॥४॥
उर सीस भुज कर चरन। जहँ तहँ लगे महि परन॥
चिक्करत लागत बान। धर परत कुधर समान॥५॥
भट कटत तन सत खंड। पुनि उठत करि पाषंड॥
नभ उड़त बहु भुज मुंड। बिनु मौलि धावत रुंड॥६॥
खग कंक काक सृगाल। कटकटहिं कठिन कराल॥७॥
तखन भयानक बाण एना चलल मानू फुफकारैत बहुते रास साँप चलि रहल हो। श्री रामचन्द्रजी संग्राम मे क्रुद्ध भेल आरो अत्यन्त तीक्ष्ण बाण सब चलौलनि। अत्यन्त तीक्ष्ण बाण केँ देखिकय राक्षस वीर सब पीठ देखाकय भागि गेल। तखन खर-दूषण आर त्रिशिरा तीनू भाइ अत्यन्त तामश मे बाजल – “जे रण सँ भागिकय जायत ओकरा हम सब अपनहि हाथे वध करब।” फेर मोन मे मरब ठानि भागैत राक्षस सब वापस युद्ध मे आबि गेल आ सामने आबिकय श्री रामजी पर अनेकों प्रकारक हथियार सब सँ प्रहार करय लागल।
१४. शत्रु सब केँ अत्यन्त कुपित जानि प्रभु धनुष पर बाण चढ़ाकय बहुते रास बाण छोड़लन्हि, जाहि सँ भयानक राक्षस सब कटय लागल। ओकरा सभक छाती, माथ, बाँहि, हाथ आर पैर जतय-ततय पृथ्वी पर खसय लागल। बाण लगिते ओ सब हाथी जेकाँ चिंग्घार करैत अछि। ओकरा सभक पहाड़ जेहेन धड़ कटि-कटिकय खसि रहल अछि। योद्धा सभक शरीर कटिकय सैकड़ों टुकड़ा भ’ जाइत अछि। ओ सब फेर माया सँ उठिकय ठाढ़ भ’ जाइत अछि। आकाश मे बहुते रास बाँहि आ माथ उड़ि रहल अछि, बिना सिर के धड़ सब दौड़ि दौड़ि रहल अछि। चील (या क्रौंच), कौआ आदि पक्षी तथा सियार कठोर आ भयंकर कट-कट शब्द कय रहल अछि।
छन्द :
कटकटहिं जंबुक भूत प्रेत पिसाच खर्पर संचहीं।
बेताल बीर कपाल ताल बजाइ जोगिनि नंचहीं॥
रघुबीर बान प्रचंड खंडहिं भटन्ह के उर भुज सिरा।
जहँ तहँ परहिं उठि लरहिं धर धरु धरु करहिं भयकर गिरा॥१॥
सियार कटकटाइत अछि, भूत, प्रेत आर पिशाच खोपड़ी सब बटोरि रहल अछि, यानि खप्पर भरि रहल अछि। वीर-वैताल खोपड़ी सब पर ताल दय रहल अछि आ योगिनियाँ सब नाचि रहल अछि। श्री रघुवीर केर प्रचंड बाण योद्धा लोकनिक वक्षःस्थल, बाँहि आ माथ सभ केँ टुकड़ा-टुकड़ा कय दैत अछि। ओकरा सभक धड़ जहाँ-तहाँ खसि पड़ैत अछि, फेर उठैत आ लड़ैत अछि आ ‘पकड़-पकड़’ के भयंकर शब्द करैत रहैत अछि।
अंतावरीं गहि उड़त गीध पिसाच कर गहि धावहीं।
संग्राम पुर बासी मनहुँ बहु बाल गुड़ी उड़ावहीं॥
मारे पछारे उर बिदारे बिपुल भट कहँरत परे।
अवलोकि निज दल बिकल भट तिसिरादि खर दूषन फिरे॥२॥
अंतड़ी सभक एकटा छोर पकड़िकय गीध उड़ैत अछि आ ओकरे दोसर छोर हाथ सँ पकड़िकय पिशाच दौड़ैत अछि, एना बुझाइत अछि मानू संग्रामरूपी नगर केर निवासी बहुते रास बालक पतंग उड़ा रहल हो। अनेकों योद्धा मारल आ पछाड़ल गेल, बहुतो के हृदय विदीर्ण भ’ गेलैक आ कतहु पड़ल कुहैर रहल अछि। अपन सेना केँ व्याकुल देखि त्रिशिरा आर खर-दूषण आदि योद्धा श्री रामजी दिश मुड़ल।
सरसक्ति तोमर परसु सूल कृपान एकहि बारहीं।
करि कोप श्री रघुबीर पर अगनित निसाचर डारहीं॥
प्रभु निमिष महुँ रिपु सर निवारि पचारि डारे सायका।
दस दस बिसिख उर माझ मारे सकल निसिचर नायका॥३॥
अनगिनत राक्षस क्रोध कयकेँ बाण, शक्ति, तोमर, फरसा, शूल और कृपाण एक्के बेर मे श्री रघुवीर पर छोड़य लागल। प्रभु पले भरि मे शत्रु सभक बाण केँ काटिकय, ललकारिकय ओकरा सब अपन बाण छोड़लनि। सब राक्षस सेनापति सभक हृदय मे दस-दस बाण मारलनि।
महि परत उठि भट भिरत मरत न करत माया अति घनी।
सुर डरत चौदह सहस प्रेत बिलोकि एक अवध धनी॥
सुर मुनि सभय प्रभु देखि मायानाथ अति कौतुक कर्यो।
देखहिं परसपर राम करि संग्राम रिपु दल लरि मर्यो॥४॥
योद्धा पृथ्वी पर खसि पड़ैत अछि, फेरो उठिकय भिड़ैत अछि। मरैत नहि अछि, बहुतो प्रकार के अतिशय माया रचैत अछि। देवता सब ई देखिकय डराइत छथि जे प्रेत (राक्षस) चौदह हजार अछि आर अयोध्यानाथ श्री रामजी अकेले छथि।
१५. देवता आर मुनि लोकनि केँ भयभीत देखिकय मायाक स्वामी प्रभु एक बड़ा भारी कौतुक (तमाशा) कयलनि, जाहि सँ शत्रु सभक सेना एक-दोसर केँ राम रूप मे देखय लागल आर अपनहि मे युद्ध कयकेँ लड़िकय मरि गेल। सब ‘यैह राम छी, एकरा मारे’ एहि तरहें राम-राम कहिकय शरीर छोड़ैत अछि आर निर्वाण (मोक्ष) पद पबैत अछि। कृपानिधान श्री रामजी ई उपाय कयकेँ क्षणहि भरि मे शत्रु सबकेँ क्षय कय देलनि।
१६. देवता लोकनि हर्षित भ’ फूल बरसाबैत छथि, आकाश मे नगाड़ा बाजि रहल अछि। फेर ओ सब स्तुति कय-कयकेँ अनेकों विमान सब पर सुशोभित भ’ कय अपन लोक लेल चलि गेलाह।
१७. जखन श्री रघुनाथजी युद्ध मे शत्रु सब केँ जिति लेलनि तथा देवता, मनुष्य आर मुनि सभक भय नष्ट भ’ गेल, तखन लक्ष्मणजी सीताजी केँ लय अयलाह। चरण मे पड़ैत हुनका प्रभु प्रसन्नतापूर्वक उठाकय हृदय सँ लगा लेलनि। सीताजी श्री रामजीक श्याम आर कोमल शरीर केँ परम प्रेम केर संग देखि रहली अछि, नेत्र अघाइत नहि छन्हि। एहि तरहें पंचवटी मे बसिकय श्री रघुनाथजी देवता ओ मुनि लोकनि केँ सुख दयवला चरित्र करय लगलाह।
हरिः हरः!!