रामचरितमानस मोतीः रामजीक दंडकवन मे प्रवेश, जटायु मिलन, पंचवटी निवास तथा श्री राम-लक्ष्मण संवाद

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

रामजीक दंडकवन मे प्रवेश, जटायु मिलन, पंचवटी निवास तथा श्री राम-लक्ष्मण संवाद

१. अगस्त्य मुनि श्री रामजी केँ आगू कहैत छथि – “हे प्रभो! एकटा परम मनोहर आर पवित्र स्थान अछि पंचवटी। हे प्रभो! अपने दण्डक वन जतय पंचवटी अछि तेकरा पवित्र करू। श्रेष्ठ मुनि गौतमजीक कठोर श्राप केँ हरण करू। हे रघुकुल केर स्वामी! अपने सब मुनि लोकनि पर दया कय केँ ओतहि निवास करू।”

२. मुनिक आज्ञा पाबि श्री रामचंद्रजी ओतय सँ चलि देलाह आ शीघ्रहि पंचवटीक समीप पहुँचि गेलाह। ओतय गृध्रराज जटायु सँ भेंट भेलनि। हुनका संग अनेकों तरहक स्नेह बढ़ाकय प्रभु श्री रामचंद्रजी गोदावरीजीक नजदीक एकटा पर्णकुटी बनाकय रहय लगलाह।

३. जहिया सँ श्री रामजी ओतय निवास करय लगैत छथि तहिये सँ मुनि लोकनि सुखी भ’ जाइत छथि। आब हुनका लोकनिक सबटा भय (डर) भागि जाइत अछि। पर्वत, वन, नदी आ तालाब शोभायमान भ’ जाइत अछि। ई सब दिनोंदिन बेसी सोहाओन लागय लगैत अछि। पक्षी आ पशु सब सेहो आनंदित रहय लगैत अछि। भौंरा मधुर गुंजार करैत शोभा पाबय लगैत अछि। जाहि ठाम प्रत्यक्ष श्री रामजी विराजमान छथि ताहि वनक वर्णन त सर्पराज शेषोजी नहि कय सकैत छथि।

४. एक बेर प्रभु श्री रामजी सुखपूर्वक (फुर्सत सँ) बैसल रहथि। तखन समय अनुकूल बुझि लक्ष्मणजी लोककल्याणक निमित्त हुनका सँ सरल वाणी मे किछु जिज्ञासा कयलनि। ओ पुछलनि –

“हे देवता, मनुष्य, मुनि ओ चराचर जगत् केर स्वामी! अपन स्वामी सँ किछु पुछय चाहैत छी जे तेना बुझाकय कहू कि अपनेक चरणरज मात्र केर सेवा मे हमर समर्पण सदिखन बनल रहय। हे प्रभुजी! ज्ञान, वैराग्य आर मायाक वर्णन करू। हे स्वामी! अपने हमरा सँ ओ भक्तिक विषय मे कहू जेकर कारण अपने भक्त सब पर दया कयल करैत छी। हे प्रभो! ईश्वर आर जीव केर भेद सेहो बुझाकय कहू जाहि सँ अपनेक चरण मे हमर प्रीति बढ़य आ शोक, मोह व भ्रम – ई सबटा नष्ट भ’ जाय।”

५. श्री रामजी कहलखिन – “हे तात! हम अहाँक सब जिज्ञासा कनिकबे शब्द मे बुझा दैत छी। अहाँ मन, चित्त आ बुद्धि लगाकय सुनू।”

“हम आ हमर, तूँ आ तोहर – यैह माया छी जे समस्त जीव केँ वश मे कय रखने अछि।”

“इंद्रिय केर विषय आ ई मोन जतय तक जाइत अछि, हे भाइ! तेकरा सब केँ माया बुझब।”

“एहि माया केँ सेहो एकटा विद्या आ दोसर अविद्या रूप होइत छैक। एहि दुनू भेद केँ सेहो अहाँ सुनू – एक (अविद्या) दुष्ट (दोषयुक्त) अछि आर अत्यन्त दुःखरूप अछि, जेकर वश भ’ कय जीव संसाररूपी इनार मे पड़ल रहैत अछि आर दोसर (विद्या) जेकर वश मे गुण अछि आर जे जगत् केर रचना करैत अछि, ओ प्रभु मात्र सँ प्रेरित रहैत अछि, ओकर अपन बल किछु नहि बुझैछ।”

“ज्ञान ओ थिक जाहि मे मान आदि एकहु टा दोष नहि अछि आर जे सब मे समान रूप सँ ब्रह्म केँ देखैत अछि।”

“हे तात! ओकरे परम वैराग्यवान्‌ कहबाक चाही जे सब सिद्धि केँ आ तीनू गुण केँ तिनका समान त्यागि चुकल हो।”

(जेकरा मे मान, दम्भ, हिंसा, क्षमाराहित्य, टेढ़पन, आचार्य सेवाक अभाव, अपवित्रता, अस्थिरता, मन केँ निगृहीत नहि होयब, इन्द्रिय केर विषय मे आसक्ति, अहंकार, जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधिमय जगत् मे सुख-बुद्धि, स्त्री-पुत्र-घर आदि मे आसक्ति तथा ममता, इष्ट आ अनिष्ट केर प्राप्ति मे हर्ष-शोक, भक्तिक अभाव, एकान्त मे मोन नहि लागब, विषयी मनुष्यक संग प्रेम – ई अठारह नहि हो आ नित्य अध्यात्म (आत्मा) मे स्थिति तथा तत्त्व ज्ञान केर अर्थ (तत्त्वज्ञान द्वारा जानय योग्य) परमात्मा केर नित्य दर्शन हो, वैह ज्ञान कहाइत अछि। देखू गीता अध्याय १३/७ सँ १३/११ धरि।)

“जे माया केँ, ईश्वर केँ आर अपन स्वरूप केँ नहि जनैत अछि, ओकरा जीव कहबाक चाही।”

“जे कर्मानुसार बन्धन आ मोक्ष दयवला, सब सँ परे आ माया के प्रेरक छथि, ओ ईश्वर छथि।”

“धर्म केर आचरण सँ वैराग्य आर योग सँ ज्ञान होइत छैक तथा ज्ञान मोक्ष दयवला होइछ – एना वेद द्वारा वर्णन कयल गेल अछि।”

“आर हे भाइ! जाहि सँ हम तुरन्त प्रसन्न होइत छी, ओ हमर भक्ति छी जे भक्त केँ सुख दयवला होइछ। ओ भक्ति स्वतंत्र होइछ, ओकरा (ज्ञान-विज्ञान आदि कोनो) दोसर साधनक सहारा (अपेक्षा) नहि छैक। ज्ञान आर विज्ञान त ओकर अधीन मे रहैत छैक।”

“हे तात! भक्ति अनुपम आ सुख केर मूल छी आर ओ तखनहि भेटैत अछि जखन सन्त अनुकूल (प्रसन्न) होइत छथि।”

“आब हम भक्तिक साधन विस्तार सँ कहैत छी – ई सुगम मार्ग थिक, जाहि सँ जीव हमरा सहजहि पाबि जाइत अछि। पहिने त ब्राह्मण लोकनिक चरण मे अत्यन्त प्रीति हो आर वेद केर रीति अनुसार अपन-अपन वर्णाश्रम धर्म केर कर्म मे लागल रहय। एकर फल विषय सब सँ वैराग्य होयत। वैराग्य भेलापर हमर धर्म (भागवत धर्म) मे प्रेम उत्पन्न होयत। तखन श्रवण आदि नौ प्रकार केर भक्ति दृढ़ होयत आ मोन मे हमर लीला सभक प्रति प्रेम बढ़त। जेकरा सन्त सभक चरणकमल मे प्रेम हुए, मन, वचन आर कर्म सँ भजन केर दृढ़ नियम हुए आर जे हमरे टा गुरु, पिता, माता, भाइ, पति आर देवता सब किछु जानय आ सेवा मे दृढ़ रहय, हमर गुण गबैत समय जेकर शरीर पुलकित भ’ जाय, वाणी गदगद भ’ जाय आ नेत्र सँ प्रेमाश्रुक जल बहय लागय, संगहि काम, मद आ दम्भ आदि जेकरा मे नहि हो, हे भाइ! हम सदा ओकरे वश मे रहैत छी।”

“जेकरा कर्म, वचन आर मन सँ हमरहि टा गति छैक आ जे निष्काम भाव सँ हमरे भजन करैत अछि, ओकर हृदय कमल मे हम सदैव विश्राम कयल करैत छी।”

६. एहि भक्ति योग केँ सुनिकय लक्ष्मणजी बहुते सुख पेलनि आर ओ प्रभु श्री रामचंद्रजीक चरण मे सिर नमेलनि। एहि तरहें वैराग्य, ज्ञान, गुण आर नीति कहिते आर किछु दिन बिति गेल।

हरिः हरः!!