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रामचरितमानस मोतीः श्री सीता-अनसूया मिलन और श्री सीताजी केँ अनसूयाजी द्वारा पतिव्रत धर्म केर वर्णन

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

श्री सीता-अनसूया मिलन और श्री सीताजी केँ अनसूयाजी द्वारा पतिव्रत धर्म केर वर्णन

१. एम्हर अत्रि ऋषि श्री रामजीक दर्शन अपन आश्रम मे करैत गदगद भेल हुनक विनती कयलनि, दोसर दिश परम शीलवती आर विनम्र श्री सीताजी अनसूयाजी (आत्रिजीक पत्नी) केर चरण पकड़िकय हुनका सँ भेट कयलीह।

२. ऋषि पत्नीक मोन मे बड सुख भेटलनि। ओ आशीष दैत सीताजी केँ अपनहि लग बैसा लेलीह। आर ओ एहेन दिव्य वस्त्र एवं आभूषण हुनका पहिरेलीह जे सदिखन नव, निर्मल आ सोहाओन बनल रहैत अछि। पुनः ऋषि पत्नी हुनका संग बात करैत मधुर आ कोमल वाणी सँ स्त्रीगण सभक किछु धर्म बखानैत कहय लगलीह।

“हे राजकुमारी! सुनू!! माता, पिता, भाइ सब कियो हित करयवला छथि, लेकिन ई सब एकटा सीमहि धरि सुख दयवला थिकाह। मुदा हे जानकी! पति मोक्षरूप असीम सुख दयवला होइत छथि।”

“ओ स्त्री अधम अछि जे एहेन पतिक सेवा नहि करैछ।”

धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥
बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥४॥

“धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री – एहि चारूक परीक्षा विपत्ति काल होइत छैक।”

“वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, आन्हर, बहीर, क्रोधी आर अत्यन्त दीन – एहनो पतिक अपमान करय सँ स्त्री यमपुर मे भाँति-भाँतिक दुःख पबैत छथि।”

“शरीर, वचन आर मोन सँ पतिक चरण मे प्रेम करब स्त्रीक लेल एकमात्र धर्म थिक। एक्कहि टा व्रत आ एक्कहि टा नियम थिक।”

“जगत मे चारि प्रकारक पतिव्रता होइत छथि। वेद, पुराण आर सन्त सब यैह कहैत छथि।”

“उत्तम श्रेणीक पतिव्रता केर मोन मे एहेन भाव बसल रहैत छन्हि जे जगत मे हमर पतिक अलावे दोसर पुरुष सपनहुँ मे नहि अछि।”

“मध्यम श्रेणीक पतिव्रता पराया पति केँ केना देखैत छथि जेना ओ अपन सहोदर भाइ, पिता या पुत्र होइथ।”

(अर्थात समान अवस्था वला केँ ओ भाइ के रूप मे देखैत छथि, पैघ केँ पिताक रूप मे आ छोट केँ पुत्र केर रूप मे देखैत छथि।)

“जे धर्म विचारि कय आर अपन कुलक मर्यादा बुझिकय बचल रहैत छथि, से निकृष्ट (निम्न श्रेणीक) स्त्री थिकीह, ई बात वेद कहैत अछि।”

“आर, जे स्त्री मौका नहि भेटबाक कारणे अथवा पति या परिवार-समाजक डर सँ पतिव्रता बनल रहैत छथि जगत मे हुनका अधम स्त्री बुझब।”

“पति केँ धोखा दयवाली जे स्त्री पराया पति सँ रति करैत छथि, ओ त सौ कल्प तक रौरव नरक मे पड़ल रहैत छथि।”

“क्षण भरिक सुख वास्ते जे सौ करोड़ (असंख्य) जन्म केर दुःख केँ नहि बुझथि, हुनका समान दुष्टा के होयत!”

“जे स्त्री छल छोड़िकय पतिव्रत धर्म केँ ग्रहण करैत छथि, ओ बिना कोनो परिश्रमहि केँ परमगति केँ प्राप्त करैत छथि। मुदा जे पतिक प्रतिकूल चलैत छथि, ओ जतय कतहु जन्म लैत छथि, ओतहि जवानी पबिते विधवा भ’ जाइत छथि।”

“स्त्री जन्महि सँ अपवित्र मानल गेली अछि, लेकिन पतिक सेवा कयकेँ ओ अनायासे शुभ गति केँ प्राप्त कय लैत छथि। पतिव्रत धर्म केर कारणहि सँ आइ धरि ‘तुलसीजी’ भगवान केँ प्रिय छथि आर चारू वेद हुनकर यश गबैत अछि।”

“हे सीता! सुनू!! अहाँक नामहि टा लय-लय स्त्री लोकनि पतिव्रत धर्मक पालन कय लेती। अहाँ लेल त श्री रामजी प्राणक समान प्रिय छथि। ई कथा हम सिर्फ संसारक हित लेल कहलहुँ अछि।”

३. जानकीजी ई सुनि परम सुख प्राप्त कयलीह। आर, आदरपूर्वक हुनकर चरण मे सिर नमेलीह। तखन कृपाक खान श्री रामजी मुनि सँ कहलनि –

“आज्ञा हुए त आब दोसर वन मे जाय! हमरा पर निरन्तर कृपा करैत रहब आर अपन सेवक जानि स्नेह नहि छोड़ब।”

४. धर्म धुरन्धर प्रभु श्री रामजीक वचन सुनि ज्ञानी मुनि प्रेमपूर्वक कहलखिन्ह –

“ब्रह्मा, शिव आ सनकादि आ परमार्थवादी (तत्ववेत्ता) लोकनि जिनकर कृपा चाहैत रहैत छथि, हे रामजी! अहाँ वैह निष्काम पुरुष केँ सेहो प्रिय आर दीन लोकनिक बन्धु भगवान थिकहुँ जे एना कोमल वचन बाजि रहल छी। आब हम लक्ष्मीजीक चतुराई बुझलहुँ जे ओ सब देवता केँ छोड़ि मात्र अपनहि टा केँ कियैक भजैत रहली। जिनकर समान पैघता आर केकरहु नहि छैक, हुनकर शील भला एहेन कियैक नहि हो! हम कोना कहू हे स्वामी! जे आब अहाँ जाउ? हे नाथ! अहाँ अन्तर्यामी छी, अहीं कहू जे ई बात हम कोना कहू?”

५. एना कहिकय धीर मुनि प्रभु केँ देखय लगलाह। मुनिक नेत्र सँ (प्रेमाश्रुक) जल बहि रहल अछि आर शरीर पुलकित अछि।

छन्द :
तन पुलक निर्भर प्रेम पूरन नयन मुख पंकज दिए।
मन ग्यान गुन गोतीत प्रभु मैं दीख जप तप का किए॥
जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पावई।
रघुबीर चरित पुनीत निसि दिन दास तुलसी गावई॥

मुनि अत्यन्त प्रेम सँ पूर्ण छथि, हुनकर शरीर पुलकित अछि आर नेत्र केँ श्री रामजीक मुखकमल मे लगौने छथि। मोन मे विचारि रहल छथि जे हम एहेन कोन जप-तप कएने रही जाहि के कारण मन, ज्ञान, गुण आर इन्द्रियहु सँ परे प्रभुक दर्शन पेलहुँ। जप, योग आर धर्म समूह सँ मनुष्य अनुपम भक्ति केँ पबैत अछि। श्री रघुवीर केर पवित्र चरित्र केँ तुलसीदास राति-दिन गबैत छथि।

६. श्री रामचन्द्रजीक सुन्दर यश कलियुगक पाप सब केँ नाश करयवला, मन केँ दमन करयवला आर सुख केर मूल थिक, जे लोक एकरा आदरपूर्वक सुनैत छथि हुनका पर श्री रामजी प्रसन्न रहैत छथिन। ई कठिन कलिकाल पाप सभक खजाना छी, एहि मे न धर्म अछि, न ज्ञान अछि आर न योग आ कि जपे अछि। एहि मे त लोक सब भरोसा सब छोड़िकय श्री रामजी टा केँ भजैत छथि, वैह टा चतुर छथि।

हरिः हरः!!

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