हम आबि रहल छीः मैथिली धारावाहिक भाग ७ व ८

श्री रबीन्द्र नारायण मिश्र केर लिखल उपन्यास “हम आबि रहल छी” पर आधारति मैथिली धारावाहिक भाग – ७ आ ८

7

रातिमे भुखले सुति रहलहुँ । टेबुलपर निशा हमर भोजन राखि देने रहथि । हम ओमहर तकबो नहि केलहुँ । असलमे खेबाक मोनो नहि होइत छल । ओ दुनूगोटे भोजन केलाह आ अपन कोठरीमे चलि गेलाह । हमरा सुतल देखि ओ सभ निचैन आपसमे गप्प-सप्प करैत रहलाह । संयोगसँ थोड़बे कालमे हमर निन्न टुटि गेल । भूख लागि गेल छल । मुदा भोजन करए नहि चाही । ओतेक रातिमे की खटपट करितहुँ? । भेल जे भोरे जल्दीए उठि जाएब । तखन देखल जेतैक । एमहर शंकर आ निशाक मुँहे बेरि-बेरि अपन चर्चा सुनि कान ठाढ़ भेल ।

“हम तँ अहाँकेँ पहिने कहने रही जे ई बूढ़ आसानीसँ रस्तापर नहि आओत । तँ अहाँकेँ विश्वास नहि होअए। सभदिन एतबे बात कहैत रहलहुँ जे हम तँ असगरे भाइमे छी । सभकिछु हमरे अछि । आब बुझलिऐक ने । बूढ़ा अपन बेटीकेँ पटिदार बना कए राखि देलाह ।”

“अहाँ बहुत जल्दी अगुता जाइत छी । हम सभबातक समाधान सोचने छी । बूढ़बाक किछु नहि चलतैक ।”

“की समाधान सोचने छी? कनी हमहूँ बुझिऐक।”

“ओकीलसँ कागज-पत्तर बनबा रहल छी । काल्हि सभटा तैयार भए जेतैक । तकर बाद.”

“तकर बाद की?”

“बूढ़ाक औंठा निसान कल्हुका रातिमे लगबा देबैक । बात खतम । एहि लेल अनेरे परेसान किएक रहब?”

“से ओ औंठा निसान लगबए देत? एतेक सोझलोक तँ नहि बुझा रहल अछि ।”

“ई सभ चिंता हमरा पर छोड़ि दिअ ।”

ओकरा लोकनिक आपसी वार्तालाप हम सभटा सुनलहुँ। भय आ चिंतासँ सौंसे देह काँपि रहल छल । देहक रोंआसभ ठाढ़ भए गेल छल । माथा सोचनाइ बंद कए देलक । बुझेबे नहि करए जे की करी? मोन होअए जे जोरसँ चिकरी । ततेक जोरसँ जे सौंसे मोहल्लाक लोकसभ जमा भए जाए । थाना-पुलिसमे फोन कए दिऐक। तरह-तरहक बातसभ मोनमे अबैत-जाइत रहल । हम थोड़े काल ओहिना कान पथने रहलहुँ।  ओकरसभक आपसी गप्प बंद भए गेल । थोड़बे कालमे ओकरासभक  फोंफ कटबाक अबाज आबि रहल छल । निस्तव्ध रातिमे ओहि कोठरीमे हम असगरे जागल सोचि रहल छलहुँ जे एहिठामसँ जान बँचा कए कोना घसकी। मोनमे डर होअए जे एतेक रातिमे कतए जाएब ? जँ नहि जाएब तँ काल्हि भेने कहि नहि की-की भए जाएत! भए सकैत अछि जे जबरदस्ती वा सुतलेमे ओकीली कागजपर हमर औंठा निसान लए लेल जाए आ हम सदा-सर्वदाक हेतु कंगाल भए जाइ। इएह सभ सोचैत-सोचैत हम उठि कए ठाढ़ भए गेलहुँ । हमरा लागल जेना सौंसे देहमे करेंट लागि गेल अछि । हम अपन कुरता पहिरैत छी ,झोरा कान्हमे लटकबैत छी आ केबारक कुंडी स्थिरेसँ खोलि कोठरीसँ बाहर भए जाइत छी । बाहर कतहु केओ नहि छल। दुपहर रातिमे के रहैत आ किएक? लगीचमे मेनरोड छल । हम रोडक ओहिकात चलि जाइत छी । सामने कनीक फटकी बस स्टैंड लग एकटा आटो ठाढ़ देखाएल । हम सहटि कए ओकरा लग जाइत छी ।

“एतेक राति कए अहाँ असगरे सड़कपर की कए रहल छी?” – ओ हमरा पुछैत अछि ।

“ओ गंगा! एखन  धरि एतहि छह।”

“गर्मीक मौसममे रातिमे आटो चलाएब बेसी सुविधाजनक रहैत छैक । टाका सेहो बेसी भेटैत छैक । दिनमे ततके रौद भए जाइत छैक जे आटो चलाएब बहुत मोसकिल भए जाइत छैक । मुदा अहाँ अखन एहिठाम की कए रहल छी?”

“पहिने एहिठामसँ निकलह । फेर ई सभ गप्प करब ।”

“मुदा जेबैक कतए?”

“टीसन पहुँचा दएह । गाम चलि जाएब ।”

“टिकट अछि।”

“टिकट कतएसँ आएत?”

“मुदा बिना टिकटक ट्रेनपर चढ़बैक कोना? जँ पकड़ा गेलहुँ तँ जहल जाए पड़त ।”

“तखन…”

“अखन हमरा ओहिठाम चलू । हमहूँ गाम जाएबला छी। टिकटक जोगार नहि भए रहल अछि । तेँ रुकल छी। गर्मीमे टिकट भेटब मोसकिल रहैत छैक । दलालकेँ कहने छिऐक । ओकरेसँ अहूँक टिकट बनबा देब। तखन दुनूगोटे संगे चलब ।”

हमरा गंगाक विचार ठीक बुझाएल । ओहुना हमरा सहरक कोनो अंदाज नहि छल । टिकटक ओरिआन के करैत? भने गंगा भेटि गेल छल । हम ओकर आटोपर बैसि जाइत छी। गंगाक आटो तेजीसँ आगू बढ़ि जाइत अछि।

आटोपर बैसल हम गंगाकेँ देखैत रहि जाइत छी । गंगाक बएस चालीसक आसपास रहल होएतैक । मोछ-दाढ़ी बड़ी-बड़ीटा छलैक-जेना सालोंसँ काटल नहि गेल होइक । गोटे-गोटे केस पाकि गेल रहैक । रंग पिंडस्याम, मुँह नमगर धुआ छोट । देहमे फाटल गंजी आ नीचाँ पुरानसन लुंगी । इएह छलैक ओकर बगए । मुदा बोलीमे बेस ठसक रहैक ओकरा । विचारसँ बेस परिपक्व लगैत छलैक । लगबे नहि करैत जे कोनो औंठाछाप आदमीसँ गप्प कए रहल छी । आटोपर जाइत-जाइत हम ओकरे बारेमे सोचैत रहि गेलहुँ । बुझेबे नहि करए जे कोन जन्मक हमर ॠण ओ चुका रहल अछि।  जकर से करबाक छलैक, जकरा बले हम दिल्ली सन महानगरमे पहिल बेर आएल रही, जे हमर एकमात्र  पुत्र अछि से तँ दोसरे जोगारमे पड़ल छल । दोसर दिस छल गंगा जे एहि महानगरमे हमरा संगे ठाढ़ भए गेल छल। थोड़बे कालमे आटो एकटा खोपड़ी लग ठाढ़ भेल। हम आटोसँ उतरि जाइत छी । गंगा बहुत आवेशसँ हमरा अपन खोपड़ीमे लए जाइत अछि । हमहूँ ओकरे अनुसरण करैत जाइत छी ।

हम आबि रहल छी-भाग आठ

8

आटोरिक्सा एकाएक एकटा खोपड़ी लग रुकि जाइत अछि । गंगा उत्साहपूर्वक हमरा आटोसँ उतारैत अछि आ हमरा संगे खोपड़ीक दलानपर पहुँचैत अछि । ओतेक राति बितलोपर ओकर घरमे सभ जगले छैक, ओकर प्रतीक्षा कए रहल छलैक । दलानपर राखल खाटपर हमरा बैसबैत अछि । अंदरसँ ओकर माए, पत्नी आ दुनू बच्चा दौड़ल अबैत छैक । हमरा दिस इसारा करैत गंगा कहैत अछि –

“अपने गाम लगक छथिन । हमरा संगे गाम जेथिन । काल्हि ने तँ परसू । टिकटक जोगार करबाक छैक । दलालकेँ कहलिऐक अछि । ओहो आइ-काल्हि कए रहल अछि । गर्मीक छुट्टीक कारण ट्रेनसभमे बहुत भीड़ भए रहल छैक ।”

गंगाक माए हमरा दिस देखैत रहल, जेना किछु अखिआसि रहल होइक । किछु बाजए नहि । हमरो लागए जेना एकरा कतहु देखने छिऐक । फेर होअए जे मतिभ्रम भए सकैत अछि । थोड़बे कालमे गंगाक पत्नी बड़ीटा गिलासमे भफाइत चाह लेने आएलि । हम आ गंगा चाह पिबैत छी । हमर मोन कनी आश्वस्त भेल । गंगाक पूरा परिवार ओकरा घेरि कए बैसि गेल रहैक । सभ हँसी ठट्ठा करैत रहल । हमरोसँ किछु-किछु पुछैत रहल । ओहिठामक माहौल देखि हम दंग रही । लगैक जेना दोसर दुनिआमे आबि गेल छी । एकटा एकदम अपरिचित लोकक हेतु एतेक अंतरंग भावनाक उद्गार देखि चकित छलहुँ । हमरा गुमसुम देखि गंगाकेँ चिंता भेलैक। ओ कहैत अछि –

“की बात छैक? अहाँ एतेक चिंतामे किएक छी । अहाँ कोनो आनठाम नहि छी । ई अहींक परिवार अछि । जतेक दिन मोन होअए रहू । हमरोसभकेँ मोन लागत ।”

“चिंता कथीक करब । तोरा सन नीक लोकक बीचमे कोनो कष्ट नहि । हम तँ तोहरसभक प्रेमभाव देखि बहुत प्रसन्न छी । एहन माहौल कतए पाबी? मुदा गाम तँ जाए पड़त । ओहिठाम चीज-वस्तुसभ सिदति होइत होएत।”

“अहाँ अनेरे मोहमे पड़ल छी । जाबे अपन वश छल ताबत केलहुँ । आब तँ अहाँक आरामक समय अछि । धिया-पुताकेँ करबाक चाही ।”

“सभ तोरे सन होइक तखन ने ।”

“हम कोनो आन छी? अहाँ निचैन अहिठाम रहू ।”

हमसभ गप्प कइए रहल छलहुँ कि गंगाक पत्नी भोजनक बिझो करओलक । गंगा हमरा लेने घरक ओसारापर लए जाइत अछि । ओहिठाम पीढ़ीपर हमरा बैसबैत अछि । हाथ-पैर धोलाक बाद हम बैसैत छी । मुदा गंगा ठाढ़े रहि जाइत अछि ।

“तूँहूँ किएक ने खा लैत छह । बहुत राति भए गेलैक ।”

“पहिने पाहुन खेतैक तकर बादे ने हमसभ खेबैक ।”

हम ओकर बात सुनि अबाक रही । एतेक कम समयमे भोजनक एहन सरंजाम देखि आश्चर्यचकित रही । दालि, भात, चारिटा तरकारी, कैक तरहक तरुआ आ ऊपरसँ दहीक छओ। हम बहुत भुखाएल रही संगहि ओकरसभक दुराग्रह । आइ कैकदिनपर भरि पेट खेलहुँ ।

हम भोजन करिते छलहुँ कि एकटा वयोवृद्ध कोठरीसँ बाहर होइत छथि । “ई हमर बाबू छथिन । रातिकए कम सुझैत छनि । एमहर मोनो खराप रहैत छनि । अपना भरि इलाज करओलिअनि। मुदा डाक्टरसभ कहैत अछि जे बएसक प्रभाव छनि । एहिना होइत रहतनि ।” ओहि बूढ़क आकृतिपर प्रसन्नताक भाव टपकि रहल छल । कहैत अछि –

“हम बहुत भाग्यवान छी जे भगवान गंगा सन बेटा देलथि। दिन-राति दुनूप्राणी सेवामे लागल रहैत अछि । तैओ गामे मोन टांगल रहैत अछि ।”

“हिनके द्वारे गाम जेबाक सोचलहुँ अछि । एकमाससँ दिन-राति गामे-गाम करैत रहैत छथिन ।”

ओकरसभक गप्प-सप्प सुनि होइत छल जेना कोनो दोसर दुनिआमे पहुँचि गेल छी । हम कहलिऐक –

“अहाँ बहुत भाग्यवान छी जे एहन परिवार भेटल ।”

“से बात अपने सही कहि रहल छी । मुदा गामक दरेग तँ होइते छैक ने । अपन लोक-वेदसभसँ भेंट केला बहुत दिन भए गेल ।”

“अच्छा चिंता नहि करू । आब जल्दीए गाम चलब ।” – गंगा बजैत अछि । गंगा संगे हम बाहर निकलैत छी । पाछू-पाछू ओकर पूरा परिवार सेहो अबैत अछि । सभगोटे हमरा वारंबार आश्वस्त करैत छथि । ओसारापर हमर ओछाओन भेल अछि ।

“आब आराम करू । बहुत थाकि गेल होएब ।”

“ठीक छैक ।”

गंगाक परिवारक प्रति समर्पण देखि हम बहुत प्रभावित भेलहुँ । ओकर माए-बापकेँ देखलासँ लगबे नहि करैक जे ओ सभ ओतेक बूढ़ भए गेल अछि । पारिवारिक प्रेम आ आपसी सौहार्द्यसँ ओ गरीबीक कष्टकेँ नीकसँ झाँपि देने छल ।

 हम खाटपर पड़ि जाइत छी । बड़ी काल धरि आङनमे हँसी-ठट्ठा होइत रहैत अछि । घंटाभरिक बाद सभ सुति जाइत अछि । मुदा हमरा निन्न नहि होइत अछि । हम रातिभरि करोट बदलैत रहि जाइत छी । भोरुकबामे गंगाक माए पराती गेनाइ शुरु केलक । बहुत दिनक बाद एतेक मधुर स्वरमे पराती सुनबाक मौका भेटल छल।

परातीक अबाज सुनि गंगा सेहो उठि जाइत अछि । हमरा खाटपर बैसल देखि  पुछैत अछि-

“अहाँ सुतलिऐक नहि?”

“निन भेबे नहि कएल । राति भरि जागल-जागल देह भसिआ रहल अछि ।”

“एतेक परेसान नहि रहू । ई जिनगी छैक । सभटा अपने सोचला नहि होइत छैक । सभ समय बीति जाइत छैक । ईहो समय बीति जेतैक । जएह भगवान कष्ट दैत छथिन सएह समाधानो करैत छथिन ।”

“बात तँ ठीके कहि रहल छह । मुदा मनुक्खक स्वभाव छैक । ओ जे नहि सोचबाक ताहूपर सोचैत रहैत अछि।”

“मुदा बात की भेलैक जे एतेक रातिमे अहाँ एना घर छोड़ि कए निकलि गेलिऐक?”

“की-की कहिअह? टिकटक जोगार करह । पहिने एहिठामसँ निकली, फेर किछू आओर ।”

“टिकटक जोगार तँ हेबे करतैक । हम रातिएमे फोन कए देलिऐक अछि । दलाल बाबू आश्वस्त केलक अछि ।”

एतबेमे फोनक घंटी बजैत अछि ।

“गंगा भाइ!”

“कहह की हाल अछि?”

“टिकट तँ भेल मुदा किछु दंड लागि गेलह ।”

“कतेक?”

“एक टिकटपर पाँच सए ऊपरका ।”

“कोनो बात नहि । तूँ टिकट पठाबह ।”

मोबाइलमे दरभंगाक चारिटा टिकट आबि जाइत छैक। गंगा हमरा से सूचित करैत अछि । नईदिल्ली टीसनसँ अढ़ाइ बजे दिनमे संपूर्णक्रांतिसँ टिकटक जोगार भेलैक अछि । सभगोटे प्रसन्न अछि । गंगाक बाबू सेहो प्रसन्नतासँ नाँचि रहल छल । कखनो आङन जाए, कखनो दलानपर आबए । ओकर माए सेहो तैयारीमे लागि गेल छल । पत्नी आ नेनासभ एतहि रहतैक । गंगा, ओकर माए-बाबू आ हम चारिगोटे ट्रेनसँ जाएब।

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(हम आबि रहल छी उपन्यास पर आधारित ई धारावाहिक लेख के विगत के ६ अध्याय अन्य लिंक पर प्रकाशित अछि। एहि सँ आगूक भाग सेहो अन्य लिंक पर उपलब्ध होयत। – सम्पादक)