#जानकीनवमीविशेष – सीताजी संग हनुमानजीक प्रथम भेंट आ श्रीरामक सन्देश

सीताजी सँ निशानी लय हनुमान जी पहुँचि गेला रामजीक पास

जानकी नवमी विशेष स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

#जानकीनवमीविशेष
 
सीताजी सँ निशानी लय हनुमान जी पहुँचि गेला रामजीक पास

अपन समूह ‘दहेज मुक्त मिथिला’क कमान्डर इन चीफ पराम्बा जानकीजी छथि। हम सब हुनक दूत सब थिकहुँ। जानकीदूत होयबाक सौभाग्य कम भारी बात नहि! रामजीक दूत बजरंगबली भ’ कय जानकीजी सँ भेटय गेल रहथिन। फेर जानकीजीक दूत बनिकय रामजी लग घुमि अयलथि बजरंगबली। एखन अपन समूह पर जानकी नवमी सँ पूर्व मात्र आ मात्र जानकीजीक चर्चाक क्रम चलि रहल अछि। सब कियो आनन्द-आनन्द मे डूबल छी। आइ हमर एकटा एहेन लेख लिखा गेल जे सच मे अहाँ सभक अद्भुत प्रेम पाबि रहल अछि। एखनहि आदरणीया Gyanda Jha कहलखिन जे आगुओ लेख केर इन्तजार रहत। से हम लिखिते रहब। लेकिन एखन हमर हृदय मे जानकीजीक ओ विरह मोन पड़ि गेल अछि जे ओ रामदूत हनुमान सँ सुनौने रहथि। एतय हम केन्द्रित रहब तुलसीकृत् रामचरितमानस मे वर्णित ओहि सुन्दर सन प्रसंग पर। एक लाइन ईहो कहि दियए चाहब जे ‘सुन्दरकाण्ड’ केर नाम ‘सुन्दर’ कियैक पड़ल अछि से अहाँ सब मनन करू। एकर जवाब आइ निश्चित अहाँ सब केँ ताकि लेबाक अछि। हमरा जहिया ई भेटल, ओ छल २००५ ई. लेकिन लेखरूप मे ई अभरल २०१८ ई. मे। से आइ साझा करय चाहि रहल छी अपने सब सँ।

 
जय मिथिला – जय जानकी!!
 
हरिः हरः!!
 
सीताक विरह आ रामक सन्देश
(हमर फेवरिट तुलसीकृत् रामचरितमानस पर आधारित)
 
विदिते अछि जे रावण सीताक अपहरण कय हुनका अशोक वाटिका मे राक्षसी सभक कड़ा पहरा मे राखि देने छल। जखन हनुमानजी सीताजीक खोज करैत लंका पहुँचि गेलाह अछि आर विभीषण सँ सब युक्ति जानिकय अशोक वाटिका मे सीताजीक दर्शन लेल पहुँचि गेला, तेकर बाद ओ जे सब देखलनि तेकर वर्णन केहनो कठोर मन केँ द्रवित कय दैत अछि। पुनः हनुमानजी जखन सीताजी केँ रामक सन्देश कहि सुनौलनि अछि त हुनकर हृदय केँ कतेक सन्तोष आ सुख पहुँचैत अछि जे रामायण केर एहि भागक नाम ‘सुन्दर काण्ड’ पड़ि जाइत अछि।
 
हनुमानजी अशोक वाटिका पहुँचि गेलाह आ सीताजी केँ देखिकय मनहि-मन प्रणाम कयलन्हि। ओ रातिक चारू पहर धरि बैसले-बैसल बिता देली। एकदम दुबर भऽ गेली अछि। माथपर जटाक एक लट छन्हि। हृदय मे श्रीरघुनाथजीक गुण समूह केर स्मृति सँ अपन एकाकीपन केँ दूर कय रहल छथि। जानकीजी अपन नेत्रकेँ अपनहि चरण मे लगेने छथि, लगातार नीचाँ ताकि रहली अछि आर मनहि-मन श्रीरामजीक चरणकमल मे लीन छथि। जानकीजीक एहेन दशा देखि हनुमानजी बहुत दुःखी भेलाह। बानरक रूप मे रहल हनुमानजी गाछक पल्लव सभक ओट मे नुकायल छथि, अपना मन मे विचार कय रहल छथि जे कि उपाय करू जे माता जानकीक दुःख दूर हुअय। ताबत काल ओतय रावण बहुतो रास स्त्रिगण समाजक संग सैज-धैजकय आबि जाइत अछि। ओ बहुतो तरहें सीताजी केँ बुझबैत अछि, साम, दाम, भय आ भेद सब देखबैत अछि। कहैत अछिः
 
“हे सुमुखि! हे सयानी!! सुनू! मंदोदरी आदि सब रानी केँ अहाँक दासी बना देब, ई हमर प्रण अछि। बस एक बेर हमरा दिस देखू त सही!”
 
ताहिपर जानकीजी अपन परम स्नेही कोसलाधीश श्री रामचंद्रजीक स्मरण कय केँ एकटा तिनकाक परदा करैत कहली –
 
“हे दशमुख! सुने, भगजोगनीक प्रकाश सँ कहियो कमलिनी फूला सकैत अछि? तूँ अपना लेल अहिना बुझ। रे दुष्ट! तोरा श्रीरघुवीर केर बाण केर खबैर नहि छौक। रे पापी! तूँ हमरा सुन्न समय मे हैर अनलें। अरे अधम! निर्लज्ज! तोरा लाज नहि लगैत छौक?”
 
अपना केँ भगजोगनी आ रामचंद्रजी केँ सूर्यक समान सुनिकय आ सीताजीक कठोर वचन सब सुनिकय रावण तलवार निकालिकय एकदम तामश मे बाजल –
 
“सीता! तूँ हमर अपमान केलें अछि। हम तोहर सिर एहि कठोर कृपाण सँ काटि देबौक। नहि तऽ जल्दी सँ हमर बात मानि ले। अरी सुमुखि! नहि तऽ जीवन सँ हाथ धोअय पड़तौक।”
 
सीताजी फेर कहलखिन, “अरे दशग्रीव! प्रभुक भुजा जे श्याम कमल केर मालाक समान सुन्दर आर हाथीक सूँड समान (पुष्ट आ विशाल) अछि, या तऽ ओ भुजा टा हमर कंठ मे पड़त या तोहर भयानक तलवारे टा। अरे शठ! सुन! यैह हमर सत्य प्रण थिक। हे चंद्रहास (तलवार)! श्रीरघुनाथजीक विरह केर आगि सँ उत्पन्न हमर भारी जलन केँ तूँ हैर ले। ए तलवार! तूँ शीतल, तीव्र और श्रेष्ठ धारा बहबैत छँ, तूँ हमर दुःखक बोझ केँ हैर ले।”
 
सीताजीक ई वचन सुनिते देरी रावण मारय लेल दौड़ल। तखन मय दानवक नीतिज्ञ पुत्री यानि मन्दोदरी ओकरा नीति कहिकय बुझेलीह – फेर रावण अपन दासी सब केँ बजाकय कहलक – “जो आ सीता केँ बहुतो प्रकार सँ डरो। जँ महीना भैर मे हमर कहल नहि मानत तऽ यैह तलवार निकालिकय मारि देबैक।” एतेक बाजिकय रावण घर दिस चलि गेल। एतय राक्षसी सभक समूह बहुतो तरहक भयावह रूप सब बना-बना सीताजी केँ डराबय लागल।
 
ओकरे सभक बीच मे एकटा त्रिजटा नामक राक्षसी छल। ओकरा श्री रामचंद्रजीक चरण मे प्रीति छलैक आर ओ विवेक (ज्ञान) मे सेहो निपुण छल। ओ डरबयवाली राक्षसी सबकेँ बजाकय अपन एकटा सपना देखबाक बात कहलक। ओ कहलकैक – “सीताजीक सेवा कयकेँ अपन कल्याण कय लय जो। सपना मे हम देखलहुँ जे एकटा बानर लंका जरा देलक हँ। राक्षसक सबटा सेना केँ मारि देलक हँ। रावण केँ नांगट बनाकय गदहा पर बैसा देल गेल छैक। ओकर केसो काटि देल गेल छैक, बीसो हाथ काटि देल गेल छैक। ओ दक्षिण (यमपुरीक) दिशा दिश जा रहल अछि। आर, लंकाक राज विभीषणक हाथ चलि गेल छैक। नगर भरि मे श्री रामचंद्रजीक दोहाइ गाबि रहल अछि सब। तखन प्रभु सीताजी केँ बजेबाक लेल लोक पठौलनि अछि। हम जोर-जोर सँ चिकरि-चिकरिकय एकदम निश्चयक संग ई कहैत छियौक जे ई सपना बस गोटेके दिन मे सच होमय जा रहलौ अछि।”
 
ओकर एना बजलापर राक्षसी सब अपने खूब डरा गेल आर जानकीजीक चरण मे खैस पड़ल। तेकरा बाद ओ सब जैंह-तैंह चलि जाय गेल। एम्हर सीताजी मनमे विचारय लगलीह जे एक महीना बीति गेलाक बाद ई नीच राक्षस रावण हमरा मारि देत। सीताजी हाथ जोड़िकय त्रिजटा सँ कहली – गय माय! तोंही टा हमर विपत्ति के संगी थिकें। जल्दी कोनो एहेन उपाय कर जाहि सँ हम ई शरीर छोड़ि सकी। परमवीर पिया संग अलग हेबाक विरह आब असह्म भऽ गेल हमरा लेल। आब ई सहल नहि जाइत अछि। काठ लाबे आ अछिया बना दे। हे माता! फेर ओहि मे आगि लगा दे। हे सयानी! तूँ हमर प्रीति केँ सत्य कय दे। रावण केर शूल समान दुःख दयवला वाणी कान सँ के सुनय?”
 
सीताजीक वचन सुनिकय त्रिजटा हुनकर चरण पकड़िकय हुनका बुझेलक आर प्रभुक प्रताप, बल आर सुयश सब सुनेलक। ओ कहलकैक, “हे सुकुमारी! सुनू! रातिक समय आगि नहि भेटैत छैक।” एतेक कहिकय ओ अपन घर दिश चलि गेल। ताहिपर सीताजी मनहि-मन बजलीह – “कि करू? विधाते विपरीत भऽ गेल छथि। नहि आगि भेटत, न पीड़ा मेटायत। आकाश मे आगि प्रकट देखाइत अछि, मुदा पृथ्वीपर एकहु टा आगिरूपी तारा नहि खसैत अछि। चंद्रमा अग्निमय अछि, मुदा ओहो मानू हमरा हतभागिनी बुझैत आगि नहि बरसबैत अछि। हे अशोक वृक्ष! हमर विनती सुनह। हमर शोक हैर लैह आर अपन ‘अशोक’ नाम केँ सत्य करह। तोहर नव-नव कोमल पत्ता आगिक समान छह। आगि दह, विरह रोग केँ एना सीमा जुनि नंघाबह।”
 
एहि तरहें सीताजी केँ परम-व्याकुल देखि हनुमानजी केँ कल्प समान बितैत बुझेलनि।
 
सोरठा :
कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब।
जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ॥सुन्दरकाण्ड दोहा १२॥
 
सोरठा केँ सदिखन उल्टा कय केँ पढ़ू से हमर पिताजी आ माँ हमरा सिखेलनि। तहिना एकर भाव केँ सदिखन ‘सो रट’ केर हिसाब सँ निश्चित रूपें याद कय लिअ, से बात हमरा सब केँ परमपूज्य गुरुजी (ससुरजी) बेर-बेर सिखबैत छथि। आइ ई बात अपनो सब सँ साझा कय रहल छी। जेना ऊपर लिखल सोरठा केँ सही क्रम मे पढ़बाक लेल एना पढ़बः
 
दीन्हि मुद्रिका डारि तब, कपि करि हृदयँ बिचार।
दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ, जनु असोक अंगार॥
 
अर्थात् सीताजीक व्यग्रता देखि हनुमानजी हृदय मे विचार कय केँ सीताजीक सोझाँ मे औँठी (रामजीक देल ओ विशेष सनेश) खसा देलथि। मानू जेना सीताजीक पुकार पर अशोक हुनका आगि दय देलकनि। सैह बुझैत सीताजी एकदम हर्षित होइत उठलीह आ ओकरा अपन हाथ मे उठा लेलीह। लेकिन ओ राम-नाम सँ अंकित अत्यंत सुन्दर व मनोहर औँठी देखलीह। औँठी चिन्हिकय सीताजी आश्चर्यचकित होएत ओकरा देखय लगलीह आ हर्ष तथा विषाद सँ हृदय हुनकर अकुला उठलन्हि। ओ सोचय लगलीह जे श्री रघुनाथजी तँ सर्वथा अजेय छथि, हुनका के जीति सकैत अछि? आर, माया सँ एहेन औँठी कथमपि नहि बनायल जा सकैत अछि। सीताजीक मोन मे अनेकों प्रकारक विचार आबि रहल छन्हि। ताहि समय हनुमान्‌जी मधुर वचन बजलाह –
रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई॥३॥
 
ओ श्री रामचंद्रजीक गुणक वर्णन करय लगलाह, जे सुनिते सीताजीक दुःख भागि गेलनि। ओ कान आ मोन लगाकय सब बात सुनय लगलीह। हनुमानजी आदि सँ लैत एखन धरिक सबटा कथा कहि सुनौलनि। सीताजी कहलखिन, “जे कान लेल अमृत रूप ई सुन्दर कथा कहलक, से हे भाइ! प्रकट कियैक नहि होएत छी?”
 
तखन हनुमानजी हुनका समीप चलि एलाह। हुनका देखिकय सीताजी मुंह फेरिकय बैसि गेलीह। हुनका मन मे बड भारी आश्चर्य भेलनि। कतय ओ अनुपम कथा आ कथाकार आ कतय कथाकारक आह्वान पर हाजिर भेल ई एक बानर! सीताजी एकदम विस्मय मे पड़ि गेलीह।
 
ताहिपर हनुमानजी हुनका सँ कहलखिन – “हे माता जानकी! हम श्री रामजी केर दूत छी। करुणानिधान केर सत्य शपथ संग कहैत छी, हे माता! ई औँठी हमहीं अनलहुँ अछि। श्री रामजी हमरा अहाँक लेल ई निशानी देलनि अछि।”
 
सीताजी पूछलखिन – नर आ बानर केर संग कहू केना भेल? तखन हनुमानजी जेना संग भेल छलन्हि, सेहो सब कथा कहि सुनेलखिन।
 
हनुमानजीक प्रेमयुक्त वचन सुनिकय सीताजीक मोन मे विश्वास उत्पन्न भऽ गेलन्हि। ओ बुझि गेलीह जे ई मन, वचन आर कर्म सँ कृपासागर श्री रघुनाथजी केर दास थिक। भगवानक लोक (सेवक) जानिकय एकदम गाढ़ प्रीति भऽ गेलन्हि हनुमानजी सँ। नेत्र मे (प्रेमाश्रुक) जल भरि एलनि। शरीर एकदम पुलकित भऽ गेलनि। सीताजी कहलखिन, “हे तात हनुमान्‌! विरहसागर मे डूबैत हमरा लेल तूँही जहाज भेलह। हम बलिहारी जाइत छी। आब छोट भाइ लक्ष्मणजी सहित खर केर शत्रु सुखधाम प्रभुक कुशल-मंगल कहह। श्री रघुनाथजी तऽ कोमल हृदय आर बड़ा कृपालु लोक छथि। फेर हे हनुमान! ओ एना कोन कारण सँ निष्ठुरता धारण कय लेलनि अछि? सेवक केँ सुख देनाय हुनकर स्वाभाविक बैन छन्हि। ओ श्री रघुनाथजी कि कहियो हमरा यादो करैत छथि? हे तात! कि कखनहुँ हुनकर कोमल साँवला अंग देखि हमर ई नेत्र शीतल होयत?”
 
बजैत-बजैत सीताजीक मुंहसँ वचन नहि निकलैत छन्हि। आँखि मे विरहक नोर भरि आयल छन्हि। बड़ा दुःख सँ ओ फेरो अपन विरहक स्वर प्रकट करब शुरू कयलीह – “हा नाथ! अहाँ हमरा एकदम्मे बिसैर गेलहुँ?”
 
सीताजी केँ विरह सँ परम व्याकुल देखिकय हनुमानजी कोमल आर विनीत वचन बजलाह –
 
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता। तव दुख दुखी सुकृपा निकेता॥
जनि जननी मानह जियँ ऊना। तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना॥५॥
 
“हे माता! सुन्दर कृपा केर धाम प्रभु भाइ लक्ष्मणजीक संग (शरीर सँ) कुशल छथि, मुदा अहाँक दुःख सँ बहुत दुःखी छथि। हे माता! मन मे ग्लानि नहि करू। मन छोट कय दुःख नहि करू। श्री रामचंद्रजीक हृदय मे अहाँ सँ दोब्बर प्रेम छन्हि। हे माता! आब धीरज धय कय श्री रघुनाथजीक सन्देश सुनू।” एना कहिकय हनुमानजी प्रेम सँ गद्गद भऽ गेलाह। हुनकर आँखि मे प्रेमाश्रुक जल भरि गेलनि।
 
हनुमानजी कहलखिन –
 
“श्री रामचंद्रजी कहलनि अछि जे हे सीते! अहाँक वियोग मे हमरा लेल समस्त पदार्थ प्रतिकूल भऽ गेल अछि। गाछक नव-नव कोमल पत्ता मानू आगिक समान, राति कालरात्रिक समान, चंद्रमा सूर्यक समान और कमल केर वन भाल केर वनक समान भऽ गेल अछि। मेघ मानू खौलैत तेल बरसाबैत अछि। जे हित करयवला छल, ओहो आब पीड़ा देबय लागल अछि। त्रिविध (शीतल, मंद, सुगंध) वायु साँप केर श्वासक समान (जहरायल और गरमायल) बनि गेल अछि। मोनक दुःख कहि देला सँ सेहो किछु घैट जाइत अछि। मुदा कही केकरा सँ? ई दुःख कियो नहि जनैत अछि। हे प्रिये! हमर और अहाँक प्रेमक तत्त्व (रहस्य) एक हमरहि मोन टा जनैत अछि। और, ओ मोन सदिखन अहीं लग रहैत अछि। बस, हमर प्रेम केर सार एतबहि मे बुझि लेब।”
 
प्रभुक सन्देश सुनिते जानकीजी प्रेम मे मग्न भऽ गेलीह। हुनका शरीरक सुधि-बुधि नहि रहि गेलन्हि। हनुमानजी फेर कहलखिन –
 
“हे माता! हृदय मे धैर्य धारण करू आर सेवक केँ सुख देनिहार श्री रामजी केँ स्मरण करू। श्री रघुनाथजीक प्रभुता केँ हृदय मे आनू आर हमर वचन सुनिकय कायरताक परित्याग करू। राक्षसक समूह कीट-पतंग समान आर श्री रघुनाथजीक बाण अग्नि समान अछि। हे माता! हृदय मे धैर्य धारण करू आर राक्षस केँ जरले बुझू। श्री रामचंद्रजी जँ ई खबैर पेने रहितथि तऽ ओ विलंब नहि करितथि। हे जानकीजी! रामबाण रूपी सूर्य केर उदय भेलापर राक्षसक सेना रूपी अंधकार कतय रहि सकैत अछि? हे माता! हम अहाँ केँ एखनहि एतय सँ लय चली, मुदा श्री रामचंद्रजीक शपथ अछि, हमरा हुनकर आज्ञा नहि अछि। हे माता! किछु दिन आरो धीरज धरू। श्री रामचंद्रजी बानर सहित एतय अओता। आर राक्षस सबकेँ मारिकय अहाँकेँ लय जेता। नारद आदि (ऋषि-मुनि) तीनू लोक मे हुनकर यश गओता।”
 
सीताजी कहलखिन, “हे पुत्र! सब बानर कि तोरे जेकाँ (छोट-छोट) अछि? ई राक्षस सब तऽ बड़ा भारी बलवान, योद्धा सब अछि? ताहि सँ हमरा हृदय मे बड़ा भारी सन्देह होएत अछि जे तोरा जेहेन बानर सब राक्षस सबकेँ केना जितबह?”
 
एतेक सुनिते देरी हनुमानजी अपन शरीर प्रकट कय देलखिन्ह। सोनाक पर्वत (सुमेरु) केर आकारक (अत्यंत विशाल) शरीर छल। जे युद्ध मे शत्रु केर हृदय मे भय उत्पन्न करयवला, अत्यंत बलवान्‌ और वीर छल। तखन से देखिकय सीताजीक मोन मे विश्वास भऽ गेलनि। हनुमानजी फेरो छोट रूप धारण कय लेलनि। कहलखिन, “हे माता! सुनू! बानर मे बहुत बल-बुद्धि नहि होएत छैक। मुदा प्रभुक प्रताप सँ बहुत छोट साँप सेहो गरुड़ तक केँ खा गेल करैत छैक।” यानि कि अत्यंत निर्बल सेहो महान्‌ बलवान्‌ केँ मारि सकैत अछि।
 
भक्ति, प्रताप, तेज और बल सँ सानल हनुमानजीक ओजपूर्ण वाणी सुनिकय सीताजीक मोन मे संतोष भेलनि। ओ श्री रामजीक प्रिय जानि हनुमान्‌जी केँ आशीर्वाद देलीह –
 
“हे तात! अहाँ बल और शील केर निधान होउ।
अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥२॥
 
हे पुत्र! अहाँ अजर (बुढ़ापा सँ रहित), अमर और गुण केर खान बनू। श्री रघुनाथजी अहाँ पर खूब कृपा करथि।”
 
‘प्रभु कृपा करथि’ एतबे बात कान सँ सुनिते हनुमान्‌जी पूर्ण प्रेम मे मग्न भऽ गेलाह।
 
बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता॥३॥
 
हनुमानजी बेर-बेर सीताजीक चरण मे सिर नमौलनि आर फेर हाथ जोड़िकय कहलखिन – “हे माता! आब हम कृतार्थ भऽ गेलहुँ। अहाँक आशीर्वाद अमोघ (अचूक) होइत अछि, से बात बहुत प्रसिद्ध छैक। हे माता! सुनू! सुन्दर फलवाला वृक्ष सबकेँ देखिकय हमरा बड जोर भूख लागि गेल अछि।”
 
सीताजी कहलखिन, “हे बेटा! सुनू, बड़ा भारी योद्धा राक्षस एहि वनक रखवाली करैत छैक।”
 
हनुमानजी कहलखिन, “हे माता! जँ अहाँ मोन मे सुख मानी त प्रसन्न भऽ कय आज्ञा दी, फेर हमरा ओकरा सभक डर त एकदम्मे नहि अछि।” आर फेर कि सब भेलय से अपने सब जनिते छी। क्रमशः…. फेरो कोनो दिन आन प्रसंग पर कहब।
 
हरिः हरः!!