ई पाप छियैक या पुण्य – दुविधा सँ ऊबार केना भेटत

एक मनोनुभूति

अपना सब बेसीकाल कोनो कर्म करय सँ पहिने पाप आ पुण्य केर पक्ष पर ध्यान दैत छियैक, किंवा दैत हेबय। हमर हाल एहि मादे बच्चे सँ द्वंद्वबन्धन मे फँसयवला होइत आयल अछि। ई शायद माँ-पिता आ परिजनक बेर-बेर टोकबाक कारण भेल, बच्चा मे बड बदमाशी करियैक…. आ बेर-बेर बात-कथा सुनैत-सुनैत ई हाल भ’ गेल होयत से आइ अन्दाज लगबैत छियैक। कुकर्म करब त ‘पाप लागत’। पाप नहि करबाक चाही। पुण्य जतेक बेसी हो से करू। सुकर्म कयला सँ पुण्य अर्जित करब। पुण्यहि सँ जीवनक सफलता सिद्ध होयत। आदि। ई मनोभाव हमरहि टा नहि, अपितु अहाँ सभक सेहो होइते टा होयत। एखनहुँ होइते अछि ई बात।

एहि सन्दर्भ मे स्वामी स्वरूपानन्दजीक लिखल एकटा बड शानदार पंक्ति (कमेन्ट्री, टिप्पणी) हमरा मोन पड़ैत अछि। श्रीमद्भागवद्गीताक प्रथम अध्याय मे अर्जुन अचानक शोक मे पड़ि जाइत छथि। हुनका लगैत छन्हि जे कौरव पक्ष सँ लड़ाई करब बेकार अछि। अपन लोक केँ मारनाय पाप मात्र के भागी बनायत। ओ ई बात श्रीकृष्ण सँ कहैत छथिन। ई श्लोक, एकर शाब्दिक अन्वय आ पूर्ण अनुवादित अर्थ अंग्रेजी मे जेना स्वामी स्वरूपानन्द लिखने छथि, जे हमरा बहुत प्रेरणा प्रदान करैत अछि, जेकर चर्चा हम अपन धियापुता सँ बेर-बेर करैत रहैत छी, अपने पाठक लोकनिक सोझाँ सेहो कइएक बेर पहिने सेहो चर्चा कएने रही… आइ फेर राखि रहल छी, जहिनाक तहिना।

निहत्य धार्तराष्ट्रात्रः का प्रीतिः स्याज्जनार्दनः।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः॥१-३६॥

जनार्दन The Destroyer of Asura, Jana; Or according to Shankara He that is prayed to by all for prosperity and salvation; Krishna धार्तराष्ट्रान् sons of Dhritrashta निहत्य killing नः ours का what प्रीतिः pleasure स्यात् would be एतान् these आततायिनः felons हत्वा by killing अस्मान् us पापम् sin एव surely आश्रयेत् would take hold

What pleasure indeed could be ours, O Janardana, from killing the sons of Dhritrashtra? Sin only could take hold of us by the slaying of these felons.

Felons: Atataayin, one who sets fire to the house of, administers poinson to, falls upon with sword on, steals the wealth, land and wife of, another person. Duryodhana did all these to the Pandava brothers. According to the Arthashastra, no sin is incurred by killing an Atataayin even if he be thoroughly versed in Vedanta. But Arjuna seems to argue, “True, there may not be incurred the particular sin of slaying one’s own kith and kin by killing the sons of Dhritrashtra in as much as they are Atataayin, but then the general sin of killing is sure to take hold of us, for the Dharmashastra which is more authoritative than the Arthashastra enjoins non-killing.”

एकर सम्पूर्ण मैथिली अनुवाद आइ नहि राखब। लेकिन समग्र मे एतय आयल एक-दुइ बात पर चर्चा करब। अर्जुन अपन भाइ सब केँ आततायी सम्बोधन कयलनि अछि। अर्थशास्त्र जेहेन नीति निरूपण करयवला अध्यादेश मुताबिक आततायी के रूप मे (१) दोसरक घर मे आगि लगेनिहार लोक, (२) दोसर केँ विष दय कय मारयवला लोक, (३) हथियार लय कय दोसरक बध करबाक लेल आतुर लोक, आ (४) दोसरक सम्पत्ति, जमीन अथवा धर्मपत्नी केँ चोरेनिहार (अपहरणकर्ता) लोक केर वर्णन आयल अछि। कहल गेल अछि, एहेन आततायी कतबो वेदान्ते कियैक नहि हुए, ओकर हत्या कयला सँ पाप नहि लगैत अछि।

लेकिन फेर तुरन्त धर्मशास्त्रक आख्यान दैत अर्जुनक कथन ‘एहि आततायी सब केँ मारला सँ पापे टा लागत’ केर औचित्य पर स्वामी स्वरूपानन्द अपन टिप्पणी रखलनि अछि। धर्मशास्त्र केँ अर्थशास्त्र सँ ऊपर मानलनि अछि। धर्मशास्त्र मे साधारण हत्या व हिन्सा केँ पाप मानल गेल अछि, ओ आततायी हुए या जे किछु… जीव हत्या पाप थिक से कहल गेल अछि। एहि आधार पर श्रीकृष्ण (जनार्दन) समक्ष अर्जुन पापक बोधरूप शोक प्रकट कयलनि अछि।

आब आउ अपना सब अपन जीवन मे। कतेको बेर दारू आ मांस भक्षण पर सवाल उठैत अछि जे ई घोर कुकर्म थिक। जखन कि ई पीनाय आ खेनाय आइ लोकसंस्कृतिक अभिन्न हिस्सा बनि गेल अछि। एकर व्याख्या पापाचार के बदला शिष्टाचार मे परिणति पेने पैघ-पैघ आयोजन मे देखि सकैत छी। आब उपरे मे वर्णि अर्थशास्त्र आ धर्मशास्त्र जेहेन दुइ दृष्टि सँ एकर विवेचना करब त एक बेर ई सही लागत, दोसर बेर ई गलत लागत। एहेन अवस्था मे कि करबाक चाही?

एकर जवाब हमरा भेटल स्वामी रामसुखदासजी महाराजक ‘शरणागति’ केर पाठ मे। ओतय बड़ा स्पष्ट रूप सँ कहल गेल अछि, गीताक अध्याय १८ के ६६वाँ श्लोकक सन्दर्भ दैत सहजता सँ एतेक बात बुझबैत जे अध्याय १ सँ १८ अध्याय धरि कुल ७०० श्लोकक वार्ता मे अन्तिम किछु श्लोक सँ पूर्व श्रीकृष्ण निर्णय दैत कहलखिन – सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज….!!

पूरा श्लोक एना अछिः

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ॥
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥

भगवानक शरण केँ प्राप्त करू आ एहि दुविधा सँ पूर्णरूपेण मुक्त रहू जे ई करब त पाप होयत, ई करब त पुण्य होयत… ध्यान मे एतबा राखब जे शरणागतिक पूर्णता यानि भगवान् पर पूर्ण निर्भरता केँ अहाँ प्राप्त भेल छी। आ, भगवान् पर निर्भरो छी आ फेर चिन्ता, भय, शंका, संकोच आदिक अवस्था मे पड़ैत छी त अपने सँ अपन सर्वसमर्थस्वामी ईश्वर पर शंका करैत छी जे बिल्कुल गलत अछि। आब हमरा बेसी किछु नहि कहबाक अछि। पाठक स्वयं बुधियार छथि जे लेखकक मनोभाव केँ पकड़ि लेल करैत छथि आ हुनकर लेख के मर्यादा केँ आत्मसात करैत लेखनी सकारथ करैत छथि। ॐ तत्सत्!!

हरिः हरः!!