हम आबि रहल छी – मैथिली धारावाहिक भाग ५ एवं ६

उपन्यास पर आधारित मैथिली धारावाहिक 

उपन्यासकारः रबीन्द्र नारायण मिश्र

हम आबि रहल छी- भाग 5

5

दुपहरिआमे  डेराक घंटी बाजल । हम औंघाइत रही । अकचका गेलहुँ । जाबे उठी-उठी ताबे तँ तरातर-तरातर कैकबेर घंटी बाजि गेल ।

“खोलि रहल छी ।”

हम ससरि कए केबार लग जाइत छी । केबार खोलबाक प्रयास करैत छी । ताबे बाहरसँ महिला स्वर सुनाइत अछि।

“केबार खोलबामे एतेक समय किएक लागि रहल अछि? अहाँ की कए रहल छी? ”

“की करब, सुता गेल रहए ।”

केबार खोलि दैत छिऐक । केबार खोलिते निशाकेँ देखैत छी । गोर-नार छओ फुटक धुआ । सुट-बुट पहिरने। बड़का-बड़का आँखि, चाकर ललाट । तामससँ लगैत छल जेना मुँहसँ बल दए खून बाहर भए जेतनि । हम केबार लगसँ सहटि जाइत छी । मुदा ओ अखनहु तमसाएले बुझाइत छथि ।

“अहाँसभ सहरमे रहए जोकर लोक नहि छी । एतेक कालसँ हम बाहर रौदमे ठाढ़ि छी, घंटीपर घंटी बजा रहल छी। मुदा अहाँकेँ कोनो असरिए नहि होइत अछि ।”

हम निशाकेँ सुनैत रहि जाइत छी । पहिल बेर हुनका देखि रहल छी । सुनने रहिऐक जे बहुत पढ़ल-लिखल आ विचारवान छथि । कोनो निजी कंपनीमे बड़का पदपर छथि । मूलतः केरलक छथि मुदा हुनकर परिवार बहुत दिनसँ दिल्लीमे बसि गेल छनि । शंकरक कालेजमे संगे पढ़ैत छलखिन । ओतहिसँ दुनूगोटेमे प्रेमक स्फुटन भेलनि जे कखन गाछ बनि गेलनि से नहि कही । एकहिटा बेटा छलाह। सोचने रही जे ई करब, ओ करब । सभटा सेहेंता धएले रहि गेल । तथापि संतोष केलहुँ जे कम सँ कम पढ़ल-लिखल पुतहु भेलथि । विचारवान हेतीह । मुदा अजुका दृश्य देखि-सुनि लगैत अछि जे सभटा सपने छल । कम सँ कम किछु धाख तँ करबाक छलनि । पहिल बेर ससुरसँ भेंट भेल रहनि । हम तँ अपने लाजे कठौत भेल रही । मुदा ओ…..। बाजब शुरु केलीह से बजिते रहि गेलीह । कोनो आदि-अंत नहि ।

निशा अपन शयनकक्षमे चलि जाइत छथि । मोबाइल फोन निकालैत छथि आ शंकरकेँ फोन करैत छथि ।

“हम एहि जाकर आदमी संगे एकदिन नहि रहि सकैत छी।”

“से की भेलैक?”

“हेतैक की। एकरा तँ कनिको समझ छैके नहि । एहनो मनुक्ख होइत छैक से हम नहि सोचि सकल रही ।

“भेलैक की?”

“एतेक रौदमे हम कोठरीक बाहर ठाढ़ि छलहुँ, घंटीपर-घंटी बजबैत रहलहुँ । मुदा ओ सुतल छलाह । कोनो असरे नहि । एहि बएसमे एहन मोट निन्न । सोचिओ नहि सकैत छी ।”

“थोड़े दिनक बात छैक । गामक जमीन जायदादकेँ खटिआ देबैक । तकर बाद जतए जेबाक हेतनि जेताह । हम कोनो ठीका लेने छिअनि । जखन मनुक्ख छथिहे नहि तखन…।”

“से तँ बुझलहुँ । मुदा एहन ने होअए जे अहाँक बाप ठामहि रहि जाथि आ हमही खटिआ जाइ ।”

“जाए दिअ । एहनो केओ बजैत अछि । बेसी सँ बेसी मास दिन नहि तँ दू मास । ओतबे दिनमे सभटा ठीक भए जेतैक । एहि बीचमे हमरासभकेँ बुधिआरीसँ रहबाक होएत । बूढ़ा कहीं बिदकि ने जाथि, से देखब ।”

“मुदा दू माससँ एकदिन बेसी हम हिनका नहि सहि सकब। से साफे सुनि लिअ । बादमे हमरा नहि कहब।”

“अहाँ निश्चिंत रहू । एमहर गामक काज भेल आ ओमहर हिनका वृंदावन जेबाक ओरिआन भए जेतनि ।”

हम दोसर कोठरीमे सोफापर बैसल फोनमे भए रहल वार्तालापकेँ सुनैत रहलहुँ । रोंआ ठाढ़ भए गेल । देह-हाथ काँपए लागल । मोने-मोन सोचाइत छल –

“सएह कहू । केहन भारी साजिस केने अछि ई छौंड़ा । हम तँ गामसँ डेग बाहर धरै नहि चाहैत छलहुँ । मुदा असगर रहैत-रहैत तंग भए गेल रही ।”

भेलैक ई जे हुनका (पत्नी) संगे चारूधामक यात्रापर गेल रही । गामक बहुत रास लोकसभ जाइत रहैक । ओ बहुत जोर देलथि ।

“चलू हमहु सभ तीर्थ कए अबैत छी । जीवनक कोन ठेकान । नीक काज जखने भए जाए सएह भाग्यक बात । अखन मौका अछि । गामक लोकसभ संगे रहत । बादमे के देखलक अछि।”

“बात तँ सही कहि रहल छी । अखन तँ चलिओ फिरि लैत छी । बादमे ताहु जोकर रहब की नहि से के जनैत अछि? ”

“सएह तँ कहैत छी ।”

दुनूगोटे तैयारीमे लागि गेलहुँ । लगपासक कैकगोटे संगे जा रहल छलाह । तेँ बेसी चिंताक बात नहि रहैक । शंकरकेँ जखन पता लगलनि ताधरि हमसभ गामसँ निकलि चुकल रही । ओ अपना भरि बहुत प्रयास केलथि जे हमसभ घुरि जाइ । “मौसम ठीक नहि चलि रहल छैक । कहाँदनि मौसम विभाग चेतौनी देलकैक अछि जे किछुदिनमे पहाड़पर अनर्थ भए सकैत अछि ।” मुदा हमसभ हुनकर बातपर ध्यान नहि देलहुँ आ अपन रस्ता चलैत रहलहुँ । बहुत दिनक बात लागल जेना एकटा नवीन जीवन जीवि रहल छी। भोरे उठी । स्नान-ध्यान कए आगूक यात्राक ओरिआनमे लागि जाइ। चलैत-चलैत हमसभ गंगोत्री पहुँचलहुँ । हुनकर प्रसन्नताक तँ  अंते नहि रहनि । जेना आनंदक वर्षा भए रहल छल। चारूकात बर्फ खसि रहल छलैक । ठंढसँ हाथ-पैर जाम भए गेल छल । धुंध ततेक भयानक छल के एकहाथ फटकी नहि देखा रहल छल । हम तँ फटकिएसँ गंगाकेँ प्रणाम कए बैसि गेलहुँ । मुदा ओ नहि मानलीह । एहनो मौसममे गंगा स्नान करए चलि गेलीह । गंगाक पानि बहुत ठंढा छल । कहुना कए स्नान केलीह । तकरबाद डिब्बामे गंगाजल भरए लगलीह । हुनकर हाथ सर्द भए गेल रहनि। देहक संतुलन गड़बड़ा गेलनि । देखिते-देखिते पानिक तेज बहावमे ओ कतएसँ कतए चलि गेलीह। हम कातमे ठाढ़ देखैत रहि गेलहुँ। मुदा किछु नहि कए सकलहुँ । लोकसभ हाहाकार करैत रहि गेल । मुदा ककरो साहस नहि भेलैक जे गंगामे हुनका निकालबाक प्रयास करए । थोड़बे काल मे ओ अदृश्य भए गेलीह । हम छटपटा कए रहि गेलहुँ । घंटो असहाय भेल कनैत रहि गेलहुँ । लगपासमे लोकसभकेँ गोहार लगबैत रहि गेलहुँ । मुदा केओ किछु नहि कए सकल । पंडासभ कहए लागल – “हुनकर तँ अहो भाग्य । हुनका गंगा लाभ भेलनि । एहन मृत्यु तँ सभकेँ होउ। हम तीनदिन ओतए रहि गेलहुँ । मुदा किछु नहि भेल। आब हेबो की करैत? तकर बाद असगर वापस विदा भेलहुँ । गौंवासभ आगू बढ़ि गेलाह । हमरा साहस नहि रहि गेल जे आगू तीर्थ यात्रा करी । जेना-तेना पनरह दिनक बाद गाम वापस आएल छलहुँ की शंकरक फोन आएल। एहि दुर्घटनासँ ओ बहुत आहत बुझेलाह । हमरा वारंबार आग्रह केलथि जे दिल्ली आबि जाइ । असगर गाममे रहब ठीक नहि । हम आहत तँ रहबे करी । हुनकर बात मानि दिल्ली आबि गेलहुँ । आबि तँ गेलहुँ । मुदा एहिठाम तँ हाले बेहाल अछि ।

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हम आबि रहल छी- भाग ६

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साँझमे शंकर डेरा अएलाह । हुनकर पाछू लागल निशा सेहो अएलीह । दुनूगोटे हमरा लग सोफापर बैसि जाइत छथि। शंकर पुछैत छथि-

“कोना छी बाबू?

“की रहब? हमर मोन एहिठाम नहि लागि रहल अछि । कहुना गाम पहुँचा दएह ।”

“से किएक?”

“सभदिन गाममे उन्मुक्त वातावरणमे रहलहुँ । केओ ने केओ भेटैत रहैत छल । एहिठाम एसगर एकटा कोठरीमे बंद पड़ल रहैत छी । ने ककरोसँ भेंट ने गप्प-सप्प । एनामे तँ पागल भए जाएब ।”

“अहाँ चिंता नहि करू । थोड़े दिनक बाद हमसभ नव मकानमे चलि जाएब। जमीनपर तीनतल बनल मकान सस्तेमे भेटि रहल अछि । ओहिठाम गामे जकाँ सभटा सुबिधा रहतैक। अफरात रौद-हवा, शुद्ध भोजन आ अपना दिसका लोकसभ सेहो भेटत । अपना सभदिसक बहुत लोक ओहि लगपासमे रहैत छथि ।”

“कतेक दाम लगतह?”

“अहाँ तकर चिंता किएक करैत छी । हमसभ सभटा जोगार कए लेबैक । थोड़ बहुत घटतैक तँ गामसँ समाबेस कएल जेतैक ।”

“गाममे कतएसँ टाका आओत । ओहिठामक जमीनक केओ किननाहर नहि भेटत आ जँ केओ भेटिओ जाएत तँ गरजू बूझि औने-पौने दाममे चाहत जे किनि ली । फेर अखन तँ हम जीविते छी । जाबे हम छी ताबे गामक चीज-वस्तुकेँ बचओने रहब ठीक होएत । जीवनक कोन ठेकान थिक? कतेक दिन जिअब? ”

“तेँ ने फैलसँ घर लए रहल छी । जतए मोन होएत, जेना मोन होएत रहब । कोनो चीजक कोनो कमी नहि रहत।”

“कतेक दाम लागि रहल छह?”

“तीन करोड़मे बनल-बनाएल जमीनपर तीन तल मकान छैक । एक करोड़ तँ हमसभ जेना-तेना दए देबैक। एक करोड़ कर्जो भेटि जाएत । रहि गेल एक करोड़, से तँ गामोसँ निकलि जाएत ।”

“गाम-गाम रटलासँ किछु नहि होएत । फेर गामक चीज-वस्तु कोनो तोरे थोड़े हेतह । आब समय बदलि गेलैक अछि । कानून बदलि गेलैक अछि । बेटा-बेटीक पैतृक संपत्तिमे बरोबरिक हक हेतैक । जतबे तोहर हिस्सा हेतह ततबे हीराक हेतैक । मुदा ओ सभ तँ बादक बात भेल, अखन तँ हम स्वयं जीबि रहल छी ।”

हमरा मुँहसँ हीराक नाम खसिते शंकरक देहमे आगि लागि गेलैक ।

“अहाँकेँ तँ खाली हीरा मोन पड़ैत रहैत अछि । जेना हम अहाँक केओ हेबे नहि करी । जखन मोन एहन अशुद्ध अछि तखन शांति भेटत कोना?”

“हम तँ अहाँकेँ पहिने कहैत रही जे अहाँ हिनकर चक्करमे नहि पड़ू । मुदा अहाँ तँ अपने दुनिआमे रहैत छी । आब लिअ। जेहो टाका छल सेहो फँसा लेलहुँ । केहन बढ़िआँ केन्द्रीय विहारक फ्लैट देखने रही । जतबे टाका अपनासभक लग छल ओहीमे सभटा काज भए जाइत । दुनूगोटे चैनसँ रहितहुँ । मुदा अहाँकेँ तँ सदिखन गाम आ पिताश्री सोचाइत रहैत छथि । तखन लिअ । आब तँ गेल महीष पानिमे परड़ु समेत ।”- निशा बाजलि।

“तूँ सभ जे एतेक अड़-बड़ बाजि रहल छह तकर निहितार्थ हम बूझि रहल छी । हम कोनो बौक-बहिर नहि छी । मुदा हम जाबे जिअब ताबे बाप-दादाक निसानीकेँ नहि मिटा सकैत छी । चाहे जान रहए की जाए ।”

“जैँ एहन बुद्धि अछि तेँ ने एहन गति अछि । गाममे केओ मोजरो करैत अछि ? कहिओ टगि जाएब केओ लहासो उठओनिहारो नहि भेटत । देआद देआदे होइत छैक ।”

“से जे होएत । हम आब एहिठाम एक मिनट नहि रहि सकैत छी । हमरा तुरंत गाम वापस लए चलह । नहि तँ… ”

“नहि तँ की करब? हमर जान लए लेब की? ”

“अहाँ बेकारे हिनकासँ मुँह लगबैत छी । गामक जमीन कोनो हिनके तँ छनि नहि । हमरो लोकनिक अधिकार अछि । हमसभ अपन हिस्साकेँ जे मोन होएत से करब । हिनकासँ पुछबाक कोन काज?” – निशा बजैत अछि ।

“गाममे रहए की? जेहो किछु रहए से भरना राखल छल। हम अपन छोटेसन नौकरीसँ सभटा भरना छोड़ेलहुँ। साले-साल जमीन किनलहुँ । गाममे घर बनेलहुँ । तोरा आ हीराकेँ पढ़ओलहुँ। कन्यादान केलहुँ । तखन आब किछु कहबैत छी । तूँ सभ की केलह अछि जे अधिकार सुना रहल छह ।”

क्रमश: माहौल गरमाइते गेल । हमरा ततेक जोर तामस भेल जे लागए जे माथ फाटि जाएत । रक्तचाप आकाश लागि गेल। हमर हालत खराप होइत देखि निशा केबार  खोलि कतहु चलि गेलि आ शंकर दोसर कोठरीमे कार्यालय जेबाक तेयारीमे लागि गेल। हम बेहोस सोफापर पड़ल रहलहुँ ।

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