स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
श्री राम-भरत-संवाद, पादुका प्रदान, भरतजीक बिदाइ
१. ऐगला (छठम्) दिन भोरे स्नान कयकेँ भरतजी, ब्राह्मण समाज, राजा जनक और अन्य समस्त समाज आबि जुटलथि। आइ सबकेँ विदा करबाक लेल नीक दिन अछि, ई मोन मे जानि कृपालु श्री रामजी कहय मे सकुचा रहल छथि। श्री रामचन्द्रजी गुरु वशिष्ठजी, राजा जनकजी, भरतजी और समस्त सभा दिश देखलनि, लेकिन फेर सकुचाकय दृष्टि फेरि ओ पृथ्वी दिश ताकय लगलथि। सभा हुनकर शील केर सराहना कयकेँ सोचैत अछि जे श्री रामचन्द्रजीक समान संकोची स्वामी कतहु नहि छथि।
२. सुजान भरतजी श्री रामचन्द्रजीक रुइख देखिकय प्रेमपूर्वक उठिकय, विशेष रूप सँ धीरज धारण करैत दण्डवत कयकेँ हाथ जोड़िकय कहय लगलाह – हे नाथ! अपने हमर सबटा रुचि अपने रखलहुँ, हमरा लेल सब गोटे संताप सहलहुँ आर अपने सेहो बहुतो प्रकार सँ दुःख पेलहुँ। आब स्वामी हमरा आज्ञा दिअ। हम जाकय अवधि भरि (चौदर वर्ष) अवध केर सेवन करी। हे दीनदयालु! जाहि उपाय सँ ई दास फेर चरणक दर्शन करय – हे कोसलाधीश! हे कृपालु! अवधि भरि लेल हमरा वैह शिक्षा दिअ। हे गोसाईं! अपनेक प्रेम आर सम्बन्ध मे अवधपुर वासी, कुटुम्बी एवं प्रजा सब पवित्र आ रस (आनन्द) सँ युक्त छथि। अपनेक वास्ते भवदुःख (जन्म-मरण के दुःख) केर ज्वाला मे जरनाइयो नीके अछि आ प्रभु अहाँ बिना परमपद (मोक्ष) केर लाभ सेहो व्यर्थ अछि। हे स्वामी! अपने सुजान छी, सभक हृदयक आर हम सेवकक मोनक रुचि, लिलसा (अभिलाषा) आ रहनी जानिकय, हे प्रणतपाल! अपने सभक पालन करब आ हे देव! दुनू दिश अन्त धरि निबाहब। हमरा सब तरहें एहेन बहुते रास भरोस सब अछि। विचार कयला पर कनिकबो सोच नहि रहि जाइछ। हमर दीनता आ स्वामीक स्नेह दुनू मिलिकय हमरा जबर्दस्ती ढीठ बना देलक अछि। हे स्वामी! एहि पैघ दोष केँ दूर कयकेँ संकोच त्यागैत हम सेवक केँ शिक्षा दिअ।
३. दूध आ जल केँ अलग-अलग करय मे हंसिनी जेहेन गतिवला भरतजीक विनती सुनिकय सब प्रशंसा कयलनि। दीनबन्धु आर परम चतुर श्री रामजी भाइ भरतजीक दीन और छलरहित वचन सुनिकय देश, काल आर अवसरक अनुकूल वचन बजलाह – हे तात! अहाँ, हमर, परिवारक, घरक आ वन के सबटा चिन्ता गुरु वशिष्ठजी आर महाराज जनकजी केँ छन्हि। अपना लोकनिक माथ पर जखन गुरुजी, मुनि विश्वामित्रजी और मिथिलापति जनकजी छथि, तखन हमरा आ अहाँ केँ सपनहुँ मे क्लेश नहि अछि। हमर आर अहाँक त परम पुरुषार्थ, स्वार्थ, सुयश, धर्म और परमार्थ एतबहि मे अछि जे हम दुनू भाइ पिताजीक आज्ञाक पालन करी। राजाक भलाइ ओकर व्रत केर रक्षा सँ लोक आ वेद दुनू मे भलाइ छैक। गुरु, पिता, माता और स्वामीक शिक्षा (आज्ञा) केँ पालन कयला सँ कुमार्गहु पर चलला सँ पैर खधहा मे नहि पड़ैत छैक, पतन नहि होइत छैक। एना विचारिकय सब सोच छोड़ि अवध जाकय अवधि भरि ओकर पालन करू। देश, खजाना, कुटुम्ब, परिवार आदि सभक जिम्मेदारी त गुरुजीक चरण रज पर अछि। अहाँ बस मुनि वशिष्ठजी, माता लोकनि आर मन्त्री लोकनिक शिक्षा मानिकय तदनुसार पृथ्वी, प्रजा आ राजधानीक पालन (रक्षा) टा करैत रहब।
४. तुलसीदासजी कहैत छथि जे श्री रामजी कहलनि – मुखिया मुख समान हेबाक चाही, जे खाय-पीबय लेल अकेले होइछ, मुदा विवेकपूर्वक सब अंग केर पालन-पोषण करैत अछि। राजधर्म केर सर्वस्व (सार) सेहो एतबे मात्र छैक। जेना मोनक भीतर मनोरथ नुकायल रहैत छैक।
५. श्री रघुनाथजी भाइ भरतजी केँ बहुतो प्रकारें बुझेलनि, मुदा कोनो अवलम्बन पेने बिना हुनकर मोन मे नहिये सन्तोष भेलनि आ न शान्ति। एम्हर भरतजीक शील (प्रेम) आर ओम्हर गुरुजन लोकनि, मंत्री लोकनि तथा समाजक उपस्थिति! ई देखिकय श्री रघुनाथजी संकोच तथा स्नेह केर विशेष वशीभूत भ’ गेलथि। आखिर (भरतजीक प्रेमवश) प्रभु श्री रामचन्द्रजी कृपा कयकेँ खड़ाम दय देलनि आ भरतजी से आदरपूर्वक माथ पर धारण कय लेलनि।
६. करुणानिधान श्री रामचंद्रजीक दुनू खड़ाम प्रजाक प्राण केर रक्षा लेल मानू दुइ पहरेदार थिक। भरतजीक प्रेमरूपी रत्न लेल मानू डिब्बा थिक आ जीव केर साधनक लेल मानू राम-नाम केर दुइ अक्षर थिक। रघुकुलक रक्षा लेल दुइ केवाड़ थिक। कुशल (श्रेष्ठ) कर्म करबाक लेल दुइ हाथक समान सहायक अछि आर सेवारूपी श्रेष्ठ धर्म सुझेबाक लेल निर्मल नेत्र थिक।
७. भरतजी एहि अवलंब केर भेटि गेला सँ परम आनन्दित छथि। हुनका एहेन सुख भेलनि जेना श्री सीता-रामजीक रहला सँ होइत छन्हि। भरतजी प्रणाम करैत विदाइ मांगलनि, तखन श्री रामचंद्रजी हुनका हृदय सँ लगा लेलनि।
८. एम्हर कुटिल इंद्र खराब मौका पाबिकय लोक सब केँ उच्चाटन कय देलनि। ओ कुचालियो सभक लेल हितकर भ’ गेलैक। अवधि केर आशा समान ओ जीवन लेल संजीवनी भ’ गेलैक। उच्चाटन नहि होइतैक त लक्ष्मणजी, सीताजी और श्री रामचंद्रजीक वियोगरूपी खराब रोग सँ सब गोटे घबड़ाकय हाय-हाय करैत मरिये टा जइतैक।
९. श्री रामजीक कृपा सब उलझन सुधारि देलक। देवता लोकनिक सेना जे लूटय आयल छलथि, वैह गुणदायक (हितकारी) आ रक्षक बनि गेल। श्री रामजी गला लगाकय भरत सँ भेटि रहल छथि। श्री रामजीक प्रेम केर ओ रस (आनंद) केर वर्णन करैत नहि बनैछ। तन, मन और वचन तीनू मे प्रेम उमड़ि पड़ल। धीरज के धुरी केँ धारण करनिहार श्री रघुनाथजी पर्यन्त धीरज त्यागि देलनि। ओ कमल सदृश नेत्र सँ (प्रेमाश्रुक) जल बहाबय लगलाह। हुनकर ई दशा देखिकय देवता लोकनिक समाज दुःखी भ’ गेलाह। मुनिगण, गुरु वशिष्ठजी और जनकजी जेहेन धीरधुरन्धर जे अपना मोन केँ ज्ञानरूपी अग्नि मे सोना समान कसि चुकल छथि, जिनका ब्रह्माजी निर्लेप अवस्था मे रचलनि आर जे जगत् रूपी जल मे कमल केर पत्ता जेकाँ जगत् मे रहितहु जगत् सँ अनासक्त जन्म लेलनि, ओहो लोकनि श्री रामजी और भरतजीक उपमारहित अपार प्रेम केँ देखिकय वैराग्य और विवेक सहित तन, मन, वचन सँ ओहि प्रेम मे मग्न भ’ गेलथि।
१०. जतय जनकजी और गुरु वशिष्ठजीक बुद्धिक गति कुण्ठित भ’ गेलनि, ताहि दिव्य प्रेम केँ प्राकृत (लौकिक) कहब त भारी दोष लागत। श्री रामचंद्रजी और भरतजीक वियोग केर वर्णन करैत सुनि लोक सब कवि केँ कठोर हृदय बुझत। ओ संकोच रस अकथनीय अछि। अतएव कविक सुन्दर वाणी ताहि घड़ी हुनक प्रेम केँ स्मरण करैत सकुचा गेलाह।
११. भरतजी सँ भेंट करैत श्री रघुनाथजी हुनका खूब बुझौलनि। फेर हर्षित भ’ कय शत्रुघ्नजी केँ हृदय सँ लगा लेलनि। सेवक और मंत्री भरतजीक रुइख पाबि सब अपन-अपन काज मे लागि गेलथि। ई सुनिकय दुनू समाज मे दारुण दुःख पसरि गेल। सब कियो चलबाक तैयारी करय लगलाह।
१२. प्रभुक चरणकमल केर वन्दना कयकेँ तथा श्री रामजीक आज्ञा केँ सिर पर राखि भरत-शत्रुघ्न दुनू भाइ चलि देलाह। मुनि, तपस्वी आर वनदेवता सबकेँ बेर-बेर सम्मान कयकेँ सभक विनती कयलनि दुनू भाइ। फेर लक्ष्मणजी केँ क्रमशः भेंट कयकेँ तथा प्रणाम कयकेँ सीताजीक चरणक धूलि केँ सिर पर धारण करैत और समस्त मंगलक मूल आशीर्वाद सुनिकय ओ लोकनि प्रेमसहित चलि पड़लाह।
१३. छोट भाइ लक्ष्मणजी समेत श्री रामजी राजा जनकजी केँ सिर नमाकय हुनकर बहुतो तरहें विनती और बड़ाई करैत कहलखिन्ह – हे देव! दयावश अपने बहुते दुःख पेलहुँ। अपने समाज सहित वन मे एलहुँ। आब आशीर्वाद दय कय नगर केँ पधारू। ई सुनि राजा जनकजी सेहो धीरज धय कय गमन कयलनि। फेर श्री रामचंद्रजी मुनि, ब्राह्मण आर साधु सब केँ विष्णु और शिव समान जानिकय सम्मान करैत हुनको सब केँ विदा कयलनि। तखन श्री राम-लक्ष्मण दुनू भाइ सासु (सुनयनाजी) लग गेलाह आर हुनकर चरणवन्दना कय आशीर्वाद पाबि लौटि गेलाह। फेर विश्वामित्र, वामदेव, जाबालि आर शुभ आचरण वला समस्त कुटुम्बी, नगरनिवासी आर मंत्री – सबकेँ छोट भाइ लक्ष्मणजी सहित श्री रामचंद्रजी यथायोग्य विनय एवं प्रणाम कयकेँ विदा कयलनि।
१४. कृपानिधान श्री रामचंद्रजी छोट, माझिल आ पैघ सब श्रेणीक स्त्री-पुरुष केँ सम्मान कयकेँ सबकेँ लौटेलनि। भरत केर माता कैकेइ केर चरणक वन्दना कयकेँ प्रभु श्री रामचंद्रजी पवित्र (निश्छल) प्रेम सहित हुनका सँ मिलि-भेटि आ हुनकर समस्त संकोच-सोच सब मेटाकय पालकी सजाकय विदा कयलनि।
१५. प्राणप्रिय पति श्री रामचंद्रजीक संग पवित्र प्रेम करयवाली सीताजी नैहरक कुटुम्बी सँ तथा माता-पिता सँ भेटिकय लौटि गेलीह। फेर प्रणाम कयकेँ सब सासु लोकनि सँ गला लागिकय मिललीह। हुनकर प्रेम केर वर्णन करबाक लेल कविक हृदय मे हुलास (उत्साह) नहि होइत अछि। सासु-माता-कुटुम्बी आदिक शिक्षा सुनि आर मनचाहा आशीर्वाद पाबि सीताजी सासु लोकनि आर माता-पिता दुनू दिशक प्रीति मे हेरायल रहलीह।
१६. तखन श्री रघुनाथजी सुन्दर पालकी मँगबौलनि आर सब माता लोकनि केँ आश्वासन दय कय ओहि पर चढ़ौलनि। दुनू भाइ माता सब सँ समान प्रेम संग बेर-बेर मिलि-जुलि हुनका पहुँचौलनि। भरतजी आर राजा जनकजीक दल केर घोड़ा, हाथी आ अनेकों तरहक सवारी सब सजाकय प्रस्थान केलक।
१७. सीताजी एवं लक्ष्मणजी सहित श्री रामचंद्रजी केँ हृदय मे राखि सब कियो बेसुध भेल चलल जा रहल छथि। बरद-घोड़ा, हाथी आदि पशु सब सेहो हृदय मे हारल (शिथिल भेल) परवश मोनक मारल चलल जा रहल अछि।
१८. गुरु वशिष्ठजी और गुरु पत्नी अरुन्धतीजीक चरणक वन्दना कयकेँ सीताजी और लक्ष्मणजी सहित प्रभु श्री रामचंद्रजी हर्ष तथा विषादक संग लौटिकय पर्णकुटी पर आबि गेलाह। फेर सम्मान कयकेँ निषादराज केँ विदा कयलनि। ओ चलला त सही, मुदा हुनक हृदय मे विरहक भारी विषाद छलन्हि। फेर श्री रामजी कोल, किरात, भील आदि वनवासी सब केँ सेहो लौटेलनि। ओहो सब जोहार-जोहार कय (वंदना कय-कयकेँ) लौटि चललाह।
१९. प्रभु श्री रामचंद्रजी, सीताजी और लक्ष्मणजी बरगद गाछक छाहरि मे बैसिकय प्रियजन एवं परिवारक वियोग सँ दुःखी भ’ रहल छथि। भरतजीक स्नेह, स्वभाव आर सुन्दर वाणी केँ बखानि-बखानि ओ प्रिय पत्नी सीताजी आर छोट भाइ लक्ष्मणजी सँ कहय लगलाह। श्री रामचंद्रजी प्रेमक वश भ’ कय भरतजीक वचन, मन, कर्म केर प्रीति तथा विश्वास केँ अपन श्रीमुख सँ वर्णन कयलनि। ताहि समय पक्षी, पशु आर जलक मछरिया, चित्रकूट केर सब चेतन आर जड़ जीव उदास भ’ गेल।
२०. श्री रघुनाथजीक दशा देखिकय देवता लोकनि हुनका उपर फूल बरसाकय अपन घर-घर केर दशा कहिकय दुखड़ा सब सुनौलनि। प्रभु श्री रामचंद्रजी हुनका लोकनि केँ प्रणाम करैत आश्वासन देलनि। तखन ओ सब प्रसन्न भ’ कय चलि पड़लाह, मोन मे कनिकबो डर नहि रहलनि।
हरिः हरः!!