स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
भरतजीक तीर्थजल केर स्थापन तथा चित्रकूट भ्रमण
१. (श्री रामचन्द्रजीक आज्ञा भेलाक बाद) अत्रिजी भरतजी सँ कहलखिन – एहि पहाड़क कात मे एकटा सुन्दर इनार अछि। अहाँ ई पवित्र, अनुपम आ अमृत जेहेन तीर्थजल केँ ओहि मे स्थापित कय देल जाउ।
२. भरतजी अत्रिमुनिक आज्ञा पाबि जल केर सब पात्र ओहिठाम पठबा देलनि आ छोट भाइ शत्रुघ्न, अत्रि मुनि तथा अन्य साधु-संत संग स्वयं सेहो ओतय गेलाह जतय ओ अथाह इनार छल। तीर्थ सब सँ आनल ओहि पवित्र जल केँ ओहि पुण्य स्थल मे राखि देलनि।
३. अत्रि ऋषि प्रेम सँ आनन्दित भ’ कहलखिन – हे तात! ई अनादि सिद्धस्थल थिकैक। कालक्रम सँ ई लोप भ’ गेल छलैक। ताहि लेल केकरो एकर पता नहि छलैक। भरतजीक सेवक लोकनि ओहि जलयुक्त स्थान केँ देखलनि आर ओहि सुन्दर (तीर्थ सभक) जल वास्ते एकटा खास इनार ओतहि खुनलनि। दैवयोग सँ विश्वभरिक उपकार भ’ गेलैक। धर्म केर विचार जे अत्यन्त अगम छल, ओ एहि कूप केर प्रभाव सँ सुगम भ’ गेल। आब लोक सब एकरा भरतकूप कहता। तीर्थ केर जलक संयोग सँ त ई आरो पवित्र भ’ गेल अछि। एहि मे प्रेमपूर्वक नियम सँ स्नान कयला पर प्राणी मन, वचन आर कर्म सँ निर्मल भ’ जेताह।
४. कूप केर महिमा कहैते सब गोटे ओतय गेलाह जतय श्री रघुनाथजी रहथि। श्री रघुनाथजी केँ अत्रिजी ओहि तीर्थक पुण्य प्रभाव सुनौलनि। प्रेमपूर्वक धर्म केर इतिहास कहैत ओ राति सुखपूर्वक बीति गेल आ भोर भ’ गेल। भरत-शत्रुघ्न दुनू भाइ नित्यक्रिया पूरा कयकेँ, श्री रामजी, अत्रिजी आर गुरु वशिष्ठजीक आज्ञा पाबि समाज सहित सब सादा साज सँ श्री रामजीक वन मे भ्रमण (प्रदक्षिणा) करय लेल पैदले चलि पड़लाह।
५. कोमल चरण छन्हि आर बिना जूता के चलि रहल छथि, ई देखिकय पृथ्वी मनहि-मन सकुचाइत स्वयं कोमल भ’ गेलीह। कुश, काँट, कंकड़, दरार आदि कड़ा, कठोर आर खराब वस्तु सबकेँ नुकाकय पृथ्वी सुन्दर आर कोमल मार्ग बना देलीह। सुख केँ संग लेने शीतल, मंद, सुगंध हवा चलय लागल।
६. रस्ता मे देवता लोकनि फूल बरसाकय, बादल सब छाहरि कयकेँ, वृक्ष फुला-फला केँ, घास अपन कोमलता सँ, मृग (पशु) सब देखिकय आर पक्षी सब सुन्दर वाणी बाजिकय सब कियो भरतजी केँ श्री रामचन्द्रजीक प्रिय बुझैत हुनक सेवा करय लगलथि। जखन कोनो साधारणो मनुष्य केँ आलसो सँ, हाफियो लैत घड़ी, मुंह सँ ‘राम’ कहा गेला सँ सब सिद्धि सुलभ भ’ जाइत छैक, तखन त श्री रामचन्द्रजी केँ प्राणक प्रिय भरतजी लेल ई कोनो भारी आश्चर्यक बात नहि छलन्हि।
७. एहि तरहें भरतजी वन मे घुमि रहल छथि। हुनकर नियम आ प्रेम देखिकय मुनि सब सेहो सकुचा जाइत छथि। पवित्र जल केर स्थान (नदी, पोखरि, कुंड आदि) पृथ्वीक पृथक-पृथक भाग, पक्षी, पशु, वृक्ष, तृण (घास), पर्वत, वन आर बगीचा – सब विशेष रूप सँ सुन्दर, विचित्र, पवित्र आर दिव्य देखिकय भरतजी पुछैत छथि आर हुनकर प्रश्न सुनिकय ऋषिराज अत्रिजी प्रसन्न मन सँ सभक कारण, नाम, गुण आ पुण्य प्रभाव केँ कहैत छथि।
८. भरतजी कतहु स्नान करैत छथि, कतहु प्रणाम करैत छथि, कतहु मनोहर स्थान केर दर्शन करैत छथि आर कतहु मुनि अत्रिजीक आज्ञा पाबि बैसिकय, सीताजी सहित श्री राम-लक्ष्मण दुनू भाइ लोकनिक स्मरण करय लगैत छथि। भरतजीक स्वभाव, प्रेम आर सुन्दर सेवाभाव केँ देखिकय वनदेवता आनन्दित होइत आशीर्वाद दैत छथिन। एना घुमैत-फिरैत अढाइ पहर दिन बीति गेलाक बाद घुमि जाइत छथि आर आबिकय प्रभु श्री रघुनाथजीक चरणकमल केर दर्शन करैत छथि।
९. भरतजी पाँच दिन मे सब तीर्थ स्थान सभक दर्शन कय लेलनि। भगवान विष्णु आर महादेवजीक सुन्दर यश कहैत-सुनैत ओ पाँचमो दिन बीति गेल, साँझ पड़ि गेल।
हरिः हरः!!