रामचरितमानस मोतीः श्री राम-भरत संवाद

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

श्री राम भरत संवाद

श्री रामचन्द्रजी की शपथ (रामचरितमानस मोतीः जनक-वशिष्ठादि संवाद, इन्द्रक चिन्ता आ सरस्वती द्वारा सीख

https://maithilijindabaad.com/?p=20098) सुनिकय सभा समेत मुनि आर जनकजी सकुचा गेलाह, स्तम्भित रहि गेलाह। किनको सँ उत्तर दैत नहि बनैत अछि, सब कियो भरतजीक मुंह ताकि रहल छथि।

१. भरतजी सभा केँ संकोचक वश देखलन्हि। रामबंधु (भरतजी) तखन अत्यन्त धीरज धरैत आ कुसमय देखि अपन उमड़ैत प्रेम केँ सेहो सम्हारलनि। जेना बढ़ैत विन्ध्याचल केँ अगस्त्यजी रोकने रहथि, शोक रूपी हिरण्याक्ष (समस्त सभाक) बुद्धि रूपी पृथ्वी केँ हरि लेने छल जे विमल गुण समूहरूपी जगत केर योनि (उत्पन्न करयवला) छल,  भरतजीक विवेक रूपी विशाल वराह (वराह रूप धारी भगवान) द्वारा (शोक रूपी हिरण्याक्ष केँ नष्ट करैत) बिना परिश्रमहि ओकर उद्धार कय देलनि!

२. भरतजी प्रणाम कयकेँ सभक प्रति हाथ जोड़ि आ श्री रामचन्द्रजी, राजा जनकजी, गुरु वशिष्ठजी तथा साधु-संत सब सँ विनती कयलनि आ कहला –

“आइ हमर एहि अत्यन्त अनुचित बर्ताव केँ क्षमा करब। हम कोमल (छोट) मुंह सँ कठोर (धृष्टतापूर्ण) वचन कहि रहल छी।”, फेर ओ हृदय मे सुहावनी सरस्वतीजीक स्मरण कयलनि, सरस्वतीजी मानस सँ (अपन मनरूपी मानसरोवर सँ) हुनक मुखारविंद पर आबि विराजलीह।

३. निर्मल विवेक, धर्म और नीति सँ युक्त भरतजीक वाणी सुन्दर हंसिनी समान गुण-दोष केर विवेचन करयवाली अछि। विवेक केर नेत्र सँ सारा समाज केँ प्रेम सँ शिथिल देखि, सब केँ प्रणाम कय, श्री सीताजी और श्री रघुनाथजीक स्मरण कय केँ भरतजी बजलाह –

“हे प्रभु! अहाँ पिता, माता, सुहृद् (मित्र), गुरु, स्वामी, पूज्य, परम हितैषी और अन्तर्यामी छी। सरल हृदय, श्रेष्ठ मालिक, शील के भंडार, शरणागत के रक्षा करय वला, सर्वज्ञ, सुजान, समर्थ, शरणागत केर हित करयवला, गुण केर आदर करय वला आर अवगुण तथा पाप केँ हरय वला छी।

हे गोसाईं! अहाँ जेहेन स्वामी अहीं टा छी आर स्वामीक संग द्रोह करय मे हमरा जेकाँ हमहीं टा छी। हम मोहवश प्रभु केँ आर पिताजीक वचन केँ उल्लंघन कय आर समाज केँ संग लय एतय आबि गेल छी।

एहि जग मे नीक-बेजा, ऊँच आ नीच, अमृत आ अमर पद (देवता सभक पद), विष आ मृत्यु आदि – केकरहु कतहु एना नहि देखल-सुनल जे मोनहु तक मे श्री रामचन्द्रजीक आज्ञा केँ मेटा दियए।

हम सब प्रकार सँ वैह ढिठाई कयलहुँ, मुदा प्रभु ताहि ढिठाइयो केँ स्नेह आर सेवा मानि लेलनि।

हे नाथ! अहाँ अपन कृपा आर भलाइ सँ हमर भलाइ कयलहुँ, जाहि सँ हमर दूषण (दोष) सेहो भूषण (गुण) केर समान भ’ गेल आ चारू दिश हमर सुन्दर यश पसरि गेल।

हे नाथ! अहाँक रीति आर सुन्दर स्वभाव केर बड़ाइ जगत मे प्रसिद्ध अछि आ वेद-शास्त्र सब गओने अछि।

जे क्रूर, कुटिल, दुष्ट, कुबुद्धि, कलंकी, नीच, शीलरहित, निरीश्वरवादी (नास्तिक) आ निःशंक (निडर) अछि, ओकरहु अहाँ शरण मे सम्मुख आयल सुनिकय एक बेर प्रणाम कयले पर अपना लेलहुँ। ओहि (शरणागत) केर दोष केँ देखियोकय अहाँ कहियो हृदय मे नहि लेलहुँ आर ओकर गुण सब सुनिकय साधु लोकनिक समाज मे ओकर बखान कयलहुँ।

एहेन सेवक पर कृपा करयवला स्वामी के अछि, जे अपनेआप सेवकक सारा साज-समाज सजा दियए, ओकर सब आवश्यकता केँ पूर्ण कय दियए आ सपनो मे अपन कोनो योगदान तक नहि गानि उलटा सेवक केँ संकोच होयत से भाव अपन हृदय मे रखलहुँ!

हम हाथ उठाकय आ प्रण करैत खूब जोर सँ कहैत छी – एहेन स्वामी अहाँक सिवाय दोसर कियो नहि अछि।

बानर जेहेन पशु सब नचैत अछि आ सुग्गा (सिखायल) पाठ मे प्रवीण भ’ जाइत अछि, मुदा सुग्गाक पाठ केर प्रवीणतारूपक गुण आ पशुक नचबाक गति क्रमशः पढ़ेनिहार आ नचेनिहारक अधीन रहैछ।

एहि तरहें अपन सेवक सभक (बिगड़ल) बात सुधारिकय आ सम्मान दयकय अहाँ ओहि साधु सभक शिरोमणि बना देलहुँ। कृपालु (अहाँ) के सिवा अपन विरुदावली केँ आर के जबर्दस्ती (हठपूर्वक) पालन करत?

हम शोक सँ या स्नेह सँ या बालक स्वभाव सँ आज्ञा केँ बायाँ राखिकय (नहि मानिकय) चलि आयल छी, तैयो कृपालु स्वामी (अपने) अपन दिश देखिकय सब प्रकारें हमर भले टा मानल, हमर एहि अनुचित काज केँ नीके बुझल।

हम सुन्दर मंगल केर मूल अपनेक चरणक दर्शन कयल आर ई जानि लेलहुँ जे स्वामी हमरा पर स्वभावहि सँ अनुकूल छथि। एहि पैघ समाज मे अपन भाग्य केँ देखि एतेक बड़का चूक भेलोपर स्वामीक हमरा लेल कतेक पैघ अनुराग अछि!

कृपानिधान हमरा पर सांगोपांग भरिपेट कृपा आर अनुग्रह, सब किछु बेसिये कयलनि अछि, यानि हम जाहि के लायको नहि छी, ओतबे बेसी सर्वांगपूर्ण कृपा अहाँ हमरा पर कयलहुँ अछि।

हे गोसाईं! अहाँ अपन शील, स्वभाव आर भलाइ सँ हमर दुलार रखलहुँ। हे नाथ! हम स्वामी आर समाज केर संकोच केँ छोड़िकय अविनय या विनय भरल जेहेन रुचि भेल ओहने वाणी कहिकय सर्वथा ढिठाइ कयलहुँ अछि। हमर आर्तभाव केँ बुझिकय अपने क्षमा करब।

सुहृद् (बिना हेतु केर हित करय वला), बुद्धिमान आर श्रेष्ठ मालिक सँ बहुते कहब पैघ अपराध होइछ, ताहि लेल हे देव! आब हमरा आज्ञा दिअ, अहाँ हमर सब बात सुधारि देलहुँ।

प्रभु (अहाँ) के चरणकमलक रज, जे सत्य, सुकृत (पुण्य) आर सुख केर सुहावनी सीमा (अवधि) थिक, ओकर दोहाइ दैत हम अपन हृदय केँ जागैत, सुतैत आ सपनहुँ मे बनल रहयवला रुचि (इच्छा) कहैत छी। ओ रुचि अछि – कपट, स्वार्थ और (अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष रूप) चारू फल केँ छोड़िकय स्वाभाविक प्रेम सँ स्वामीक सेवा करब। आर आज्ञा पालन के समान श्रेष्ठ स्वामी केर दोसर कोनो सेवा नहि अछि। हे देव! आब वैह आज्ञारूप प्रसाद सेवक केँ भेटि जाय।”

भरतजी एना कहिकय प्रेमक विवश भ’ गेलाह। शरीर पुलकित भ’ गेलनि, आँखि मे नोर भरि गेलनि। व्याकुल भ’ ओ प्रभु श्री रामचन्द्रजीक चरणकमल पकड़ि लेलनि।

४. ताहि समय केर आर स्नेहक अवस्था केँ कहल नहि जा सकैत अछि। कृपासिन्धु श्री रामचन्द्रजी सुन्दर वाणी सँ भरतजीक सम्मान कय केँ हाथ पकड़िकय हुनका अपन लग बैसा लेलनि। भरतजीक विनती सुनिकय आर हुनकर स्वभाव देखिकय समूचा सभा आर श्री रघुनाथजी स्नेह सँ शिथिल भ’ गेलाह।

छन्द :
रघुराउ सिथिल सनेहँ साधु समाज मुनि मिथिला धनी।
मन महुँ सराहत भरत भायप भगति की महिमा घनी॥
भरतहि प्रसंसत बिबुध बरषत सुमन मानस मलिन से।
तुलसी बिकल सब लोग सुनि सकुचे निसागम नलिन से॥

श्री रघुनाथजी, साधु सभक समाज, मुनि वशिष्ठजी और मिथिलापति जनकजी स्नेह सँ शिथिल भ’ गेलथि। सब मनहि मन भरतजीक भाइपन आर हुनक भक्ति केर अतिशय महिमा केँ सराहय लगलाह। देवता मलिने सन मोन सँ लेकिन भरतजीक प्रशंसा करैत हुनका उपर फूल बरसाबय लगलाह। तुलसीदासजी कहैत छथि – सब लोक भरतजीक भाषण सुनिकय व्याकुल भ’ गेलथि आर एना सकुचा गेलथि जेना रातिक आगमन सँ कमल फूल!

५. दुनू समाजक सब नर-नारी केँ दीन आर दुःखी देखिकय महामलिन मन इन्द्र मरल केँ मारिकय अपन मंगल चाहैत छथि। देवराज इन्द्र कपट आर कुचालि के सीमा थिकाह। हुनका दोसरक हानि आर अपन लाभे टा प्रिय छन्हि। इन्द्र केर रीति कौआ समान अछि। हुनकर छली आर मलिन मोन छन्हि, जेकरा किनकहु पर विश्वास नहि छन्हि। पहिने त कुमत (खराब विचार) कयकेँ कपट बटोरलनि (अनेकों प्रकारक कपट सभक साज सजौलनि)। फेर ओ (कपटजनित) उचाट सभक माथ पर ढारि देलनि। फेर देवमाया सँ सब लोक केँ विशेष रूप से मोहित कय देलनि, मुदा श्री रामचन्द्रजीक प्रेम सँ हुनका अत्यन्त बिछोह नहि भेलन्हि, अर्थात हुनका श्री रामजीक प्रति प्रेम थोड़-बहुत त बनले रहलनि।

६. भय आर उचाट केर वश केकरहु मोन स्थिर नहि अछि। क्षणहि मे सभक मोन वनहि मे रहय के होइछ आ क्षणहि मे सब केँ घर नीक लागय लगैत अछि। मोन केर एहि दुविधामयी स्थिति सँ प्रजा दुःखी भ’ रहल अछि। मानू नदी आर समुद्र केर संगम केर जल क्षुब्ध भ’ रहल अछि।

७. जेना नदी आर समुद्र केर संगम के जल स्थिर नहि रहैत अछि, कखनहुँ एम्हर अबैत अछि आ कखनहुँ ओम्हर जाइत अछि, सैह दशा प्रजाक मोन केर भ’ गेल अछि।

८. चित्त दुइ तरफा भ’ गेला सँ ओ कतहु संतोष नहि पबैत अछि आर एक-दोसर सँ अपन मर्म सेहो नहि कहैत अछि।

९. कृपानिधान श्री रामचन्द्रजी ई दशा देखिकय हृदय मे हँसिकय कहय लगलाह –

“कुत्ता, इन्द्र आ नवयुवक (कामी पुरुष) एक्के समान छथि। (पाणिनीय व्याकरण अनुसार, श्वन, युवन आर मघवन शब्दक रूप सेहो एक्के समान होइत अछि)।”

१०. भरतजी, जनकजी, मुनिजन, मंत्री और ज्ञानी साधु-संत सब केँ छोड़िकय अन्य सब पर जाहि मनुष्य केँ जाहि योग्य (जाहि प्रकृति और जाहि स्थिति केँ) पओलक, ताहि पर ओहिना देवमाया लागि गेल। कृपासिंधु श्री रामचन्द्रजी लोक सबकेँ अपन स्नेह आर देवराज इन्द्र के भारी छल सँ दुःखी देखलनि।

११. सभा, राजा जनक, गुरु, ब्राह्मण आर मंत्री आदि सभक बुद्धि केँ भरतजीक भक्ति स्तब्ध कय देलकनि। सब कियो चित्रलेख जेकाँ श्री रामचन्द्रजी दिश देखि रहल छथि। सकुचाइते सिखायल गेल सन वचन बजैत छथि।

१२. भरतजीक प्रीति, नम्रता, विनय आर बड़ाई सुनय मे सुख दयवला अछि, मुदा ओकर वर्णन करय मे कठिनता छैक। जिनकर भक्तिक लवलेश देखि मुनिगण और मिथिलेश्वर जनकजी प्रेम मे मग्न भ’ गेलाह, ओहि भरतजीक महिमा तुलसीदास केना कहथि?

१३. हुनकर भक्ति आर सुन्दर भाव सँ (कविक) हृदय मे सुबुद्धि हुलसि रहल अछि (विकसित भ’ रहल अछि)। मुदा ओ बुद्धि अपना केँ छोट आर भरतजीक महिमा केँ पैघ बुझि कवि परम्पराक मर्यादा केँ मानिकय सकुचा गेल, ओकर वर्णन करबाक साहस नहि कय सकल।

१४. ओकर गुण मे रुचि त बहुते छैक, लेकिन से कहि नहि सकैत अछि। बुद्धिक गति बालक केर वचन जेकाँ भ’ गेल अछि (ओ कुण्ठित भ गेल अछि)!

१५. भरतजीक निर्मल यश निर्मल चन्द्रमा थिक आर कविक सुबुद्धि चकोरी थिक, जे भक्त लोकनिक हृदय रूपी निर्मल आकाश मे ओहि चन्द्रमा केँ उदित देखि ओहि दिश टकटकी लगौने देखिते रहि गेल अछि, तखन ओकर वर्णन के करय?

१६. भरतजीक स्वभावक वर्णन वेदहु लेल सुगम नहि छैक। तेँ हमर तुच्छ बुद्धि केर चंचलता केँ कवि लोकनि क्षमा करथि! भरतजीक सद्भाव केँ कहैत-सुनैत के मनुष्य श्री सीता-रामजीक चरण मे अनुरक्त नहि भ’ जायत!

१७. भरतजीक स्मरण कयला सँ जेकरा श्री रामजीक प्रेम सुलभ नहि भेल, ओकरा समान बाम (अभागल) आर के होयत?

१८. दयालु आर सुजान श्री रामजी सभक दशा देखिकय आर भक्त (भरतजी)क हृदय केर स्थिति जानिकय, धर्मधुरंधर, धीर, नीति मे चतुर, सत्य, स्नेह, शील आर सुख केर समुद्र, नीति और प्रीति केर पालन करयवला श्री रघुनाथजी देश, काल, अवसर आर समाज केँ देखिकय, तदनुसार एहेन वचन बजलाह जे मानू वाणीक सर्वस्वे छल, परिणाम मे हितकारी छल आर सुनय मे चन्द्रमाक रस (अमृत) समान छल। ओ कहलनि –

“हे तात भरत! अहाँ धर्म केर धुरी धारण करनिहार छी। लोक आर वेद दुनू केँ बुझयवला आर प्रेम मे प्रवीण छी। हे तात! कर्म सँ, वचन सँ और मोन सँ निर्मल अहाँक समान अहीं टा छी।

गुरुजन लोकनिक समाज मे आर एहेन कुसमय मे छोट भाइक गुण कोना कहल जा सकैत अछि?

हे तात! अहाँ सूर्यकुलक रीति केँ, सत्यप्रतिज्ञ पिताजीक कीर्ति और प्रीति केँ, समय, समाज आ गुरुजन लोकनिक लज्जा (मर्यादा) केँ तथा उदासीन, मित्र ओ शत्रु सभक मोन के बात केँ जनैत छी। अहाँ केँ सभक कर्म (कर्तव्य) आर अपन तथा हमर परम हितकारी धर्म सेहो पता अछि।

यद्यपि हमरा अहाँ पर सब तरहें भरोसा अछि, तथापि हम समय अनुसार किछु कहैत छी। हे तात! पिताजीक अनुपस्थिति मे हमरा सभक बात केवल गुरुवंश केर कृपा सम्हारि रखने अछि, नहि त हमरा लोकनि समेत प्रजा, कुटुम्ब, परिवार सब बर्बाद भ’ जइतय।

जँ बिना समय के (सन्ध्या सँ पूर्वहि) सूर्य अस्त भ’ जाय, त कहू जगत मे केकरा क्लेश नहि हेतैक? हे तात! ताहि तरहक उत्पात विधाता पिताक असामयिक मृत्यु सँ कयलनि अछि। लेकिन मुनि महाराज तथा मिथिलेश्वर सब केँ बचा लेलनि। राज्यक सब कार्य, लज्जा, प्रतिष्ठा, धर्म, पृथ्वी, धन, घर – एहि सभक पालन (रक्षण) गुरुजीक प्रभाव (सामर्थ्य) करत आर परिणाम शुभ होयत। गुरुजीक प्रसाद (अनुग्रह) मात्र घर मे आर वन मे समाज सहित अहाँ आ हमर रक्षक अछि।

माता, पिता, गुरु और स्वामीक आज्ञाक पालन समस्त धर्मरूपी पृथ्वी केँ धारण करय मे शेषजीक समान अछि। हे तात! अहाँ वैह करू आर हमरो सँ कराउ, सूर्यकुल केर रक्षक बनू। साधक लेल यैह एकमात्र (आज्ञा पालन रूपी साधना) सम्पूर्ण सिद्धि केँ दयवाली, कीर्तिमयी, सद्गतिमयी और ऐश्वर्यमयी त्रिवेणी थिक।

ई सब विचारिकय भारी संकट सहियोकय प्रजा आर परिवार केँ सुखी करू।

हे भाइ! हमर विपत्ति सब कियो बाँटि लेलहुँ अछि, लेकिन अहाँक सोझाँ चौदह वर्ष धरिक अवधि बड़ा कठिन अछि, सब सँ बेसी दुःख अछि।

अहाँ केँ कोमल जानियोकय हम कठोर वियोग केर बात कहि रहल छी। हे तात! खराब समय मे हमरा लेल ई कोनो अनुचित बात नहि थिक।

कुठौर (कुअवसर) मे श्रेष्ठ भाइ टा सहायक होइत छथि। वज्र केर आघात सेहो हाथहि सँ रोकल जाइत छैक। सेवक हाथ, पैर आर नेत्र समान आर स्वामी मुख समान हेबाक चाही।”

२०. तुलसीदासजी कहैत छथि जे सेवक-स्वामीक एहेन प्रीतिक रीति सुनिकय सुकवि ओकर सराहना करैत छथि।

२१. श्री रघुनाथजीक वाणी सुनिकय, जे मानू प्रेमरूपी समुद्रक (मंथन सँ निकलल) अमृत मे लेपटायल छल, पूरे समाज शिथिल भ’ गेल। सब लोक केँ प्रेमक समाधि लागि गेलैक। ई दशा देखि सरस्वती गुम भ’ गेलीह। भरतजी केँ बड्ड संतोष भेलन्हि। स्वामीक सम्मुख (अनुकूल) होइते हुनकर दुःख आर दोष मुँह मोड़ि लेलकनि। हुनकर मुखमंडल पर प्रसन्नताक आभा पसरि गेलनि। मोनक सब विषाद खत्म भ’ गेलनि। जेना कोनो बौक लोक पर सरस्वतीक कृपा भ’ गेल हो किछु तहिना भरतजीक हाल भ’ गेलनि। ओ प्रेमपूर्वक प्रणाम कयलनि आर करकमल जोड़िकय बजलाह –

“हे नाथ! हमरा अहाँक संग जेबाक सुख भेटि गेल। हम एहि जगत मे जन्म लेबाक लाभ पाबि गेलहुँ। हे कृपालु! आब जे आज्ञा हो, हम ओकरे सर्वोपरि बुझि आदरपूर्वक पूरा करी। मुदा देव! अहाँ हमरा किछु एहेन वस्तु (निशानी) दी जेकर सेवा करैत हम एहि अवधि केँ पार कय सकी। हे देव! स्वामीक अभिषेक लेल गुरुजीक आज्ञा पाबिकय हम सब तीर्थक जल ल’ अनैत छी, ताहि लेल कि आज्ञा दैत छी? हमर मोन मे एकटा आरो बड पैघ मनोरथ अछि जे भय आ संकोचक कारण कहल नहि जाइत अछि।”

२२. श्री रामचन्द्रजी कहलखिन – हे भाइ! कहू त! तखन प्रभुक आज्ञा पाबिकय भरतजी स्नेहपूर्ण सुन्दर वाणी बजलाह – “आज्ञा हुए त चित्रकूटक पवित्र स्थान सब, तीर्थ, वन, पक्षी-पशु, पोखरि-नदी, झरना आर पर्वत सभक समूह आ विशेष कय केँ प्रभुक चरणचिह्न सँ अंकित भूमि सब केँ देखि आबी।” श्री रघुनाथजी कहलखिन – “अवश्य जाउ। अत्रि ऋषिक आज्ञा केँ माथ पर धारण करू। हुनका सँ पुछिकय ओ जेना कहथि तेना करू। निर्भय भ’ कय वन मे विचरण करू। हे भाइ! अत्रि मुनिक प्रसाद सँ वन मंगल करयवला अछि। परम पवित्र आर अत्यन्त सुन्दर अछि। आर, ऋषि लोकनिक प्रमुख अत्रिजी जतय जेबाक आज्ञा देथि, ओतहि तीर्थ सँ आनल जल केँ स्थापित करू।” प्रभुक वचन सुनिकय भरतजी बहुत सुख पओलनि। आनन्दित भ’ कय मुनि अत्रिजीक चरणकमल मे माथ झुकौलनि।

२३. समस्त मंगलक मूल भरतजी आर श्री रामचन्द्रजीक संवाद सुनिकय स्वार्थी देवतो लोकनि रघुकुलक सराहना करैत कल्पवृक्षक फूल बरसाबय लगलाह। ‘भरतजी धन्य छथि, स्वामी श्री रामजीक जय होइन्ह!’ एना कहैत देवता बलपूर्वक (बेसिये) हर्षित होबय लगलाह।

२४. भरतजीक वचन सुनिकय मुनि वशिष्ठजी, मिथिलापति जनकजी और सभा मे सब गोटे खूब आनन्दित भेलाह। भरतजी आर श्री रामचन्द्रजीक गुण समूह ओ प्रेम केँ विदेहराज जनकजी पुलकित भ’ कय प्रशंसा कय रहल छथि। सेवक आर स्वामी दुनू गोटेक सुन्दर स्वभाव छन्हि। हिनकर नियम आर प्रेम पवित्रहु केँ अत्यन्त पवित्र करयवला अछि।

२५. मंत्री आर सभासद् लोकनि सेहो प्रेममुग्ध भ’ कय अपन-अपन बुद्धि अनुसार हुनक प्रशंसा करय लगलाह। श्री रामचन्द्रजी आर भरतजीक संवाद सुनि-सुनिकय दुनू समाज हृदय मे हर्ष आ विषाद (भरतजीक सेवा धर्म केँ देखिकय हर्ष और रामवियोगक सम्भावना सँ विषाद) केर अनुभव करय लागल।

२६. श्री रामचन्द्रजीक माता कौसल्याजी दुःख आर सुख केँ समान जानि श्री रामजीक गुण कहि दोसर रानी सब केँ धीरज बन्हेलीह। कियो श्री रामजीक बड़ाई (बड़प्पन) केर चर्चा कय रहल अछि, त कियो भरतजीक भलमानुसताक प्रशंसा कय रहल अछि।

हरिः हरः!!