स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरिमानस मोती
जनक-वशिष्ठादि संवाद, इन्द्रक चिन्ता आ सरस्वती द्वारा सीख
१. श्री रामजी आ वशिष्ठजीक बीच बातचीत भेला उपरान्त श्री रामजी गुरु वशिष्ठ केँ प्रणाम कयकेँ चलि गेलाक बाद ऋषि वशिष्ठजी धीरज धारण कय जनकजी लग अयलाह। गुरुजी श्री रामचन्द्रजीक शील आ स्नेह सँ युक्त स्वभावहि सँ सुन्दर वचन राजा जनकजी केँ सुनौलनि आ कहलनि – हे महाराज! आब वैह कयल जाय जाहि मे सभक धर्मक रक्षा हो, सभक हित हो। हे राजन्! अहाँ ज्ञानक भंडार छी, सुजान, पवित्र और धर्म मे धीर छी। एहि समय अहाँ बिना दोसर एहि दुविधा केँ दूर करय मे समर्थ नहि अछि।
२. मुनि वशिष्ठजीक वचन सुनि जनकजी प्रेममग्न भेलाह। हुनक ई अवस्था देखि ज्ञान आ वैराग्य केँ सेहो वैराग्य भ’ गेलैक। (अर्थात् हुनकहु ज्ञान-वैराग्य छुटि जेकाँ गेलनि)। ओ प्रेम सँ शिथिल भ’ गेलाह आर मोन मे विचार करय लगलाह जे हम एतय आबिकय ठीक नहि कयलहुँ। राजा दशरथजी श्री रामजी केँ वन जेबाक लेल कहलनि आ स्वयं अपन प्रिय केर प्रेम केँ प्रमाणित (सत्य) करैत प्रिय वियोग मे प्राण त्यागि देलनि, लेकिन हम आब हिनका वन सँ आर गहन वन केँ पठाकय अपन विवेक केर बड़ाई मे आनन्दित होइत लौटब जे हमरा कनिकबो मोह नहि भेल, हम श्री राम केँ वन मे छोड़िकय चलि देलहुँ, दशरथजी जेकाँ नहि मरलहुँ!
३. तपस्वी, मुनि आर ब्राह्मण लोकनि ई सब सुनि आ देखि प्रेमवश बहुत व्याकुल भेलाह। समय केर विचार करैत राजा जनकजी धीरज धय समाजक संग भरतजी लग अयलाह। भरतजी आगू आबिकय हुनकर स्वागत कयलखिन आ समयानुकूल सुन्दर आसन प्रदान कयलखिन। तिरहुतराज जनकजी कहय लगलाह –
“हे तात भरत! अहाँ केँ श्री रामजीक स्वभाव बुझले अछि। श्री रामचन्द्रजी सत्यव्रती और धर्मपरायण छथि, सभक शील आर स्नेह राखयवला छथि, ताहि लेल ओ संकोचवश संकट सहि रहला अछि, आब अहाँ जे आज्ञा देबनि, वैह हुनका सँ कहल जाय।”
४. भरतजी ई सुनिकय पुलकित शरीर आ नेत्र मे जल भरिकय खूब धैर्य रखैत बजलाह –
“हे प्रभो! अपने हमरा सभक पिताक समान प्रिय आ पूज्य छी। कुल गुरु श्री वशिष्ठजी समान हितैषी त मातो-पिता नहि छथि। विश्वामित्रजी आदि मुनि लोकनि आ मंत्री लोकनिक समाज अछि। आर आजुक दिन ज्ञानक समुद्र अपने स्वयं उपस्थित छी।
हे स्वामी! हमरा अपन बच्चा, सेवक आ आज्ञानुसार चलयवला बुझिकय शिक्षा दिय’। एहि समाज आ पुण्यस्थल मे अपने जेहेन ज्ञानी आ पूज्य केर पुछलापर जँ हम मौन रहैत छी त मलिन बुझल जायब आ बाजय छी त पागलपन होयत हमर, तैयो हम छोट मुँह पैघ बात कहैत छी, हे तात! विधाता केँ प्रतिकूल जानि हमरा क्षमा करब।
वेद, शास्त्र आ पुराण सब मे प्रसिद्ध अछि आर ई संसार सेहो जनैत अछि जे सेवा धर्म बड कठिन छैक। स्वामी धर्म मे (स्वामी प्रति कर्तव्य पालन मे) आर स्वार्थ मे विरोध छैक, दुनू एक संग नहि निभा सकैत छी।
वैर आन्हर होइत छैक आ प्रेम केँ ज्ञान नहि रहैत छैक। (हम स्वार्थवश कही या प्रेमवश, दुनू हाल मे गलत हेबाक भय अछि।) अतएव हमरा पराधीन जानि हमरा सँ नहि पुछिकय श्री रामचन्द्रजीक रुइख (रुचि), धर्म आर सत्यक व्रत केँ राखैत, जे सभक सम्मत आर सभक लेल हितकारी हो से अपने सभक प्रेम केँ चिन्हिकय ओहिना कयल जाउ।”
५. भरतजीक वचन सुनि आ हुनकर स्वभाव देखि समाज सहित राजा जनक हुनक सराहना करय लगलाह। भरतजीक वचन सुगम आर अगम, सुन्दर, कोमल आर कठोर अछि। ओहि मे अक्षर कम छैक मुदा अर्थ बड बड गहींर भरल छैक। जेना मुख (केर प्रतिबिम्ब) आइना मे देखाय पड़ैछ आर आइना अपन हाथ मे अछि, तैयो ओ (मुखक प्रतिबिम्ब) पकड़ मे नहि आबि रहल अछि, तहिना भरतजीक ई अद्भुत वाणी पकड़ मे नहि अबैत अछि, शब्द सँ ओकर आशय बुझय मे नहि अबैत अछि।
६. केकरो सँ कोनो उत्तर दैत नहि बनैछ, तखन राजा जनकजी, भरतजी तथा मुनि वशिष्ठजी समाजक संग ओतय आबि गेलथि, जतय देवतारूपी कुमुद केँ फुलबयवला (सुख दयवला) श्री रामचन्द्रजी रहथि। ई समाचार सुनिकय सब कियो सोच सँ व्याकुल भ’ गेलथि, जेना नव (पहिल वर्षाक) जल केर संयोग सँ मछरी व्याकुल होइत अछि।
७. देवता लोकनि पहिने कुलगुरु वशिष्ठजीक प्रेमविह्वल दशा देखलनि, फेर विदेहजीक विशेष स्नेह केँ देखलनि, आर तखन श्री रामभक्ति सँ ओतप्रोत भरतजी केँ देखलनि। एहि सब केँ देखिकय स्वार्थी देवता घबड़ाकय हृदय मे हारि मानि गेलथि, निराश भ’ गेलथि। हुनका सब केँ सभा मे उपस्थित सब गोटे श्री रामजीक प्रेम मे सराबोर देखेलनि। एहि सँ देवता एतबा सोच केर वश भ’ गेलथि जेकर कोनो हिसाब नहि छल।
८. देवराज इन्द्र सोच मे भरिकय कहय लगलाह जे श्री रामचन्द्रजी तँ स्नेह आर संकोच केर वश मे छथि, ताहि लेल सब कियो मिलिकय किछु प्रपंच (माया) रचू, नहि त काज बिगड़ले बुझू।
९. देवता लोकनि सरस्वतीक स्मरण कय हुनकर स्तुति कयलनि आर कहलनि – हे देवी! देवता अपनेक शरणागत छथि, हुनका लोकनिक रक्षा करू। अपन माया रचिकय भरतजीक बुद्धि केँ फेरि दियौन आर छल केर छाया कय देवता सभक कुल केर पालन (रक्षा) करू।
१०. देवता सभक विनती सुनिकय आर देवता सबकेँ स्वार्थक वश भेला सँ मूर्ख बुझिकय बुद्धिमती सरस्वतीजी कहली – “हमरा सँ कहि रहल छी जे भरतजीक मति पलटि दी! हजार नेत्रहु सँ अहाँ सब केँ सुमेरु नहि देखाइत छथि! ब्रह्मा, विष्णु और महेश केर माया बड प्रबल अछि! लेकिन ओहो सब भरतजीक बुद्धि दिश ताकियो नहि सकैत छथि। ओहि बुद्धि केँ, अहाँ सब हमरा सँ कहि रहल छी, भुलावा मे पाड़य! अरे! चाँदनी कतहु प्रचंड किरणवाली सूर्य केँ चोरा सकैत अछि? भरतजीक हृदय मे श्री सीता-रामजीक निवास अछि। जतय सूर्यक प्रकाश अछि, ओतय कतहु अन्हार रहि सकैत अछि की?”
११. एना कहिकय सरस्वतीजी ब्रह्मलोक केँ चलि गेलीह। देवता एना व्याकुल भेलाह जेना राति मे चकवा व्याकुल होइत अछि। मलिन मन रखनिहार स्वार्थी देवता सब बेजा सलाह कयकेँ बेजा ठाट (षड्यन्त्र) रचलनि। प्रबल माया-जाल रचिकय भय, भ्रम, अप्रीति और उच्चाटन पसारि देलनि। कुचालि कयकेँ देवराज इन्द्र सोचय लगलाह जे काजक बनब-बिगड़ब सबटा भरतजीक हाथ मे अछि।
१२. एम्हर राजा जनकजी मुनि वशिष्ठ आदिक संग श्री रघुनाथजी लग अयलाह। सूर्यकुलक दीपक श्री रामचन्द्रजी सभक सम्मान कयलनि, तखन रघुकुलक पुरोहित वशिष्ठजी समय, समाज और धर्म केर अविरोधी (अर्थात अनुकूल) वचन बजलाह। ओ पहिने जनकजी आर भरतजी केर संवाद सुनौलनि। फेर भरतजीक कहल गेल सुन्दर बात कहि सुनौलनि। फेर कहलनि – हे तात राम! हमर मत त यैह अछि जे अहाँ जेहेन आज्ञा देव, वैह बात सब करथि।
१३. ई सुनिकय दुनू हाथ जोड़िकय श्री रघुनाथजी सत्य, सरल और कोमल वाणी बजलाह – अपने के आ मिथिलेश्वर जनकजी के विद्यमान रहितो हमर किछु कहब सब तरहें अनुचित होयत। अपनेक आर महाराजक जे आज्ञा होयत, हम अपनेक शपथ लयकय कहैत छी वैह सत्य टा सबकेँ शिरोधार्य होयत।
हरिः हरः!!