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रामचरितमानस मोतीः श्री राम-भरतादिक संवाद

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

श्री राम-भरतादिक संवाद

१. पहिने भरतक विनती आदरपूर्वक सुनि लिअ, फेर ओहि पर विचार करू। तखन साधुमत, लोकमत, राजनीति आर वेद केर निचोड़ (सार) निकालिकय ओहि मुताबिक कयल जाउ। गुरु वशिष्ठजी श्री रामजी केँ बुझबैत ई बात कहलखिन।

२. भरतजी पर गुरुजीक स्नेह देखिकय श्री रामचन्द्रजीक हृदय मे विशेष आनन्द भेलनि। भरतजी केँ धर्मधुरंधर आर तन, मन, वचन सँ अपन सेवक जानि श्री रामचन्द्रजी गुरुक आज्ञा अनुकूल मनोहर, कोमल और कल्याणक मूल वचन बजलाह –

“हे नाथ! अपनेक शपथ आ पिताजीक चरणक दोहाइ अछि। हम सत्य कहैत छी जे विश्व भरि मे भरत समान कियो भाइ नहि भेल अछि।

जे लोक गुरुक चरणकमल केर अनुरागी छथि, से लोक मे (लौकिक दृष्टि सँ) सेहो आर वेद मे (परमार्थिक दृष्टि सँ) सेहो बड़भागी होइत छथि!

तखन जेकरा उपर अपने (गुरु) केर एहेन स्नेह अछि, ओहि भरत केर भाग्य केँ के कहि सकैत अछि? छोट भाइ जानि भरतक मुँह पर ओकर बड़ाई करय मे हम बुद्धि सकुचाइत अछि। तैयो हम यैह कहब जे भरत जे किछु कहय, वैह करय मे भलाई अछि।”

एना कहिकय श्री रामचन्द्रजी चुप भ’ गेलाह।

३. तखन मुनि भरतजी सँ कहला – हे तात! सबटा संकोच त्यागिकय कृपाक समुद्र अपन प्रिय भाइ सँ अपन हृदयक बात कहू। मुनिक वचन सुनि आ श्री रामचन्द्रजीक रुइख पाबि गुरु आ स्वामी केँ भरि पेट अपन अनुकूल बुझि सबटा भार अपने उपर बुझैत भरतजी किछु कहि नहि पाबि रहल छथि। ओ विचार करय लगलाह।

४. शरीर सँ पुलकित भ’ ओ सभा मे ठाढ़ भ’ गेलाह। कमल समान आँखि सँ प्रेमाश्रुक बाढ़ि आबि गेलनि। ओ कहला –

“हमर कहब त मुनिनाथ स्वयं निबाहि देलनि, जे किछु हम कहि सकैत छलहुँ से ओ अपने कहि देलनि। एहि सँ बेसी हम कि कहू?

अपन स्वामीक स्वभाव हम जनैत छी। ओ अपराधी पर सेहो कहियो क्रोध नहि करैत छथि। हमरा पर त हुनक विशेष कृपा आ स्नेह छन्हि।

हम खेलहु मे कहियो हुनका रिसाइत (अप्रसन्न) नहि देखलियनि। बचपनो मे हम हुनकर संग नहि छोड़लहुँ आर ओहो हमर मोन केँ कहियो नहि तोड़लनि। हमर मोनक प्रतिकूल कोनो काज नहि कयलथि।

हम प्रभुक कृपाक रीति केँ हृदय मे नीक सँ देखने छी, अनुभव कएने छी। हमर हारि भेलापर खेलहु मे प्रभु हमरे जित दियबैत रहल छथि। हमहुँ प्रेम आर संकोचवश कहियो सामने मुँह नहि खोललहुँ।

प्रेमक प्यासल हमर नेत्र आइ तक प्रभुक दर्शन सँ तृप्त नहि भेल अछि। मुदा विधाता हमर दुलार नहि सहि सकलाह। ओ सब नीच माताक बहाने हमरा आर स्वामीक बीच अन्तर उत्पन्न कय देलाह।

ईहो कहब आइ हमरा शोभा नहि दैछ, कियैक तँ अपना बुझने सँ के साधु आ पवित्र भेल अछि? जेकरा दोसर लोक साधु आ पवित्र मानय, वैह साधु थिक।

माता नीच अछि आर हम सदाचारी आ साधु छी, एहेन बात हृदय मे अननाइये दुराचार समान होइछ। कि कोदोक बाली कहियो उत्तम धानक फल दय सकैत अछि? कि करिया घोंघी (डोकी) मोती उत्पन्न कय सकैत अछि?

सपनहुँ मे हम केकरो दोषक लेश तक नहि अछि। हमर अभाग्ये अथाह समुद्र थिक। हम अपन पापक परिणाम बुझने बिना माता केँ कटु वचन कहिकय व्यर्थहि दुःखी कयलहुँ।

हम अपन हृदय मे सब दिश ताकिकय हारि गेलहुँ, हमर भलाइ केर कोनो साधन नहि सुझायल। एक्केटा उपाय सँ हमर भलाइ सुनिश्चित अछि। ओ ई जे गुरु महाराज सर्वसमर्थ छथि आ श्री सीता-रामजी हमर स्वामी छथि। बस एतबे सँ हमरा परिणाम नीक होयबाक बात बुझय मे आबि रहल अछि।

साधु लोकनिक सभा मे गुरुजी आर स्वामीक समीप एहि पवित्र तीर्थ स्थान मे हम सत्य भाव सँ कहैत छी। ई प्रेम थिक आ कि छल-प्रपंच? झूठ थिक आ कि सच? ई सर्वज्ञ मुनि वशिष्ठजी आर अन्तर्यामी श्री रघुनाथजी जनैत छथि।

प्रेमक प्रण केँ निबाहिकय महाराज (पिताजी) केर मरनाय आर माताक कुबुद्धि, दुनू बातक साक्षी समूचा संसार अछि। माता सब व्याकुल छथि, हुनका सब दिश देखल तक नहि जा रहल अछि। अवधपुरीक नर-नारी दुःसह ताप सँ जरि रहल छथि। हमहीं एहि सबटा अनर्थक मूल छी, ई सुनि आ बुझि हम सबटा दुःख सहलहुँ अछि।

श्री रघुनाथजी लक्ष्मण आर सीताजीक संग मुनि जेहेन वेष धारण कय बिना जूता पहिरने पाँव-पैदल वन केँ चलि गेलाह, ई सुनिकय, शंकरजी साक्षी छथि, एहि घाव संग हम जिबैत रहि गेलहुँ, ई सुनिते हमर प्राण नहि निकलि गेल… फेर निषादराजक प्रेम देखिकय एहि वज्र सन कठोर हृदय मे भूर नहि भेल, ई नहि फाटल… आब एतय आबिकय सब किछु अपन आँखि सँ देख लेलहुँ। ई जड़ जीव जियैत राखिकय सबटा सहायत।

जिनका देखिकय रस्ताक साँपिनी आ बिच्छू सेहो अपन भयानक विष आ तीव्र क्रोध केँ त्यागि दैत अछि – वैह श्री रघुनंदन, लक्ष्मण और सीता जिनका शत्रु जानि पड़लाह, ओहि कैकेइ के पुत्र हमरा छोड़िकय दैव दुःसह दुःख आर केकरा सहबेता?”

५. अत्यन्त व्याकुल तथा दुःख, प्रेम, विनय और नीति सँ सानल भरतजीक श्रेष्ठ वाणी सुनिकय सब लोक शोक मे मग्न भ’ गेल। पूरे सभा मे विषाद पसैर गेलैक। मानू कमल केर वन पर पाला पड़ि गेल हो। तखन ज्ञानी मुनि वशिष्ठजी अनेक प्रकारक पुरान (ऐतिहासिक) कथा सब कहिकय भरतजीक समाधान कयलनि। फेर सूर्यकुल रूपी कुमुदवन केँ प्रफुल्लित करयवला चन्द्रमा श्री रघुनन्दन उचित वचन बजलाह –

“हे तात! तूँ अपन हृदय मे व्यर्थक ग्लानि करैत छह। जीव केर गति केँ ईश्वरक अधीन बुझह। हमरा हिसाब सँ भूत, भविष्य आ वर्तमान – तीनू काल आ स्वर्ग, पृथ्वी आ पाताल – तीनू लोक मे जतेक पुण्यात्मा पुरुष छथि से सब तोरा सँ नीचें छथि।

हृदयहु मे तोरा पर कुटिलताक आरोप कयला सँ ई लोक (एहि ठामक सुख, यश आदि) बिगड़ि जायत आ परलोक सेहो नष्ट भ’ जायत, यानि मरबाक बाद नीक गति नहि भेटत।

माता कैकेइ केँ तँ वैह मूर्ख दोष देत जे गुरु आर साधु लोकनिक सभा केर सेवन नहि करैछ।

हे भरत! तोहर नाम स्मरण करिते सबटा पाप, प्रपंच (अज्ञान) आर समस्त अमंगलक समूह मेटाइत अछि आर एहि लोक मे सुन्दर यश व परलोक मे सेहो सुख प्राप्त होइत अछि।

हे भरत! हम स्वभावहि सँ सत्य कहैत छी, शिवजी साक्षी छथि, ई पृथ्वी तोरे रखला सँ रहि रहल अछि।

हे तात! तूँ व्यर्थ कुतर्क नहि करह। वैर आ प्रेम नुकेला सँ नहि नुकाइत अछि। पक्षी-पशु मुनि लग बेधड़क चलि जाइछ, लेकिन हिन्सा करयवला बधिक केँ देखिते भागि जाइछ। मित्र आ शत्रु केँ पशु-पक्षीओ नीक सँ चिन्हैत अछि। फेर मनुष्य शरीर त गुण आ ज्ञान केर भंडारे थिक।

हे तात! हम तोरा नीक सँ जनैत छी। कि करू? जी मे बड़ा दुविधा अछि। राजा हमरा त्यागिकय सत्य केँ रखलनि आ प्रेम-प्रण लेल शरीर छोड़ि देलनि। हुनकर वचन केँ मेटबैत मोन मे सोच होइत अछि। ओहू सँ बढ़िकय तोहर संकोच होइत अछि। ताहू पर सँ गुरुजी हमरा आज्ञा देलनि अछि, ताहि लेल आब तूँ जे कहबह, हम वैह करय चाहैत छी। तूँ मोन केँ प्रसन्न करह आर संकोच त्यागि कय जे कहह, हम आइ वैह टा करी।

६. सत्य प्रतिज्ञ रघुकुल श्रेष्ठ श्री रामजीक ई वचन सुनिकय सारा समाज सुखी भ’ गेल। देवगण सहित देवराज इन्द्र भयभीत होइत सोचय लगलाह जे आब बनल-बनायल काज बिगड़य चाहैत अछि। किछो उपाय करैत नहि बनैछ। तखन ओ सब मने-मन श्री रामजीक शरण गेलथि। फेर ओ लोकनि विचारिकय अपना-आपस मे कहय लगलाह जे श्री रघुनाथजी त भक्त केर भक्तिक वश मे छथि।

७. अम्बरीष आर दुर्वासाक घटना याद कय केँ त देवता आर इन्द्र एकदम्मे निराश भ’ गेलथि। पहिने देवता लोकनि बहुतो काल धरि दुःख सहलनि। तखन भक्त प्रह्लादे द्वारा नृसिंह भगवान केँ प्रकट कयल गेल छल। सब देवता परस्पर कान सँ लाग-लागिकय आ माथ पिटैत कहैत छथि जे आब देवता लोकनिक काज भरतेजीक हाथ मे अछि। हे देवतागण! दोसर कोनो उपाय नहि देखाय दैत अछि। श्री रामजी अपन श्रेष्ठ सेवक लोकनिक सेवा केँ मानैत छथि, अर्थात् हुनकर भक्त केर कियो सेवा करैत अछि त ओकरा पर ओ बहुते प्रसन्न होइत छथि। अतएव अपन गुण आ शील सँ श्री रामजी केँ वश मे करनिहार भरतेजीक सब गोटे अपन-अपन हृदय मे प्रेम सहित स्मरण करू।

८. देवता सभक मत सुनिकय देवगुरु बृहस्पतिजी कहलखिन्ह – नीक विचार कयलहुँ अछि अहाँ सब। अहाँ लोकनिक भाग्य नीक अछि। भरतजीक चरणक प्रेम जगत मे समस्त शुभ मंगल केर मूल थिक। सीतानाथ श्री रामजीक सेवक केर सेवा सैकड़ों कामधेनुक समान सुन्दर अछि। अहाँ लोकनिक मोन मे भरतजीक भक्ति आयल अछि, त आब सबटा सोच छोड़ि दिअ। विधाता बात बना देलनि। हे देवराज! भरतजीक प्रभाव त देखू। श्री रघुनाथजी सहज स्वभाव आ पूर्णरूप सँ हुनक वश मे छथि। हे देवतागण! भरतजी केँ श्री रामचन्द्रजीक परछाईं (परछाईं जेकाँ हुनकर अनुसरण करयवला) जानिकय मोन स्थिर करू, डरक कोनो बात नहि अछि।

९. देवगुरु बृहस्पतिजी आ देवता सभक सम्मति (आपसक विचार) एवं हुनका सभक सोच सुनिकय अन्तर्यामी प्रभु श्री रामजी केँ संकोच भेलनि। भरतजी अपन मोन मे सब भार अपनहि सिर जानि आ हृदय मे अनेकों तरहक अनुमान (विचार) करय लगलाह। सब तरहें विचार कय अन्त मे ओ मोन मे ई निश्चय कयलनि जे श्री रामजीक आज्ञा मात्र मे अपन कल्याण अछि। ओ अपन प्रण छोड़िकय हमर प्रण रखलनि। ई कि कम कृपा आ स्नेह भेल! ओ बहुते अनुग्रह आ स्नेह कयलनि अछि। श्री जानकीनाथजी सब प्रकार सँ हमरा पर अत्यन्त अपार अनुग्रह कयलनि। तदनन्तर भरतजी दुनू करकमल जोड़ि प्रणाम करैत बजलाह –

“हे स्वामी! हे कृपा के समुद्र! हे अन्तर्यामी! आब हम बेसी कि कहू या कि कहबाउ? गुरु महाराज केँ प्रसन्न आ स्वामी केँ अनुकूल जानि हमर मलिन मोनक कल्पित पीड़ा मेटा गेल।

हम मिथ्या डर सँ मात्र डरा गेल छलहुँ। हमर सोचक जैड़ नहि छल। दिशा बिसरि गेला पर हे देव! सूर्यक दोष नहि होइत छन्हि।

हमर दुर्भाग्य, माताक कुटिलता, विधाताक टेढ़ चाइल आ काल के कठिनता, ई सबटा मिलिकय पैर रोपिकय (प्रण कयकेँ) हमरा नष्ट कय देने छल। मुदा शरणागत केर रक्षक अपने अपन (शरणागतक रक्षा केर) प्रण निबाहलहुँ, हमरा बचा लेलहुँ।

ई अहाँक कोनो नव रीति नहि थिक। ई लोक आ वेद मे प्रकट अछि, केकरो सँ नुकायल नहि अछि। सम्पूर्ण संसार बिगाड़यवला हुए, लेकिन हे स्वामी! केवल एक अपने टा अनुकूल छी त फेर कहू केकर भलाई सँ भला भ’ सकैत अछि?

हे देव! अपनेक स्वभाव कल्पवृक्ष समान अछि, ओ न कहियो केकरो अनुकूल अछि, न प्रतिकूल। ओहि वृक्ष (कल्पवृक्ष) केँ चिन्हिकय जे ओहि समीप आबय, त ओकर छाहरिये सबटा चिन्ताक नाश करयवला अछि। राजा-रंक, नीक-बेजा, जगत मे सबटा ओकरा सँ मंगिते मनचाहा वस्तु भेटैत अछि।

गुरु आ स्वामी केर सब प्रकारक स्नेह देखि हमर क्षोभ मेटा गेल, मोन मे कनिकबो सन्देह नहि रहल। हे दयाक खान! आब वैह करू जे दास लेल उचित हो आ जाहि सँ प्रभुक चित्त मे कोनो क्षोभ नहि हो।

जे सेवक स्वामी केँ संकोच मे डालि अपन नीक चाहैत अछि, ओकर बुद्धि नीच छैक। सेवकक हित त एहि मे छैक जे ओ समस्त सुख आ लोभ छोड़ि स्वामीक सेवा टा करय।

हे नाथ! अहाँक वापस होइ मे सभक स्वार्थ छैक आ अहाँक आज्ञा पालन करय मे करोड़ों प्रकार सँ कल्याण छैक। यैह स्वार्थ आ परमार्थ केर सारतत्त्व (निचोड़) थिक, समस्त पुण्य केर फल आ सम्पूर्ण शुभ गतिक श्रृंगार थिक।

हे देव! अपने हमर एकटा विनती सुनि ली, फेर जेना उचित हो तहिना करी। राजतिलक केर सब सामग्री सजाकय आनल गेल अछि, जँ प्रभुक मोन मानय त ओकरा सफल करू।

छोट भाइ शत्रुघ्न समेत हमरा वन मे पठा दिअ आ अपने अयोध्या वापस भ’ सब केँ सनाथ करू। नहि त कोनो तरहें हे नाथ! लक्ष्मण और शत्रुघ्न दुनू भाइ केँ घुमा दियौन आ हम अहाँक संग चली। अथवा हम तीनू भाइ वन चलि जाय आर हे श्री रघुनाथजी! अहाँ श्री सीताजी सहित अयोध्या घुरि जाउ। हे दयासागर! जेना प्रभुक मोन प्रसन्न हो, तहिना करू।

हे देव! अपने सबटा भार (जिम्मेवारी) हमरा पर छोड़ि देलहुँ। लेकिन हमरा मे नहि त नीति के विचार अछि, नहि धर्म के। हम त अपन स्वार्थक लेल सबटा बात कहि रहल छी।

आर्त (दुःखी) मनुष्यक चित्त मे चेत (विवेक) नहि रहैत छैक।

स्वामीक आज्ञा सुनिकय जे उत्तर दियए, तेहेन सेवक केँ देखिकय लाजो लजा गेल करैत अछि। हम अवगुणक एहेन अथाह समुद्र छी जे प्रभु केँ उत्तर दय रहल छी, मुदा स्वामी अपने स्नेहवश साधु कहिकय हमर बड़ाई करैत छी।

हे कृपालु! आब त वैह मत हमरा भाबैत अछि जाहि सँ स्वामीक मोन संकोच नहि पाबय। प्रभुक चरणक शपथ अछि हमरा, हम सत्यभाव सँ कहैत छी, जगत केर कल्याणक लेल एकमात्र यैह टा उपाय अछि। प्रसन्न मोन सँ संकोच त्यागि प्रभु जेकरा जे आज्ञा देता, वैह सब कियो सर्वोपरि मानि पालन करत आ सब उपद्रव आ झंझटि मेटा जायत।”

१०. भरतजीक पवित्र वचन सुनि देवता सब हर्षित भेलथि आ ‘साधु-साधु’ कहिकय हुनक प्रशंसा करिते देवता लोकनि फूल बरसाबय लगलाह। अयोध्या निवासी असमंजस केर वश भ’ गेलाह, देखी आब श्री रामजी कि कहैत छथि। तपस्वी तथा वनवासी लोकनि श्री रामजीक वन मे बनल रहबाक आशा सँ मोन मे परम आनन्दित भेलाह। मुदा संकोची श्री रघुनाथजी चुप्पे रहि गेलाह।

११. प्रभुक ई स्थिति (मौन) देखि सम्पूर्ण सभा सोच मे पड़ि गेल। ताहि समय जनकजीक दूत आयल, ई सुनिकय मुनि वशिष्ठजी हुनका तुरन्त बजबा लेलनि। ओ आबिकय प्रणाम कयकेँ श्री रामचन्द्रजी केँ देखलनि। हुनक (मुनि जेहेन) वेष देखिकय ओ बहुते दुःखी भेलथि।

१२. मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी दूत सँ पुछलनि जे राजा जनकक कुशल समाचार कहू। मुनिक कुशल प्रश्न सुनि सकुचाकय पृथ्वी पर मस्तक नमबैत ओ श्रेष्ठ दूत हाथ जोड़िकय बजलाह –

“हे स्वामी! अपनेक आदर संग पुछनाय, यैह हे गोसाईं! कुशल केर कारण भ’ गेल। नहि त हे नाथ! कुशल-क्षेम त सबटा कोसलनाथ दशरथजीक संगहि चलि गेल। हुनकर चलि गेला सँ एना त ई समूचा संसारे अनाथ, स्वामी बिना असहाय भ’ गेल अछि, लेकिन मिथिला आ अवध त विशेष रूप सँ अनाथ भ’ गेल।

अयोध्यानाथ केर गति (दशरथजीक मरण) सुनिकय जनकपुर वासी सब लोक शोकवश सुधि-बुधि बिसरि गेल। ताहि समय जे विदेह केँ (शोकमग्न) देखलनि, हुनका मे सँ किनको एना नहि लगलनि जे हुनकर विदेह (देहाभिमानरहित) नाम सत्य छन्हि! कियैक तँ देहभिमान सँ शून्य पुरुष केँ शोक केहेन?

रानीक कुचालि सुनिकय राजा जनकजी केँ किछुओ सुझाय नहि पड़लनि, जेना मणिक बिना साँप केँ नहि सूझैत छैक।

फेर भरतजी केँ राज्य आर श्री रामचन्द्रजी केँ वनवास सुनिकय मिथिलेश्वर जनकजीक हृदय मे बड़ा दुःख भेलनि। राजा विद्वान आ मंत्री लोकनिक समाज सँ पुछलनि जे विचारिकय कहू, एहि घड़ी कि करब उचित अछि?

अयोध्याक दशा बुझि आ दुनू प्रकार सँ असमंजस देखि जे ‘चलू या रुकू’ कियो किछु नहि कहलनि। जखन कियो कोनो सम्मति नहि देलनि तखन राजा धीरज धरैत हृदय मे विचारिकय चारि गोट चतुर गुप्तचर अयोध्या पठौलनि आ हुनका सब सँ कहलनि जे तूँ सब श्री रामजी प्रति भरतजीक सद्भाव या दुर्भाव केर यथार्थ पता लगाकय जल्दी घुरि अबिहें, केकरो तोरा सभक बारे पता नहि लागि पाबय।

गुप्तचर अवध गेलाह आर भरतजीक ढंग जानि आर हुनक करनी देखि, जहिना भरतजी चित्रकूट लेल चललाह, ओ तिरहुत (मिथिला) वापस चलि देलनि।

गुप्त दूत लोकनि आबिकय राजा जनकजीक सभा मे भरतजीक करनी केँ अपन बुद्धि अनुसार वर्णन कयलनि। से सुनिकय गुरु, कुटुम्बी, मंत्री और राजा सब कियो सोच व स्नेह सँ अत्यन्त व्याकुल भ’ गेलाह। फेर जनकजी धीरज धयकय आर भरतजीक बड़ाई कयकेँ वीर योद्धा ओ सेनानी लोकनि केँ बजौलनि। घर, नगर आर देश मे रक्षक सब केँ राखिकय, घोड़ा, हाथी, रथ आदि बहुतो रास सवारी सब सजबौलनि। ओ दुघड़िया मुहूर्त साधिकय ओहि समय चलि पड़लाह।

राजा रस्ता मे कतहु विश्राम तक नहि कयलनि। आइये भोरे प्रयागराज मे स्नान कयकेँ चलला अछि। जखन सब कियो यमुनाजी पार करय लगलाह, तखन हे नाथ! हमरा खबर लेबाक लेल पठौलनि।”

१३. दूत सब एना कहिकय पृथ्वी पर सिर नमौलनि। मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी करीब छह-सात भील लोकनि केँ संग दैत दूत सब केँ तुरन्त विदा कय देलनि। जनकजीक आगमन सुनि अयोध्याक सारा समाज हर्षित भ’ गेल। श्री रामजी केँ भारी संकोच भेलनि आ देवराज इन्द्र त विशेष रूप सँ सोचक वश मे पड़ि गेलाह। कुटिल कैकेइ मने मन ग्लानि (पश्चाताप) सँ गलल जाइत छथि। केकरा सँ कहती आ केकर दोष देती? आर सब नर-नारी मोन मे एना विचारिकय प्रसन्न भ’ रहल छथि जे नीक भेल, जनकजीक अयला सँ चारि दिन आर रहबाक व्यवस्था भ’ गेल। एहि तरहें ओहो दिन बीति गेल।

१४. दोसर दिन प्रातःकाल सब कियो स्नान करय लगलाह। स्नान कय केँ सब नर-नारी गणेशजी, गौरीजी, महादेवजी आर सूर्य भगवानक पूजा करैत छथि। फेर लक्ष्मीपति भगवान विष्णु केर चरणक वन्दना कयकेँ, दुनू हाथ जोड़िकय, आँचर पसारिकय विनती करैत छथि जे –

“श्री रामजी राजा होइथ! जानकीजी रानी होइथ! आर राजधानी अयोध्या आनन्द केर सीमा भ’ कय समाज सहित सुखपूर्वक बसथि आर श्री रामजी भरतजी केँ युवराज बनाबथि।

हे देव! एहि सुखरूपी अमृत सँ सींचिकय सब गोटे केँ एहि जग मे जिबय के लाभ देल जाउ। गुरु, समाज आ भाइ लोकनि सहित श्री रामजी केर राज्य अवधपुरी मे हो आर श्री रामजीक राजा रहिते हम सब अयोध्या मे मरी।”

सब गोटे यैह मंगैत छथि।

१५. अयोध्यावासीक प्रेम सँ भरल वाणी सुनिकय ज्ञानी मुनि लोकनि अपन योग आ वैराग्यक निन्दा करैत छथि, यानि अयोध्यावासीक सहज भाव के प्रेमक पूर्णता सँ अत्यधिक प्रभावित होइत छथि।

१६. अवधवासी एहि प्रकारे नित्यकर्म कयकेँ श्री रामजी केँ पुलकित शरीर सँ प्रणाम करैत छथि। ऊँच, नीच आर मध्यम सब श्रेणीक स्त्री-पुरुष अपन-अपन भाव अनुसार श्री रामजीक दर्शन प्राप्त करैत छथि। श्री रामचन्द्रजी सावधानीपूर्वक सभक सम्मान करैत छथि आर सब कियो कृपानिधान श्री रामचन्द्रजीक प्रशंसा करैत छथि।

१७. श्री रामजीक बच्चे सँ यैह आदति रहलनि अछि जे ओ प्रेम केँ पहिचान करैत नीति केर पालन करैत छथि। श्री रघुनाथजी शील व संकोच केर समुद्र छथि। ओ सुन्दर मुख के यानि सभक अनुकूल रहयवला, सुन्दर नेत्र वला यानि सब केँ कृपा आ प्रेम केर दृष्टि सँ देखयवला तथा सरल स्वभाव के छथि।

१८. श्री रामजीक गुण समूह केँ कहिते-कहिते सब गोटे प्रेम मे भरि गेलाह आ अपन भाग्यक प्रशंसा करय लगलाह जे जगत मे हमरा सभक समान पुण्यक पैघ पूँजीवला थोड़े न कियो अछि जेकरा श्री रामजी अपनाकय चिन्हैत छथि, ई सब हमर लोक थिकाह से बुझैत चिन्हैत छथि।

हरिः हरः!!

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