स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
भरतजीक मन्दाकिनी स्नान, चित्रकूट पहुँचनाय, भरतादि सभक परस्पर मिलाप, पिताक शोक आर श्राद्ध
१. लक्ष्मणजी, श्री रामचंद्रजी और सीताजी देवता लोकनिक वाणी सुनि बहुते सुख पओलनि जेकर वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि। एम्हर भरतजी समूचा समाजक संग पवित्र मंदाकिनी मे स्नान कयलनि। पुनः सब लोक केँ नदीक समीप ठहराकय माता, गुरु आ मंत्रीक आज्ञा मांगि निषादराज व शत्रुघ्न केँ संग लयकय भरतजी ओतय चललाह जतय श्री सीताजी आ श्री रघुनाथ जी रहथि।
२. भरतजी अपन माता कैकेइ केर करनी केँ याद कयकेँ सकुचाइत छथि आ मोन मे करोड़ों कुतर्क करैत सोचैत छथि जे श्री राम, लक्ष्मण आर सीताजी हमर नाम सुनिकय स्थान छोड़ि कतहु दोसर जगह न चलि जाइथ।
“हमरा माताक मत मे मानि ओ सब जेहो किछु करता ओ थोड़े होयत, लेकिन ओ अपना दिश बुझिकय – अपन सम्बन्ध केँ देखि हमर पाप आ अवगुण सब केँ क्षमा कयकेँ हमर आदरहि करता।”
“चाहे मलिन मन बुझि हमरा त्यागि देथि, चाहे अपन सेवक मानि हमर सम्मान करथि, जेहो करथि, हमरा लेल त श्री रामचंद्रजीक पैरे टा शरण थिक।”
“श्री रामचंद्रजी त नीक स्वामी थिकाह, दोष त सबटा दासहि केर होइत छैक। जगत् मे यश केर पात्र त चातक आर माछ मात्र होइछ, जे अपन नेम आ प्रेम केँ सदिखन नव बनाकय राखय मे निपुण अछि।”
३. एना मोन मे सोचैत भरतजी बाट मे चलल जाइत छथि। हुनकर समस्त अंग संकोच आ प्रेम सँ शिथिल भ’ रहल छन्हि। माताक कयल खराब मानू हुनका घुरबैत छन्हि, मुदा धीरज केर धुरी केँ धारण करनिहार भरतजी भक्तिक बल सँ चलैत जा रहल छथि।
४. जखन श्री रघुनाथजीक स्वभाव केँ स्मरण करैत छथि तखन फेर बाट पर हुनकर डेग तेजी सँ बढ़य लगैत अछि। ओहि समय भरत केर दशा केहेन छन्हि? जेना जलक प्रवाह मे जलक भौंराक गति होइत छैक। भरतजीक सोच आर प्रेम देखि ताहि समय निषाद विदेह भ’ गेलाह, देहक सबटा सुधि-बुधि हेरा गेलन्हि। मंगल शकुन होबय लगलन्हि। हुनका सुनिकय आ विचारिकय निषाद कहय लगलाह – सोच मेटायत, हर्ष होयत, मुदा फेर अन्त मे दुःखे होयत।
५. भरतजी सेवक गुह केर सब वचन सत्य जानलनि आर ओ आश्रम लग पहुँचि गेलाह। ओहि ठामक वन आर पर्वतक समूह केँ देखलनि त भरतजी एतबा आनन्दित भेलाह मानू कोनो भूखल लोक केँ स्वादिष्ट भोजन भेटि गेल हो।
६. जेना ईति* के भय सँ दुःखी भेल आ तीनू आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक ताप व क्रूर ग्रह आ महामारी सँ पीड़ित प्रजा कोनो उत्तम देश और उत्तम राज्य मे जाकय सुखी भ’ जाय, भरतजीक गति ठीक ओहि तरहक भ’ रहल छन्हि। (*अधिक जल बरसब, नहि बरसब, मूस के उत्पात, टिड्डी, तोता आर दोसर राजाक आक्रमण – खेती मे बाधा दयवला एहि छह उपद्रव केँ ‘ईति’ कहल जाइत छैक।)
७. श्री रामचंद्रजीक निवास लग वनक सम्पत्ति एना सुशोभित अछि जेना बढिया राजा पाबिकय प्रजा सुखी होइत छथि।
सुहाओन वन पवित्र देश थिक। विवेक ओकरा राजा थिकैक आ वैराग्य मंत्री थिक।
यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) तथा नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान) योद्धा थिक।
पर्वत राजधानी थिक, शान्ति तथा सुबुद्धि दुइ सुन्दर पवित्र रानी थिकीह।
ओ श्रेष्ठ राजा राज्यक सब अंग सँ पूर्ण छथि आर श्री रामचंद्रजीक चरणक आश्रित रहला सँ हुनक चित्त मे चाव (आनन्द या उत्साह) छन्हि।
स्वामी, आमत्य, सुहृद, कोष, राष्ट्र, दुर्ग आर सेना – राज्य केर सात अंग होइत छैक। मोहरूपी राजाक सेना सहित जीतिकय विवेकरूपी राजा निष्कण्टक राज्य कय रहल छथि। हुनकर नगर मे सुख, सम्पत्ति और सुकाल वर्तमान छन्हि।
वनरूपी प्रान्त मे जे मुनि लोकनिक निवासस्थान छन्हि, वैह मानू शहर, नगर, गाम आ टोल सभक समूह थिक। बहुतो तरहक विचित्र पक्षी आर अनेको तरहक पशु सब मानू प्रजाक समाज थिक, जेकर वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि। गैंडा, हाथी, सिंह, बाघ, सुगर, महींस आर बरदक देखिकय राजाक साज केँ सराहैत नहि बनैत अछि। ई सब आपस के वैर छोड़ि जतय-ततय एक साथ विचरैत अछि। यैह बुझू जे चतुरंगिणी सेना छी।
पानिक झरना झहरि रहल अछि आर मतवाला हाथी चिंघारि रहल अछि। मानू ओ अनेकों प्रकारक नगाड़ा बजा रहल अछि। चकवा, चकोर, पपीहा, तोता तथा कोयलाक समूह आर सुन्दर हंस प्रसन्न मोन सँ कूजि रहल अछि। भौंराक समूह गुंजार कय रहल अछि आर मयूर नाचि रहल अछि। मानू ओहि सुन्दर राज्य मे चारू दिश मंगले-मंगल भ’ रहल हो।
बेल, वृक्ष, तृण सब फल आर फूल सँ युक्त अछि। सारा समाज आनन्द और मंगल के मूल बनि रहल अछि।
८. श्री रामजीक पर्वतक शोभा देखि भरतजीक हृदय मे अत्यंत प्रेम भेलन्हि, जेना तपस्वी नियम पूरा भेलापर तपस्याक फल पाबि सुखी भेल होइथ। तखन केवट दौड़िकय ऊँचका पर चढ़ि गेलाह आर हाथ उठाकय भरतजी सँ कहय लगलाह –
“हे नाथ! ई जे पाकरि, जामुन, आम और तमाल केर विशाल वृक्ष देखा रहल अछि, जाहि श्रेष्ठ वृक्षक बीच मे एक सुन्दर विशाल बड़गद केर वृक्ष सुशोभित अछि, जेकरा देखिकय मनमोहित भ’ जाइत अछि, ओकर पत्ता नीला आ सघन अछि आर ओहि मे लाल फल लागल अछि। ओकर घनगर छाया सब ऋतु मे सुख दयवाली अछि। मानू ब्रह्माजी परम शोभा केँ एकत्र कयकेँ अंधकार आर लालिमामयी राशि सँ रचि देने छथि।
हे गोसाईं! ई वृक्ष नदीक समीप अछि, जतय श्री रामक पर्णकुटी छन्हि। ओतय तुलसीजीक बहुतो रास सुन्दर वृक्ष सेहो सुशोभित अचि जे कतहु-कतहु सीताजी आ कतहु लक्ष्मणजी लगौलनि अछि। एहि बड़गदक छाहरि मे सीताजी अपन करकमल सँ सुन्दर वेदी बनौलनि अछि। जतय सुजान श्री सीता-रामजी मुनि लोकनिक वृन्द समेत बैसिकय नित्य शास्त्र, वेद आर पुराण केर सब कथा-इतिहास सुनैत छथि।”
९. सखाक वचन सुनिकय आर वृक्ष सब केँ देखिकय भरतजीक नेत्र मे जल उमड़ि पड़लन्हि। दुनू भाइ प्रणाम करैत चलि पड़लाह। हुनक प्रेमक वर्णन करय मे सरस्वतीजी सेहो सकुचाइत छथि। श्री रामचन्द्रजीक चरणचिह्न देखिकय दुनू भाइ एना हर्षित होइत छथि, मानू दरिद्र पारस पाबि गेल हुए। ओहि ठामक रज (धुरा) माथ पर राखि हृदय मे आ नेत्र मे लगबैत छथि आर श्री रघुनाथजी सँ भेंटे करय समान सुख पबैत छथि।
१०. भरतजीक अत्यन्त अनिर्वचनीय दशा देखि वनक पशु, पक्षी आ जड़ (वृक्षादि) जीव प्रेम मे मग्न भ’ गेल अछि। प्रेमक विशेष वश भेला सँ सखा निषादराज केँ सेहो रस्ता बिसरा गेलनि। तखन देवता सुन्दर रस्ता बतबैत फूल बरसाबय लगलाह। भरतक प्रेम केर एहि स्थिति केँ देखि सिद्ध आर साधक सब अनुराग सँ भरि गेलथि आर हुनक स्वाभाविक प्रेमक प्रशंसा करय लगलाह जे जँ एहि पृथ्वीतल पर भरतक जन्म व प्रेम नहि होइतय त जड़ केँ चेतन आ चेतन केँ जड़ के करैत?
११. प्रेम अमृत थिक, विरह मंदराचल पर्वत थिक, भरतजी गहींर समुद्र छथि। कृपाक समुद्र श्री रामचन्द्रजी देवता आर साधु लोकनिक हित वास्ते स्वयं एहि भरतरूपी गहींर समुद्र केँ अपन विरहरूपी मंदराचल सँ मथिकय ई प्रेम रूपी अमृत प्रकट कयलनि अछि।
१२. सखा निषादराज सहित एहि मनोहर जोड़ी केँ सघन वन केर झाँपक कारण लक्ष्मणजी नहि देखि पेलनि। भरतजी प्रभु श्री रामचन्द्रजीक समस्त सुमंगलक धाम आर सुन्दर पवित्र आश्रम देखलनि। आश्रम मे प्रवेश करिते भरतजीक दुःख आ दाह मेटा गेलनि, मानू योगी केँ परमार्थ (परमतत्व) केर प्राप्ति भ’ गेल होइन्ह।
१३. भरतजी देखलनि जे –
लक्ष्मणजी प्रभुक आगू ठाढ़ छथि आ पूछल बात प्रेमपूर्वक कहि रहल छथि। सिर पर जटा छन्हि, डाँर्ह मे मुनि समान वल्कल वस्त्र बँधने छथि आर ओहि मे तरकस कसल छन्हि। हाथ मे बाण तथा कन्धा पर धनुष छन्हि, वेदी पर मुनि आ साधु लोकनिक समुदाय बैसल छथि आ सीताजी सहित श्री रघुनाथजी विराजमान छथि।
श्री रामजीक वल्कल वस्त्र छन्हि, जटा धारण कएने छथि, श्याम शरीर छन्हि। सीता-रामजी एना लगैत छथि मानू रति और कामदेव मुनिक वेष धारण कएने होइथ।
श्री रामजी अपन करकमल सँ धनुष-बाण फेरि रहल छथि आर हँसिकय देखिते देरी जी के जलन हरण कय लैत छथि, माने कि जेकरा दिश एक बेर हँसिकय देख लैत छथि, ओकरे परम आनन्द आ शान्ति भेटि जाइत छैक।
सुन्दर मुनि मंडलीक बीच मे सीताजी आर रघुकुलचंद्र श्री रामचन्द्रजी एना सुशोभित भ’ रहल छथि मानू ज्ञानक सभा मे साक्षात् भक्ति आर सच्चिदानंद शरीर धारण कयकेँ विराजमान होइथ।
१४. छोट भाइ शत्रुघ्न और सखा निषादराज समेत भरतजीक मन प्रेम मे मग्न भ’ रहल छन्हि। हर्ष-शोक, सुख-दुःख आदि सब बिसरि गेलथि। ‘हे नाथ! रक्षा करू, हे गोसाईं! रक्षा करू’ एना कहिकय ओ पृथ्वी पर दण्ड जेकाँ खसि पड़लाह।
१५. प्रेम भरल वचन सँ लक्ष्मणजी चिन्हि लेलखिन आर मोन मे जानि लेलखिन जे भरतजी प्रणाम कय रहल छथि। ओ चूँकि श्री रामजी दिश मुँह कएने ठाढ़ रहथि, भरतजी पीठ पाछू रहथि, ताहि सँ ओ हुनका देखलनि नहि। आब एम्हर भाइ भरतजीक सरस प्रेम आ ओम्हर स्वामी श्री रामचन्द्रजीक सेवाक प्रबल परवशता! नहि त क्षणहु भरिक लेल सेवा सँ पृथक भ’ कय मिलिते बनैत अछि आ न प्रेमवश छोड़िते (उपेक्षा करिते) बनैत अछि। कियो श्रेष्ठ कवि लक्ष्मणजीक चित्त केर एहि गति (दुविधा) केर वर्णन कय सकैत छथि। ओ सेवा पर भार राखिकय रहि गेलाह, माने जे सेवे केँ विशेष महत्वपूर्ण बुझिकय ओहि मे लागल रहलाह, मानू आकाश लागल पतंग (गुड्डी) केँ उड़ेनिहार जबरदस्ती अपना दिश खींचि रहल हुए।
१६. लक्ष्मणजी प्रेम सहित पृथ्वी पर मस्तक नमाकय कहलनि – हे रघुनाथजी! भरतजी प्रणाम कय रहल छथि।” ई सुनिते श्री रघुनाथजी प्रेम मे अधीर भ’ कय उठलाह। कतहु वस्त्र खसल, कतहु तरक, कतहु धनुष आ कतहु बाण। कृपा निधान श्री रामचन्द्रजी हुनका जबरदस्ती उठाकय हृदय सँ लगा लेलनि।
१७. भरतजी आर श्री रामजीक मिलन केर रीति केँ देखिकय सब कियो अपन सुधि-बुधि बिसरि गेल। मिलनक प्रीति केना बखानल जाय? ओ त कविकुल लेल कर्म, मन, वाणी तीनू सँ अगम अछि। दुनू भाइ भरतजी आर श्री रामजी मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार केँ बिसरिकय परम प्रेम सँ पूर्ण भ’ रहल छथि। कहू, ओहि श्रेष्ठ प्रेम केँ के प्रकट करय? कविक बुद्धि केकर छायाक अनुसरण करय? कवि केँ त अक्षर और अर्थ टा के सच्चा बल छन्हि। नट ताल केर गतिक अनुसारे नचैत अछि!
१८. भरतजी आर श्री रघुनाथजीक प्रेम अगम्य अछि, जतय ब्रह्मा, विष्णु और महादेवहु केर मोन नहि जा सकैत अछि। ओहि प्रेम केँ हम कुबुद्धि कोन प्रकारे कहू! भला, मोथाक ताँत सँ कतहु सुन्दर राज बाजि सकैत अछि?
१९. भरतजी और श्री रामचन्द्रजीक मिलनक ढंग देखिकय देवता भयभीत भ’ गेलथि, हुनका सभक धुकधुकी धड़कय लगलनि। देव गुरु बृहस्पतिजी बुझेलखिन तखन जा कय ओ मूर्ख सब चेतलथि आ फूल बरसाकय प्रशंसा करय लागलथि।
२०. फेर श्री रामजी प्रेम सँ शत्रुघ्न संग भेटलथि, तखन केवट (निषादराज) सँ भेटलथि। प्रणाम करिते लक्ष्मणजी सँ भरतजी बड़ा प्रेम सँ भेटलथि। तखन लक्ष्मणजी बड उमंग सँ छोट भाइ शत्रुघ्न सँ भेटलथि। फेर ओ निषादराज केँ हृदय सँ लगा लेलनि। फेर भरत-शत्रुघ्न दुनू भाइ उपस्थित मुनि लोकनि केँ प्रणाम कयलनि आर इच्छित आशीर्वाद पाबिकय ओ आनन्दित भेलथि।
२१. छोट भाइ शत्रुघ्न सहित भरतजी प्रेम मे उमँगिकय सीताजीक चरणकमल केर रज सिर पर धारण कय बेर-बेर प्रणाम करय लगलाह। सीताजी हुनका लोकनि केँ उठाकय हुनकर माथ पर अपन करकमल सँ स्पर्श करैत, हाथ फेरैत आशीर्वाद दैत दुनू केँ बैसेलीह।
२२. सीताजी मनहि-मन आशीर्वाद देलनि, कियैक तँ ओ स्नेह मे मग्न रहथि। हुनका सब केँ देहक सुधि-बुधि नहि रहनि। सीताजी केँ सब प्रकार सँ अपन अनुकूल देखि भरतजी सोचरहित भ’ गेलाह आर हुनकर हृदयक कल्पित भय सेहो हेरा गेलनि। ताहि समय नहि त कियो किछु कहैत छथि, नहियो कियो किछु पुछैत छथि! मोन प्रेम सँ परिपूर्ण अछि, ओ अपन गति सँ खाली अछि। अर्थात् संकल्प-विकल्प आर चांचल्य सँ शून्य अछि।
२३. ओहि अवसर पर केवट (निषादराज) धीरज धय आर हाथ जोड़िकय प्रणाम कयकेँ विनती करय लगलाह – हे नाथ! मुनिनाथ वशिष्ठजीक संग सब माता लोकनि, नगरवासी, सेवक, सेनापति, मंत्री – सब अहाँक वियोग सँ व्याकुल भ’ कय आयल छथि।
२४. गुरुक आगमन सुनिकय शील केर समुद्र श्री रामचन्द्रजी सीताजी लग शत्रुघ्नजी केँ राखि देलनि आर ओ परम धीर, धर्मधुरन्धर, दीनदयालु श्री रामचन्द्रजी ताहि समय वेग सँ चलि पड़लाह। गुरुजीक दर्शन कयकेँ लक्ष्मणजी सहित प्रभु श्री रामचन्द्रजी प्रेम मे भरि गेलाह आर दण्डवत प्रणाम करय लगलाह।
२५. मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी दौड़िकय हुनका हृदय सँ लगा लेलनि आर प्रेम मे उमँगिकय ओ दुनू भाइ सँ भेटलथि। फेर प्रेम सँ पुलकित भ’ कय केवट (निषादराज) अपन नाम लयकय दूरहि सँ वशिष्ठजी केँ दण्डवत प्रणाम कयलनि। ऋषि वशिष्ठजी रामसखा जानि हुनको जबर्दस्ती हृदय सँ लगा लेलनि। मानू जमीन पर लेटाइत प्रेम केँ समेट लेने होइथ।
२६. श्री रघुनाथजीक भक्ति सुन्दर मंगल केर मूल थिक, एतेक कहि सराहना करैत देवता सब आकाश सँ फूल बरसाबय लगलथि। ओ कहय लगलथि – जगत मे एकरा समान सर्वथा नीच कियो नहि अछि आर वशिष्ठजी समान पैघ कियो नहि अछि। निषाद केँ देखिकय मुनिराज वशिष्ठजी लक्ष्मणहुजी सँ बेसी आनन्दित भ’ कय भेटलथि। ई सब सीतापति श्री रामचन्द्रजीक भजन केर प्रत्यक्ष प्रताप व प्रभाव थिक।
२७. दयाक खान, सुजान भगवान श्री रामजी सब लोक केँ दुःखी (मिलबाक लेल व्याकुल) देखलनि। तखन जे जाहि भाव सँ भेटबाक अभिलाषी छल, तेकरा सब केँ ताहि प्रकारे, हुनकहि लोकनिक रुचि अनुसार ओ लक्ष्मणजी सहित क्षणहि भरि मे मिलिकय सभक दुःख और कठिन संताप केँ दूर कय देलनि। श्री रामचन्द्रजीक लेल ई कोनो बड़का बात नहि अछि। जेना करोड़ों घड़ा मे एकटा सूर्य पृथक-पृथक छाया (प्रतिबिम्ब) एके संग देखाइत अछि।
२८. समस्त पुरवासी प्रेम मे उमँगिकय केवट सँ मिलि ओकर भाग्यक सराहना करैत छथि। श्री रामचन्द्रजी सब माता लोकनि केँ दुःखी देखलनि। मानू सुन्दर लताक पंक्ति केँ पाला मारि देने हो! सबसँ पहिने रामजी कैकेयी सँ भेटलथि आर अपन सरल स्वभाव तथा भक्ति सँ हुनक बुद्धि केँ ओतप्रोत कय देलनि। फेर चरण पकड़ि काल, कर्म आ विधाताक दोष मढ़ैत श्री रामजी हुनका सान्त्वना देलनि। पुनः श्री रघुनाथजी सब माता लोकनि सँ भेटलाह। ओ सबकेँ समझा-बुझा सन्तोष करौलनि जे हे माता! जगत ईश्वरक अधीन अछि। केकरहु दोष नहि देबाक चाही।
२९. तेकर बाद दुनू भाइ ब्राह्मण लोकनि केँ स्त्री सहित – जे सब भरतजीक संग आयल छलथि, गुरुजीक पत्नी अरुंधतीजीक चरणक वन्दना कयलनि आर हुनका सब गोटे केँ गंगाजी आ गौरीजी केर समान आदर-सम्मान कयलनि। ओ सब आनन्दित भ’ कय कोमल वाणी सँ आशीर्वाद देबय लगलथि।
३०. तखन दुनू भाइ पैर पकड़िकय सुमित्राजीक अंक लागि गेलाह, मानू कोनो दरिद्र केँ सम्पत्ति भेटि गेल हो! फेर दुनू भाइ माता कौसल्याजीक चरण मे गिर पड़लाह। प्रेमक मारे हुनकर सारा अंग शिथिल छन्हि। बहुते स्नेह सँ माता हुनका लोकनि केँ हृदय सँ लगा लेलीह। नेत्र सँ बहल प्रेमाश्रुक जल सँ हुनका नहा देलीह बुझू।
३१. ताहि समयक हर्ष आर विषाद केँ कवि केना कहय? जेना गोंग लोक स्वाद केना बतायत? श्री रघुनाथजी छोट भाइ लक्ष्मणजी सहित माता कौसल्या सँ मिलिकय गुरु सँ कहलनि जे आश्रम पर आउ। तदनन्तर मुनीश्वर वशिष्ठजीक आज्ञा पाबिकय अयोध्यावासी सब लोक जल आर थल केर सुभीता देखि-देखिकय उतरि गेलाह।
३२. ब्राह्मण, मंत्री, माता लोकनि आर गुरु आदि गिनल-चुनल लोक केँ संग लेने भरतजी, लक्ष्मणजी और श्री रघुनाथजी पवित्र आश्रम केँ चललाह।
३३. सीताजी आबिकय मुनि श्रेष्ठ वशिष्ठजीक चरण लगलीह आर ओ मनचाहा आशीष पयलीह। फेर मुनि लोकनिक स्त्री सहित गुरुपत्नी अरुन्धतीजी सँ भेटलीह। हुनकर जे प्रेम छलन्हि से कहल नहि जाइत अछि। सीताजी सभक चरणक अलग-अलग वन्दना कयकेँ अपन हृदयक अनुकूल आशीर्वाद पयलीह।
३४. जखन सुकुमारी सीताजी सब सासु लोकनि केँ देखली, तखन ओ सहमिकय अपन आँखि बन्द कय लेलीह। सासु सभक दुखदायी अवस्था देखिकय हुनका एना लगलनि मानू राजहंसिनी बधिकक वश पड़ि गेल हो। मोन मे सोचय लगलीह जे कुचाली विधाता कि कय देलनि? ओहो सब सीताजी केँ देखिकय बहुत दुःख पेली। सोचली, जे किछु दैव सहाबथि ओ सब सहइये टा पड़ैत छैक। तखन जानकीजी हृदय मे धीरज धरैत, नीलकमल समान नेत्र मे जल भरिकय, सब सासु लोकनि सँ जाय कय भेटलीह।
३५. ताहि समय पृथ्वी पर करुणा (करुण रस) पसैर गेल। सीताजी सभक पैर लागि-लागिकय अत्यन्त प्रेम सँ भेटि रहली अछि आर सब सासु लोकनि स्नेहवश हृदय सँ आशीर्वाद दय रहल छथि जे अहाँ सुहाग सँ भरल रहू, सदा सौभाग्यवती रहू। सीताजी और सब रानी लोकनि स्नेहक मारे व्याकुल छथि।
३६. तखन ज्ञानी गुरु सबकेँ बैसि जेबाक लेल कहलनि। फेर मुनिनाथ वशिष्ठजी जगत केर गति केँ मायिक कहकर (अर्थात जगत मायाक थिक, एहि मे किछुओ नित्य नहि अछि, एना कहिकय) किछु परमार्थक कथा (बात) कहलनि। तदनन्तर वशिष्ठजी राजा दशरथजीक स्वर्ग गमन केर बात सुनौलनि। जे सुनिकय रघुनाथजी दुःसह दुःख पेलनि आर अपना प्रति हुनकर स्नेह केँ हुनकर मरबाक कारण विचारिकय धीरधुरन्धर श्री रामचन्द्रजी अत्यन्त व्याकुल भ’ गेलाह।
३७. वज्र समान कठोर, कड़ा वाणी सुनिकय लक्ष्मणजी, सीताजी और सब रानी लोकनि विलाप करय लगलीह। सारा समाज शोक सँ अत्यन्त व्याकुल भ’ गेल, मानू राजा आइये मरल होइथ। फेर मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी श्री रामजी केँ बुझौलनि। तखन ओ समाज सहित श्रेष्ठ नदी मंदाकिनीजी मे स्नान कयलनि। ताहि दिन प्रभु श्री रामचन्द्रजी निर्जल व्रत कयलनि। मुनि वशिष्ठजीक कहलापर कियो ओहि दिन जल ग्रहण नहि कयलनि। दोसर दिन भोर भेलाक बाद मुनि वशिष्ठजी श्री रघुनाथजी केँ जे-जे आज्ञा देलनि, ओ सब कार्य प्रभु श्री रामचन्द्रजी श्रद्धा-भक्ति सहित आदर संग सम्पन्न कयलनि। (यथार्थतः श्राद्ध एहि समर्पण केँ कहल जाइछ जे पितर प्रति पूर्ण श्रद्धा सँ कर्त्ता पुत्र केँ करबाक चाही।)
३८. वेद मे जेना कहल गेल अचि, ताहि अनुसार पिताक क्रिया कय केँ पापरूपी अंधकार केँ नष्ट करयवला सूर्यरूप श्री रामचन्द्रजी शुद्ध भेलाह। जिनकर नाम पाप रूपी रुइया केँ तुरन्त जरा दयवला अग्नि थिक आ जिनकर स्मरण मात्र समस्त शुभ मंगल केर मूल थिक, से नित्य शुद्ध-बुद्ध भगवान श्री रामजी शुद्ध भेलाह!!
३९. साधु सभक एहेन सम्मति छन्हि जे हुनकर शुद्ध होयब ओहिना अछि जेना तीर्थ सभक आवाहन सँ गंगाजी शुद्ध होइत छथि। गंगाजी त स्वभावहि सँ शुद्ध छथि, हुनका लेल जाहि तीर्थ सभक आवाहन कयल जाइत अछि, उल्टा वैह सब गंगाजीक सम्पर्क मे एला सँ शुद्ध भ’ जाइत छथि। तहिना सच्चिदानन्द रूप श्रीराम त नित्य शुद्ध छथि, हुनकर संसर्ग सँ कर्म स्वयं शुद्ध भ’ गेल।
४०. जखन शुद्ध भेला दुइ दिन बीति गेल तखन श्री रामचन्द्रजी प्रीतिपूर्वक गुरुजी सँ कहला – हे नाथ! सब कियो एतय अत्यन्त दुःखी भ’ रहल छथि। कन्द, मूल, फल आ जल टा के आहार करैत छथि। भाइ शत्रुघ्न सहित भरत केँ, मंत्री लोकनि केँ आर सब माता लोकनि केँ देखिकय हमरा एक-एक पल युग जेकाँ बीति रहल अछि। अतः सभक संग अपने अयोध्यापुरी लौटि जाउ। अपने एतय छी आर राजा अमरावती (स्वर्ग) मे छथि। अयोध्या सून्न अछि! हम बहुते कहि देलहुँ, ई सब बड ढिठाइ कयलहुँ अछि। हे गोसाईं! जेना उचित हो, तहिना कयल जाउ।
४१. वशिष्ठजी बजलाह – हे राम! अहाँ धर्मक सेतु आर दयाक धाम छी, अहाँ भले एना कियैक न कहब? लोक दुःखी छथि। दुइ दिन अहाँक दर्शन कय शान्ति लाभ कय लेथि।
४२. श्री रामजीक वचन सुनिकय समस्त समाज भयभीत भ’ गेलथि। मानू बीच समुद्र मे जहाज डगमगा गेल हो, लेकिन जखन गुरु वशिष्ठजीक श्रेष्ठ कल्याणमूलक वाणी सुनलनि तखन ओ हवा डगमगाइत जहाज लेल मानू अनुकूल भ’ गेल।
४३. सब कियो पवित्र पयस्विनी नदी मे तीनू साँझ (भोर, दुपहर आर सायंकाल) स्नान करैत छथि, जिनकर दर्शनहि सँ पाप सभक समूह नष्ट भ’ जाइत अछि आर मंगलमूर्ति श्री रामचन्द्रजी केँ दण्डवत प्रणाम कय-कयकेँ हुनका नेत्र भरि-भरिकय देखैत छथि।
४४. सब श्री रामचन्द्रजीक पर्वत (कामदगिरि) आर वन केँ देखय जाइत छथि, जतय सब सुख अछि आर सब दुःखक अभाव अछि। झरना अमृत समान जल झहराबैत अछि आर तीनू प्रकार – शीतल, मन्द ओ सुगन्ध हवा तीनू प्रकारक – आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक ताप केर हरण कय लैत अछि। असंख्य जातिक वृक्ष, लता आर तृण सब अछि तथा बहुतो तरहक फल, फूल आ पत्ता सब अछि। सुन्दर शिला सब अछि। वृक्षक शोभाक वर्णन के कय सकैत अछि?
हरिः हरः!!