स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
श्री रामजीक लक्ष्मणजी केँ बुझेनाय आ भरतजीक महिमा कहनाय
१. देववाणी सुनिकय लक्ष्मणजी सकुचा गेलाह। श्री रामचंद्रजी आर सीताजी हुनकर आदर सँ सम्मान कयलनि आर कहलनि –
“हे तात! अहाँ बहुत सुन्दर नीति कहलहुँ। हे भाइ! राज्यक मद सब सँ कठिन मद थिक।
जे साधु लोकनिक सभाक सेवन (सत्संग) नहि कयलक, वैह राजा राजमद रूपी मदिराक आचमन करैत अछि, पिबैत अछि, मतवाला भ’ जाइत अछि।
हे लक्ष्मण! सुनू, भरत जेहेन उत्तम पुरुष ब्रह्माक सृष्टि मे नहि त कतहु सुनल गेल अछि, नहिये देखल गेल अछि। अयोध्याक राज्यक त बाते की, ब्रह्मा, विष्णु और महादेव केर पद पाबियोकय भरत केँ राज्यक मद नहि हेतनि!
कि कहियो काँजी (मठ्ठाक खट्टा पानि) केर बूँद सँ क्षीरसमुद्र नष्ट भ’ सकैत अछि, फाटि सकैत अछि?
अन्धकार चाहे तरुण (मध्याह्न केर) सूर्य केँ निगलि जाय, आकाश चाहे बादल मे समाकय मिलि जाय, गायक खुर जतेक जल मे अगस्त्यजी डूबि जाइथ आर पृथ्वी चाहे अपन स्वाभाविक क्षमा (सहनशीलता) केँ छोड़ि देथि, मच्छर केर फूँक सँ चाहे सुमेरु उड़ि जाय, मुदा हे भाइ! भरत केँ राजमद कहियो नहि भ’ सकैत अछि।
हे लक्ष्मण! हम अहाँक शपथ आर पिताजीक शपथ खाकय कहैत छी, भरत समान पवित्र आ उत्तम भाइ संसार मे कतहु नहि अछि।
हे तात! गुणरूपी दूध आर अवगुण रूपी जल केँ मिलाकय विधाता एहि दृश्य प्रपंच (जगत्) केँ रचैत छथि, लेकिन भरत सूर्यवंश रूपी पोखरि मे हंसरूप जन्म लयकय गुण आर दोष दुनू केँ अलग-अलग कय देलनि। गुणरूपी दूध केँ ग्रहण कय आ अवगुणरूपी जल त्यागिकय भरत अपना यश सँ जगत् मे उजियारा कय देलनि अछि।”
२. भरतजीक गुण, शील आर स्वभाव कहैत-कहैत श्री रघुनाथजी प्रेमसमुद्र मे मग्न भ’ गेलाह। श्री रामचंद्रजीक वाणी सुनिकय आर भरतजी पर हुनकर प्रेम देखिकय समस्त देवता हुनकर सराहना करय लगलाह आ कहय लगलाह –
“श्री रामचंद्रजीक समान कृपाक धाम प्रभु आर के छथि?
यदि जगत् मे भरतक जन्म नहि होइत त पृथ्वी पर सम्पूर्ण धर्मक धुरी केँ के धारण करैत?
हे रघुनाथजी! कविकुल लेल अगम (हुनका लोकनिक कल्पना सँ अतीत) भरतजीक गुण सभक कथा अहाँक अलावे आर के जानि सकैत छथि?”
हरिः हरः!!