स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
श्री सीताजीक स्वप्न, श्री रामजी केँ कोल-किरात द्वारा भरतजीक आगमनक सूचना, रामजीक शोक, लक्ष्मणजीक क्रोध
१. एम्हर श्री रामचंद्रजी राति शेष रहिते जागि गेलाह। राति केँ सीताजी एहेन सपना देखलीह जे ओ श्री रामचंद्रजी केँ सुनाबय लगलीह, मानू समाज सहित भरतजी एतय आयल छथि। प्रभुक वियोग केर अग्नि सँ हुनकर शरीर संतप्त छन्हि। सब लोक मोन सँ उदास, दीन आ दुःखी छथि। सासु लोकनि केँ अलगे सूरत देखलीह। सीताजीक सपना सुनि श्री रामचंद्रजीक नेत्र मे जल भरि गेलनि आ सब केँ सोच सँ मुक्ति देनिहार प्रभु स्वयं लीला सँ सोचक वश भ’ गेलाह आ बजलाह – लक्ष्मण! ई सपना नीक नहि अछि। कोनो भीषण कुसमाचार सुनायत। एना कहि ओ भाइ सहित स्नान कयलनि आ त्रिपुरारी महादेवजीक पूजा कयकेँ साधु लोकनिक सम्मान कयलनि।
२.
छंद :
सनमानि सुर मुनि बंदि बैठे उतर दिसि देखत भए।
नभ धूरि खग मृग भूरि भागे बिकल प्रभु आश्रम गए॥
तुलसी उठे अवलोकि कारनु काह चित सचकित रहे।
सब समाचार किरात कोलन्हि आइ तेहि अवसर कहे॥
देवता लोकनिक सम्मान (पूजन) आर मुनि लोकनिक वन्दना कयकेँ श्री रामचंद्रजी बैसि रहलाह आर उत्तर दिश देखय लगलाह। आकाश मे धूलकण आच्छादित अछि, बहुतो रास चिड़ै-चुनमुनी आ पशु सब व्याकुल भ’ भगिते प्रभुक आश्रम दिश आबि रहल अछि। तुलसीदासजी कहैत छथि जे प्रभु श्री रामचंद्रजी ई सब देखिकय उठलथि आ सोचय लगलाह जे कि कारण अछि। ओ चित्त मे आश्चर्ययुक्त भ’ गेलथि। ताहि समय कोल-भील सब आबिकय सबटा समाचार कहलकनि।
३. तुलसीदासजी कहैत छथि जे सुन्दर मंगल वचन सुनिते श्री रामचंद्रजीक मोन मे बड़ा आनन्द भेलनि। शरीर पुलकित भ’ गेलनि आ शरद् ऋतुक कमल जेहेन आँखि मे प्रेमक नोर भरि गेलनि। सीतापति श्री रामचंद्रजी पुनः सोचक वश भ’ गेलथि जे भरत के अयबाक कि कारण अछि? फेर एक गोटे आबिकय कहलकनि जे हुनका संग मे बड भारी चतुरंगिणी सेना सेहो छन्हि। ई सुनिकय श्री रामचंद्रजी केँ आर बेसी सोच भेलनि। एम्हर त पिताक वचन आ ओम्हर भाइ भरतजीक संकोच! भरतजीक स्वभाव मन मे बुझैत प्रभु श्री रामचंद्रजी चित्त केँ रोकबाक लेल कोनो स्थाने नहि देखैत छथि। तखन ई जानि समाधान भ’ गेलनि जे भरत साधु आर समझदार छथि, संगहि हमर आज्ञा माननिहार छथि।
४. लक्ष्मणजी देखलनि जे प्रभु श्री रामजीक हृदय मे चिन्ता छन्हि त ओ समय अनुसार अपन नीतियुक्त विचार कहय लगलाह –
“हे स्वामी! अहाँक बिनु पुछनहि हम किछु कहैत छी, सेवक समय पर ढिठाइ करय तँ ढीठ जुनि बुझब।
हे स्वामी! अपने सर्वज्ञहु मे शिरोमणि थिकहुँ, सब किछु जनिते छी। हम सेवक त बस अपन समझ के बात कहैत छी।
हे नाथ! अहाँ परम सुहृद्, अकारणे परम हित करयवला, सरल हृदय तथा शील ओ स्नेह केर भंडार छी, सभक उपर प्रेम आ विश्वास अछि, आर अपन हृदय मे सब केँ अपनहि समान जनैत छी। लेकिन मूढ़ विषयी जीव प्रभुता पाबिकय मोहवश अपन असली स्वरूप केँ प्रकट कय दैत अछि।
भरत नीतिपरायण, साधु आर चतुर लोक छथि तथा अपनेक चरण मे हुनकर प्रेम छन्हि, ई बात केँ पूरा जगत् जनैत अछि। ओ भरतजी आइ श्री रामजीक पद (सिंहासन या अधिकार) पाबिकय धर्मक मर्यादा मेटाकय चलला अछि। कुटिल खोट भाइ भरत कुसमय देखिकय आर ई जानिकय जे रामजी वनवास मे अकेले (असहाय) छथि, अपन मोन मे खराब विचार कयकेँ, समाज जोड़िकय राज्य केँ निष्कण्टक करबाक लेल एतय अयलाह अछि। करोड़ों (अनेकों) प्रकारक कुटिलता रचिकय सेना लयकय दुनू भाइ अयलाह अछि।
यदि हिनकर हृदय मे कपट और कुचालि नहि रहैत त रथ, घोड़ा आ हाथीक कतार एहेन समय केकरा सोहाइत छैक? धरि भरतहि केँ कियो व्यर्थ कियैक दोष दइन? राजपद पाबि गेलापर सारा जगत् पागल (मतवाला) भ’ जाइत अछि।
चंद्रमा गुरुपत्नी गामी भेलाह, राजा नहुष ब्राह्मण लोकनिक पालकी पर चढ़लाह आर राजा वेन जेहेन नीच त कियो नहि होयत जे लोक आ वेद दुनू सँ विमुख भ’ गेलाह। सहस्रबाहु, देवराज इन्द्र आर त्रिशंकु आदि केकरा राजमद कलंक नहि देलक?
भरत ई उपाय उचिते कयलनि अछि, कियैक तँ शत्रु आर ऋण केँ कखनहुँ कनिकबो बाकी नहि रखबाक चाही। हाँ, भरत एक बात नीक नहि कयलनि, जे रामजी केँ असहाय जानि हुनकर निरादर कयलनि। मुदा आइ संग्राम मे रामजीक क्रोधपूर्ण मुख देखिकय ई बात सेहो हुनकर समझ मे नीक जेकाँ आबि जेतनि, एहि निरादरक फल सेहो ओ नीक जेकाँ पाबि जेता।”
५. एतेक कहिते लक्ष्मणजी नीतिरस बिसरि गेलाह आ युद्धरस रूपी वृक्ष पुलकावली (रोइयाँ ठाढ़) हेबाक बहाने फूलि उठलनि, नीति के बात कहैत-कहैत हुनकर शरीर मे वीर रस सवार भ’ गेलनि। ओ प्रभु श्री रामचंद्रजीक चरणक वन्दना कयकेँ, चरण रज केँ माथपर राखि सच्चा आ स्वाभाविक बल कहिते बजलाह –
“हे नाथ! हमर कथन केँ अनुचित नहि मानब। भरत हमरा सब केँ कम नहि पछारलनि अछि। आखिर कतय धरि सहल जाय आर मोन केँ मारिकय रहल जाय, जखन स्वामी हमरा संग छथि आर धनुष हमर हाथ मे अछि!
क्षत्रिय जाति, रघुकुल मे जन्म आर फेर हम श्री रामजीक अनुगामी (सेवक) छी, ई जगत् जनैत अछि। फेर भला केना सहल जाय? धूल समान नीच के अछि, मुदा ओकरो लात मारला पर माथे पर चढ़ैत अछि।”
६. एना कहिकय लक्ष्मणजी उठिकय, हाथ जोड़िकय आज्ञा मँगलनि। मानू वीररस सुतल सँ उठि गेल हुए! माथपर जटा बान्हिकय डाँर्ह मे तरकस कसि लेलनि आ धनुष केँ सजाकय आ बाण हाथ मे लयकय कहलाह –
“आइ हम श्री राम केर सेवक होयबाक यश ली आर भरत केँ संग्राम मे शिक्षा दी। श्री रामचंद्रजीक निरादर के फल पाबि दुनू भाइ (भरत-शत्रुघ्न) रण शय्या पर सुतथि। नीक भेल जे सारा समाज आबिकय एकत्रित भ’ गेला अछि। आइ हम पैछला सबटा क्रोध प्रकट करब।
जेना सिंह हाथीक झुंड केँ कुचलि दैत अछि आर बाज जेना लवा केँ लपेट मे लय लैत अछि, तहिना भरतक सेना समेत आर छोटे भाइ सहित तिरस्कार कयकेँ मैदान मे पछाड़ब। यदि शंकरजी सेहो आबिकय हुनकर सहायता करता, तैयो, हमरा रामजीक शपथ अछि, हम हुनका युद्ध मे अवश्य मारि देब, छोड़ब नहि।”
७. लक्ष्मणजी केँ अत्यंत क्रोध सँ तमतमायल देखि आर हुनकर प्रामाणिक शपथ सुनिकय सब कियो भयभीत भ’ जाइत छथि आर लोकपाल घबड़ाहट मे भागय चाहैत छथि। सारा जगत् भय मे डूबि गेल। तखन लक्ष्मणजीक अपार बाहुबल केर प्रशंसा करैत आकाशवाणी भेल –
“हे तात! अहाँक प्रताप आर प्रभाव केँ के कहि सकैत अछि आर के जानि सकैत अछि? मुदा कोनो काज हुए, ओकर अनुचित-उचित खूब बढियाँ सँ समझि-बुझि कयल जाय त सब कियो नीक कहैत अछि। वेद आ विद्वान् कहैत छथि जे बिना विचारल हड़बड़ी मे कोनो काज कयकेँ पाछाँ पछताइत छथि, ओ बुद्धिमान् नहि छथि।”
हरिः हरः!!