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रामचरितमानस मोतीः भरतजी चित्रकुटक मार्ग मे

स्वाध्याय

– प्रवीण नारायण चौधरी

रामचरितमानस मोती

भरतजी चित्रकूटक मार्ग मे

१. एहि प्रकारे भरतजी मार्ग मे चलल जा रहल छथि। हुनकर हालत देखि मुनि ओ सिद्धगण लोकनि सिहरि रहल छथि। भरतजी जखनहि ‘राम’ कहिकय लम्बा साँस लैत छथि, तखनहि मानू चारू दिश प्रेम उमड़ि पड़ैत अछि। प्रेम और दीनता सँ पूर्ण हुनकर वचन सुनि वज्र आर पत्थर सेहो पिघलि जाइत अछि।

२. अयोध्यावासी सभक प्रेम कहैत नहि बनैत अछि। बीच मे निवास कय भरतजी यमुनाजीक तट पर अयलाह। यमुनाजीक जल देखिकय हुनकर नेत्र मे जल भरि एलनि। श्री रघुनाथजीक (श्याम) रंग समान सुन्दर जल देखिकय सारा समाज सहित भरतजी प्रेम विह्वल भ’ कय श्री रामजीक विरहरूपी समुद्र मे डूबैत-डूबैत विवेकरूपी जहाज पर चढ़ि गेलथि। अर्थात्‌ यमुनाजीक श्यामवर्ण जल देखिकय सब कियो श्यामवर्ण भगवानक प्रेम मे विह्वल भ’ गेलाह आर हुनका नहि पाबि विरह वेदना सँ बीमार भ’ गेलाह। ताबत भरतजी केँ ई ध्यान एलनि जे जल्दी चलिकय हुनकर साक्षात्‌ दर्शन करब, एहि विवेक सँ ओ फेर उत्साहित भ’ गेलाह।

३. ओहि दिन यमुनाजीक किनार पर निवास कयलनि। समयानुसार सभक लेल खान-पान आदिक सुन्दर व्यवस्था भेल। निषादराजक संकेत पाबि रातिये भरि मे घाट-घाटक अगणित नाव ओतय आबि गेल, जेकर वर्णन नहि कयल जा सकैत अछि। भोरे एक्के खेवा मे सब कियो पार भ’ गेलाह आर श्री रामचंद्रजीक सखा निषादराज केर एहि सेवा सँ संतुष्ट भेलाह। फेर स्नान कयकेँ आर नदी केँ सिर नमा निषादराजक संग दुनू भाइ चलि पड़लाह।

४. आगू नीक-नीक सवारी सब पर श्रेष्ठ मुनि छथि, हुनकर पाछू सारा राजसमाज जा रहल अछि। हुनकर पाछू दुनू भाइ बहुत सादा भूषण-वस्त्र आर वेष सँ पैदल चलि रहल छथि। सेवक, मित्र आर मंत्रीक पुत्र हुनकर संग छन्हि। लक्ष्मण, सीताजी आर श्री रघुनाथजीक स्मरण करैत जा रहल छथि। जतय-जतय श्री रामजी निवास और विश्राम कएने रहथि, ओतय-ओतय ओ प्रेमसहित प्रणाम करैत छथि।

५. मार्ग मे रहयवाली स्त्री-पुरुष ई सुनिकय घर आर काम-काज छोड़ि दौड़ि पड़ैत छथि आर हुनकर रूप (सौन्दर्य) और प्रेम केँ देखिकय ओ सब जन्म लेबाक फल पाबिकय आनन्दित होइत छथि। गामक स्त्री एक-दोसर सँ प्रेमपूर्वक कहैत छथि –

“सखी! ई राम-लक्ष्मण छथि कि नहि? हे सखी! हिनकर अवस्था, शरीर आर रंग-रूप त वैह छन्हि। शील, स्नेह हुनकहि सदृश छन्हि आर चाइल सेहो हुनके जेकाँ छन्हि। धरि सखी! हिनकर त ओ वेष – वल्कलधारी मुनिवेष त नहि छन्हि, नहिये सीताजी संग छथिन आ हिनका आगू चतुरंगिणी सेना चलि रहल छन्हि। फेर हिनकर मुख प्रसन्न नहि छन्हि, हिनकर मोन मे पछतावा (खेद) छन्हि। हे सखी! एहि भेदक कारण सन्देह होइत अछि।”

६. ओकर तर्क (युक्ति) आरो स्त्रिगण केँ नीक लगलनि। सब कहैत छथि जे एकरा समान बुधियाइर कियो नहि अछि। ओकर सराहना कय केँ आर ‘तोहर वाणी सत्य छौक’ एहि तरहें ओकर सम्मान कयकेँ दोसर स्त्री सब खूब नीक वचन बजलीह। श्री रामजीक राजतिलकक आनन्द जाहि तरहें भंग भेल छलन्हि, ओ सबटा कथाप्रसंग प्रेमपूर्वक कहिकय फेर ओ भाग्यवती स्त्री श्री भरतजीक शील, स्नेह आर स्वभावक सराहना करय लगलीह। ओ बजलीह –

“देखू, ई भरतजी पिताक देल राज्य केँ त्यागिकय पैदल चलैत आर फलाहार करैत श्री रामजीक मनाबय लेल जा रहल छथि। हिनका समान आइ के अछि? भरतजीक भाइपन, भक्ति आर हिनकर आचरण कहय आ सुनय सँ दुःख आ दोष हरण करयवला अछि। हे सखी! हुनकर संबंध मे जे किछु कहल जाय, ओ कम होयत। श्री रामचंद्रजीक भाइ एहेन कियैक नहि होइथ! छोट भाइ शत्रुघ्न सहित भरतजी केँ देखिकय हम सब सेहो आइ धन्य (बड़भागिनी) स्त्रीक गिनती मे आबि गेलहुँ।”

७. एहि प्रकारे भरतजीक गुण सुनि आर हुनकर दशा देखिकय स्त्री सब पछताइत छथि आर कहैत छथिन – ई पुत्र कैकेइ जेहेन माताक योग्य नहि छथि। कियो कहैत छथिन – एहि मे रानीक सेहो दोष नहि छन्हि। ई सब विधाता मात्र कयलनि अछि, जे हमरा सभक अनुकूल अछि। कतय त हम सब लोक आ वेद दुनूक विधि (मर्यादा) सँ हीन, कुल आ करतूत दुनू सँ मलिन तुच्छ स्त्री, जे एहेन खराब देश (जंगली प्रान्त) एहेन खराब गाम मे बसैत छी आ जंगल मे रहयवाली नीच स्त्री छी! आर कतय ई महान् पुण्यक परिणामस्वरूप हिनक दर्शन!

८. एहने आनन्द आर आश्चर्य गाम-गाम मे भ’ रहल अछि। मानू मरुभूमि मे कल्पवृक्ष उगि गेल हो। भरतजीक स्वरूप देखिते रास्ता मे रहयवला लोकक भाग्य खुलि गेल! मानू दैवयोग सँ सिंहलद्वीप के निवासी केँ तीर्थराज प्रयाग सुलभ भ’ गेल हो!

९. एहि तरहें अपन गुण सहित श्री रामचंद्रजीक गुणक कथा सुनिते आर श्री रघुनाथजीक स्मरण करिते भरतजी चलल जा रहल छथि। ओ तीर्थ देखिकय स्नान और मुनि लोकनिक आश्रम तथा देवता लोकनिक मन्दिर देखिकय प्रणाम करैत छथि। आर मने मन ई वरदान मँगैत छथि जे श्री सीता-रामजीक चरण कमल मे प्रेम हो। मार्ग मे भील, कोल आदि वनवासी तथा वानप्रस्थ, ब्रह्मचारी, संन्यासी और विरक्त लोक सब भेटैत छथि। हुनका सब मे सँ जेकरा-तेकरा सँ प्रणाम कयकेँ पुछैत छथि जे लक्ष्मणजी, श्री रामजी और जानकीजी कोन वन मे छथि?

१०. ओ सब प्रभुक सब समाचार कहैत छथि आर भरतजी केँ देखिकय जन्मक फल पबैत छथि। जे लोक कहैत छथि जे हम हुनका कुशलपूर्वक देखलियनि, हुनका ई श्री राम-लक्ष्मणहि समान प्रिय मानैत छथि। एहि तरहें सब सँ सुन्दर वाणी सँ पुछैत आ श्री रामजीक वनवासक कहानी सुनैत जाइत छथि।

११. ओहि दिन ओतहि रुकिकय दोसर प्रातःकाल श्री रघुनाथजीक स्मरण कयकेँ चललाह। संग मे रहल समस्त लोक सेहो भरतेजी श्री रामजीक दर्शनक लालसा लगेने छथि। सबकेँ मंगलसूचक शकुन भ’ रहल छैक। सुख दयवला (पुरुषक दाहिना आर स्त्रीक बायाँ) नेत्र आ भुजा फड़ैक रहल छैक। समाज सहित भरतजी केँ उत्साह भ’ रहल छन्हि जे श्री रामचंद्रजी भेटताह आर दुःखक धाह मेटा जायत।

१२. जेकर जी मे जेहेन छैक, ओ ओहेन मनोरथ करैत अछि। सब स्नेहरूपी मदिरा सँ अक्छायल (प्रेम मे मतवाला भेल) चलल जा रहल छथि। अंग शिथिल छन्हि, रस्ता मे पैर डगमगा रहल छन्हि आ प्रेमवश विह्वल वचन बाजि रहल छथि। रामसखा निषादराज ताहि समय स्वाभाविके सुहाओन पर्वतशिरोमणि कामदगिरि देखौलनि, जेकर नजदीक पयस्विनी नदीक तट पर सीताजी समेत दुनू भाइ निवास करैत छथि। सब गोटे ओहि पर्वत केँ देखिकय ‘जानकी जीवन श्री रामचंद्रजी की जय हो।’ एना कहिकय दण्डवत प्रणाम करैत छथि।

१३. राजसमाज प्रेम मे एना मग्न छथि मानू श्री रघुनाथजी अयोध्या लौटि चलल होइथ। भरतजीक ओहि समय जेहेन प्रेम छलन्हि, से शेषजी सेहो नहि कहि सकैत छथि। कविक लेल त ओ ओहने अगम अछि जेना अहंता आ ममता सँ मलिन मनुष्य लेल ब्रह्मानन्द! सब लोक श्री रामचंद्रजीक प्रेमक मारल शिथिल हेबाक कारण सूर्यास्तक समय धरि मात्र दुइ कोस चलि पेलाह आर जल-स्थलक सुपास देखि राति ओतहि बिना खेने-पिने रहि गेलाह। राति बितलापर श्री रघुनाथजीक प्रेमी भरतजी आगू के यात्रा कयलाह।

हरिः हरः!!

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