स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
इंद्र-बृहस्पति संवाद
१. भरतजीक प्रेमक प्रभाव देखि देवराज इन्द्र केँ सोच भ’ गेलनि जे कहीं हिनक प्रेमवश श्री रामजी वापस न आबि जाइथ आ हमरा सभक बनल-बनायल कार्य बिगड़ि नहि जाय। संसार भला लेल भला आ ब’द लेल ब’द (खराब लेल खराब) होइछ। मनुष्य जेहेन अपने होइत अछि ओकरा संसारो ओहने देखाइत छैक। ओ गुरु वृहस्पतिजी सँ कहलनि – हे प्रभो! एहेन उपाय करू जाहि सँ श्री रामचन्द्रजी आर भरतजीक भेंटे नहि होइन्ह। श्री रामचन्द्रजी संकोची आर प्रेमक वश छथि आर भरतजी प्रेमक समुद्र छथि। बनल-बनायल बात बिगड़य चाहैत अछि, एहि लेल किछु हल ताकिकय एकर उपाय करू।
२. इन्द्रक वचन सुनिते देवगुरु बृहस्पतिजी मुस्कुरेलाह। ओ हजार नेत्रवला इन्द्र केँ ज्ञानरूपी नेत्ररहित (मूर्ख) बुझलनि आ कहलनि –
“हे देवराज! मायाक स्वामी श्री रामचन्द्रजीक सेवकक संग कोनो माया करैत छी त ओ उलटिकय अपनहि उपर आबि जायत। ताहि समय (पैछला बेर) त श्री रामचन्द्रजीक रुइख जानि किछु कयल गेल छल, मुदा एहि बेर कुचाइल कयला सँ हानिये होयत।
हे देवराज! श्री रघुनाथजीक स्वभाव सुनू, ओ अपना प्रति कयल गेल अपराध सँ कहियो रुष्ट नहि होइत छथि। मुदा जे कियो हुनकर भक्तक अपराध करैत अछि, ओ श्री रामक क्रोधाग्नि सँ जरि जाइत अछि। लोक आर वेद दुनू मे इतिहास (कथा) प्रसिद्ध अछि। एहि महिमा केँ दुर्वासाजी जनैत छथि।
समूचा संसार श्री राम केँ जपैत अछि, आर श्री रामजी जिनका जपैत छथि, ताहि भरतजीक समान श्री रामचन्द्रजीक प्रेमी के होयत?
हे देवराज! रघुकुलश्रेष्ठ श्री रामचन्द्रजीक भक्तक काम बिगाड़य के बात मोन मे अनबो नहि करू। एना कयला सँ लोक मे अपयश आ परलोक मे दुःख होयत आर शोक केर सामान दिनानुदिन बढिते चलि जायत।
हे देवराज! हमर उपदेश सुनू। श्री रामजी केँ अपन सेवक परम प्रिय छन्हि। ओ अपन सेवक केर सेवा सँ सुख मानैत छथि आर सेवक संग वैर कयला सँ बड़ा भारी वैर मानैत छथि।
यद्यपि ओ सम छथि – हुनका मे न राग अछि, न रोष अछि आर नहिये ओ केकरो पाप-पुण्य आ गुण-दोषहि केँ ग्रहण करैत छथि।
ओ विश्व मे कर्म केँ मात्र प्रधान कएने छथि। जे जेहेन करैत अछि, ओ तेहेन फल भोगैत अछि। तथापि ओ भक्त और अभक्त केर हृदयक अनुसार सम और विषम व्यवहार करैत छथि, भक्त केँ प्रेम सँ गला लगा लैत छथि आर अभक्त केँ मारिकय तारि देल करैत छथि।
गुणरहित, निर्लेप, मानरहित आ सदा एकरस भगवान् श्री राम भक्तहि केर प्रेमवश सगुण भेल छथि। श्री रामजी सदा अपन सेवक (भक्त) केर रुचि रखैत आयल छथि।
वेद, पुराण, साधु और देवता एकर साक्षी अछि। एना हृदय मे जानिकय कुटिलता छोड़ि दिअ आर भरतजीक चरण मे सुन्दर प्रीति करू।
हे देवराज इन्द्र! श्री रामचन्द्रजीक भक्त सदा दोसरक हित मे लागल रहैत छथि, ओ दोसरक दुःख सँ दुःखी आ दयालु होइत छथि। फेर भरतजी त भक्त के शिरोमणि छथि, हुनका सँ एकदम नहि डराउ।
प्रभु श्री रामचन्द्रजी सत्यप्रतिज्ञ आर देवता सभक हित करयवला छथि आर भरतजी श्री रामजीक आज्ञा अनुसार चलयवला छथि।
अहाँ व्यर्थे स्वार्थक विशेष वश भ’ कय व्याकुल भ’ रहल छी। एहि मे भरतजीक कोनो दोष नहि, अहींक ई मोह थिक।”
३. देवगुरु बृहस्पतिजीक श्रेष्ठ वाणी सुनिकय इन्द्रक मोन मे बहुत आनन्द भेलनि आर हुनकर चिन्ता मेटा गेलनि। तखन हर्षित भ’ कय देवराज फूल बरसाकय भरतजीक स्वभावक सराहना करय लगलाह।
हरिः हरः!!