स्वाध्याय
– प्रवीण नारायण चौधरी
रामचरितमानस मोती
भरद्वाज द्वारा भरत केर सत्कार
१. एहि प्रकारे मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजी भरतजीक समाधान कयकेँ आगू कहलनि – आब अपने लोकनि हमर प्रेम प्रिय अतिथि बनू आ कृपा कय केँ कन्द-मूल, फल-फूल जे किछु हम दी से स्वीकार करू।
२. मुनिक वचन सुनिकय भरतक हृदय मे सोच भेलनि जे बेमौका ई बड़ा बेढब संकोच आबि गेल। गुरुजनक वाणी केँ आदरणीय बुझिकय, चरणक वन्दना कयकेँ हाथ जोड़िकय बजलाह – हे नाथ! अपनेक आज्ञा केँ सिर चढ़ाकय ओकर पालन करब यैह हमर परम धर्म थिक।
३. भरतजीक वचन मुनिश्रेष्ठ केर मोन केँ बड नीक लगलनि। ओ विश्वासपात्र सेवक आ शिष्य सबकेँ बजा लेलनि। आर कहलखिन जे भरतजीक पहुनाई करबय जाउ। जाउ आ कन्द, मूल तथा फल लाउ। ओ सब ‘हे नाथ! बहुत नीक’ कहिकय सिर नमबैत अपन-अपन काज लेल चलि देलनि।
४. मुनि केँ चिन्ता भेलनि जे हम त बड पैघ पाहुन केँ नोत देलहुँ अछि। आब जेहेन देवता हेता हुनकर तेहने पूजा सेहो हेबाक चाही। ई सुनिकय ऋद्धि आ अणिमादि सिद्धि सब आबि गेलीह आ कहली – हे गोसाईं! अहाँक जेहेन आज्ञा हो से हम सब करी। मुनिराज प्रसन्न होइत कहलखिन – छोट भाइ शत्रुघ्न आर समाज सहित भरतजी श्री रामचन्द्रजीक विरह मे व्याकुल छथि, हिनकर पहुनाई (आतिथ्य सत्कार) कय केँ हिनकर श्रम (थकावट) दूर करू।
५. ऋद्धि-सिद्धि मुनिराजक आज्ञा केँ सिर चढ़ा अपना केँ बड़भागिनी बुझलनि। सब सिद्धि लोकनि आपस मे कहय लगलीह – श्री रामचन्द्रजीक छोट भाइ भरत एहेन अतिथि छथि जिनकर तुलना मे कियो नहि आबि सकैत अछि। अतः मुनिक चरण केर वन्दना कयकेँ आइ वैह करबाक चाही जाहि सँ सारा राज-समाज सुखी होयत।
६. एतेक कहि ओ सब बहुत रास सुन्दर घर बनौलनि जे देखिकय विमान सेहो लजा जाइत अछि। ताहि घर सब मे बहुतो रास भोग (इन्द्रिय केर विषय) आर ऐश्वर्य (ठाट-बाट) केर सामान भरिकय राखि देलनि, जे देखिकय देवता सब सेहो ललचा गेलाह।
७. दासी-दास सब प्रकारक सामग्री लेने मोन लगाकय हुनका लोकनिक मोनक रुचि अनुसार सेवा करैत रहैत छथि। जे सुख के सामान स्वर्ग मे पर्यन्त सपनहुँ मे नहि अछि, तेहेन सब सामान सिद्धि लोकनि क्षणहि भरि मे सजा देलनि। पहिने त ओ लोकनि सब गोटे केँ हुनकर रुचि अनुसार तेहने सुन्दर सुखदायक निवास देलनि। तेकर बाद कुटुम्ब सहित भरतजी केँ निवास देलनि, कियैक त ऋषि भरद्वाजजी एहिना करबाक आज्ञा दय देने रहथि।
८. भरतजी चाहैत छलाह जे पहिने हुनकर सब संगी लोकनि केँ आराम भेटय, ताहि लेल हुनकहि मोनक बात जानि मुनि पहिने हुनकहि सब लेल स्थान दय पाछाँ सपरिवार भरतजी केँ स्थान देबाक आज्ञा देने रहथि।
९. मुनि श्रेष्ठ तपोबल सँ ब्रह्मा केँ सेहो चकित कय दयवला वैभव केर रचना कय देलाह। जखन भरतजी मुनिक प्रभाव केँ देखलथि त हुनका समान इन्द्र, वरुण, यम, कुबेर आदि समस्त लोकपाल लोकनि सेहो तुच्छ जानि पड़लाह। सुखक सामग्रीक वर्णन नहि भ’ सकैछ, जे देखिकय ज्ञानी लोकनि सेहो वैराग्य बिसरि जाइत छथि। आसन, सेज, सुन्दर वस्त्र, चँदोवा, वन, बगीचा, भाँति-भाँति केर पक्षी आर पशु, सुगन्धित फूल आर अमृत समान स्वादिष्ट फल, अनेकों प्रकारक पोखरि, इनार, झील आदि निर्मल जलाशय, तथा अमृतहु केर अमृत-समान पवित्र खान-पानक पदार्थ छल, जे सब देखिकय सब कियो संयमी पुरुष (विरक्त मुनि) लोकनि सेहो ललचा रहल छथि।
१०. सभक डेरा मे मनोवांछित वस्तु दयवला कामधेनु आर कल्पवृक्ष छथि, जे देखिकय इन्द्र आ इन्द्राणी केँ सेहो अभिलाषा होइत छनि, हुनको सभक मोन मे लालच आबि रहल छन्हि। वसन्त ऋतु अछि। शीतल, मन्द, सुगन्ध तीनू तरहक हवा बहि रहल अछि। सब केँ धर्म, अर्थ, काम आर मोक्ष चारू पदार्थ सुलभ छन्हि।
११. माला, चन्दन, आदि भोग केर सब वस्तु देखिकय लोक सब हर्ष आ विषाद दुनू के वश भ’ रहल छथि। हर्ष त भोग सामग्री आ मुनिक तप केर प्रभाव केँ देखिकय होइत छन्हि आ विषाद एहि सँ जे श्री राम केर वियोग मे नियम-व्रत सँ रहयवला ओ सब भोग-विलास मे कियैक फँसि गेलाह, कतहु एहि मे आसक्त भ’ कय हुनका सभक मोन नियम-व्रत केँ नहि त्यागि दियए।
१२. सम्पत्ति (भोग-विलास केर सामग्री) चकवी अछि आर भरतजी चकवा छथि, मुनिक आज्ञा खेल थिक, जे ओहि राति केँ आश्रमरूपी पिंजड़ा मे दुनू केँ बन्द कय देने अछि आर एनाही मे भोर भ’ गेल। जेना कोनो बहेलिया द्वारा एकटा पिंजड़ा मे राखि देलापर चकवी-चकवा केँ रातिक संयोग नहि होइत छैक, तहिना भरद्वाजजी केर आज्ञा सँ राति भरि भोग सामग्रीक संग रहलो पर भरतजी मोन सँ ताहि सब केँ स्पर्श तक नहि कयलनि।
१३. प्रातःकाल भरतजी तीर्थराज मे स्नान कयलनि आर समाज सहित मुनि केँ सिर नमाकय आ ऋषिक आज्ञा तथा आशीर्वाद केँ सिर चढ़ाकय दण्डवत् करैत बहुत रास विनती कयलनि। तदनन्तर रास्ताक पहिचान राखयवला लोक (कुशल पथप्रदर्शक सब) केँ संग सब लोक केँ लेने भरतजी त्रिकूट मे चित्त लगबैत चलि देलनि।
१४. भरतजी रामसखा गुह केर हाथ मे हाथ देने एना जा रहल छथि मानू साक्षात् प्रेमे शरीर धारण कएने जा रहल हो। नहि त पैर मे जूता छन्हि, नहिये माथ पर छाया छन्हि, हुनकर प्रेम नियम, व्रत आर धर्म निष्कपट (सत्य) छन्हि। ओ सखा निषादराज सँ लक्ष्मणजी, श्री रामचन्द्रजी और सीताजीक रास्ताक बात सब पुछैत छथि आर ओ कोमल वाणी सँ कहैत छथि – श्री रामचन्द्रजीक ठहरबाक जगह आर गाछ सब देखिकय हुनकर हृदयक प्रेम रोकलो सँ नहि रुकि पबैत अछि।
१५. भरतजीक ई दशा देखिकय देवता लोकनि फूल बरसाबय लगलाह। पृथ्वी कोमल भ’ गेलीह आ मार्ग मंगल केर मूल बनि गेल। बादल छाया कएने जा रहल अछि, सुख दयवाली सुन्दर हवा बहि रहल अछि। भरतजीक जाइत समय मार्ग जेना सुखदायक भेल, तेना श्री रामचन्द्रजी केँ नहि भेल छलन्हि।
१६. रास्ता मे असंख्य जड़-चेतन जीव छल। ताहि मे सँ जिनका सबकेँ प्रभु श्री रामचंद्रजी देखलनि, अथवा जे कियो प्रभु श्री रामचंद्रजी केँ देखलनि, ओ सब ताहि समय परमपद केर अधिकारी भ’ गेलाह। लेकिन आब भरतजीक दर्शन सँ त हुनका सभक भव (जन्म-मरण) रूपी रोग सेहो मेटा देलक।
१७. श्री रामदर्शन सँ त ओ परमपद केर अधिकारी भेले छलाह, आब भरत दर्शन सँ हुनका लोकनि केँ ओ परमपद प्राप्त सेहो भ’ गेलनि। भरतजीक लेल ई कोनो बड़का बात नहि छन्हि, जिनका श्री रामजी स्वयं अपन मोन मे स्मरण करैत रहैत छथि।
१८. जगत् मे जेहो मनुष्य एक बेर ‘राम’ कहि लैत अछि, ओहो तरय-तारय वला भ’ जाइत अछि। फेर भरतजी त श्री रामचंद्रजीक प्यारा तथा हुनकर छोट भाइये ठहरलाह। तखन भले हुनका लेल मार्ग मंगल (सुख) दायक केना नहि हुए! सिद्ध, साधु आर श्रेष्ठ मुनि एना कहि रहल छथि आर भरतजी केँ देखिकय हृदय मे हर्ष लाभ कय रहल छथि।
हरिः हरः!!